मैंने तीन सदियाँ देखी हैं! तीन महारथी: यशपाल, दिनकर और बच्चन

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त्रिलोकदीप,वरिष्ठ पत्रकार,लेखक

इस बार राजनीति से हट कर उन तीन साहित्यकारों के बारे में लिखूंगा जिन्हें मैंने पढ़ा है,देखा है,सुना है और दो को मिला भी हूं कई बार । जिनसे मैं मिला हूं उनका नाम है रामधारी सिंह दिनकर और डॉ हरिवंश राय बच्चन तथा बच्चन जी की विदूषी सिख परिवार से संबंध रखने वाली पत्नी तेजी सूरी बच्चन से । उनसे पहले यशपाल की बारी आती है जिनकी 3 दिसंबर,1903 की पैदाइश है जबकि बच्चन जी की 27 जनवरी,1907 और रामधारी सिंह दिनकर की 23 सितम्बर,1908 है ।दिनकर जी को मैंने बच्चन जी से पहले इसलिए ले लिया है, क्योंकि उनसे पहले प्रसंग स्वाधीनता संग्राम से जुड़े यशपाल का चल रहा था ।क्रांतिकारी तो दिनकर भी थे लेकिन यशपाल जैसे नहीं ।पूछा जा सकता है कि 1904 में जन्मे लालबहादुर शास्त्री इन साहित्यकारो से पहले क्यों! इसका सीधा से उत्तर है कि एक तो गुलज़ारीलाल नंदा की पोस्ट में उनका कई बार उल्लेख हुआ था और वह देश के दूसरे प्रधानमंत्री थे जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में देश की बागडोर संभाली थी ।इन तीन साहित्यकारो के बाद अज्ञेय की बारी आती है जो 7 मार्च,1911 जन्मा हैं ।

अब शुरू करते हैं यशपाल से । मैं पहले भी लिख चुका हूं कि जब मैं रायपुर में माधवराव सप्रे हाई स्कूल में पढ़ता था तो मेरे हिंदी के अध्यापक पंडित स्वराज्यप्रसाद त्रिवेदी मुझे पाठ्यक्रम के बाहर की पुस्तकें पढ़ने के लिए लाकर दिया करते थे ।उनके माध्यम से मैंने प्रेमचंद,अज्ञेय,शरतचंद्र,बंकिमचन्द्र चटर्जी,धर्मवीर भारती के साथ ही यशपाल को भी पढ़ लिया था अपने स्कूल के दिनों में ।मुझे अच्छी तरह से याद है कि उनकी आत्मकथा ‘सिंहावलोकन'(एक शेर की नज़र) के तीनों खंड पढ़ लिए थे ।

उसी से पता चला था कि वह क्रन्तिकारी सरदार भगत सिंह,सुखदेव थापर और चंद्रशेखर आजाद के साथी क्रांतिकारी थे।उस आत्मकथा से यशपाल के जीवन की न केवल प्रारंभिक जानकारी ही प्राप्त हुई अपितु उनके भारत में स्वतंत्रता के लिए किए गए सशस्त्र संघर्ष का विस्तृत विवरण भी पढ़ने को मिलता है ।उनके कुछ क्रांतिकारी साथी इसे एकपक्षीय मानते हैं । यशपाल के उन दिनों के साथी सच्चिदनंद हीरानंद वात्स्यायन और बिमल प्रसाद जैन क्या सोचते हैं इसके बारे में दिल्ली आने और इन दोनों से मुलाकात और बातचीत करने पर कुछ तथ्य जानने को मिले । इसआत्मकथा के अतिरिक्त रायपुर में ही मैंने यशपाल की ‘दादा कामरेड’और ‘देशद्रोही’ पढ़ी थी ।कहने को ये दोनों काल्पनिक रचनाएं थीं लेकिन आधारित थीं कम्युनिस्ट विचारधारा पर जिसके वह कुछ समय तक सदस्य भी रहे ।करीबी तो यशपाल की कांग्रेस के प्रति भी थी और महात्मा गांधी से वह मिले भी थे लेकिन युवा यशपाल की दृष्टि में गांधी जी के आंदोलन उनकी ‘ढुलमुल’ नीति के परिचायक थे ।

यशपाल की एक और कहानी जो मुझे अभी तक याद है वह है ‘तुमने क्यों कहा था,मैं सुंदर हूं’। यशपाल को जहां लोगबाग क्रांतिकारी के तौर पर जानते हैं वैसे ही उनकी रोमांस और रोमांच को लेकर भी कई कहानियां
हैं ।’तुमने क्यों कहा था,मैं सुन्दर हूं ‘यशपाल की यह कहानी एक अधेड़ व्यक्ति और उसकी पत्नी के और पड़ोस में रहने वाले एक युवक की अधूरी प्रेम कहानी है ।इस कहानी में दोनों के बीच प्रेम और आकर्षण को
प्रतिबिंबित किया गया है ।कहानी में दिखाया गया है कि कैसे एक व्यक्ति अपनी पत्नी को सुंदर कहता है और वह कैसे उसके आकर्षण के बारे में सोचने पर मजबूर होता है । सात दशक पहले यह कहानी पढ़ी थी, स्कूल के दिनों में ।इसका शीर्षक इतना अच्छा और अलग-सा लगा जो इतना समय बीत जाने पर भी दिमाग के किसी कोने में दर्ज रहा ।

यशपाल की जो दूसरी पुस्तक मुझे बहुत पसंद है वह है ‘झूठा सच’।इसकी कहानी 1947 में भारत की आज़ादी के वक़्त भयंकर दंगों की पृष्ठभूमि के रूप में पेश की गयी है । विभाजन से जुड़े इस विशाल और सर्वोत्कृष्ट उपन्यास में उस समय की घटनाओं और त्रासदियों को बड़ी बारीकी से बुना गया है । यह उपन्यास दो खंडों में विभाजित है ‘वतन और देश’ तथा ‘देश का भविष्य’।इस महाकाय उपन्यास में विभाजन के समय देश में होने वाले भीषण रक्तपात व भीषण अव्यवस्था और आज़ादी के बाद चारित्रिक स्खलन और उससे जुड़ी कई किस्म की विडंबनाओं का बड़े ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुतिकरण किया गया है ।

इसे मानवीय यातना के इतिहास में विश्व की क्रूरतम घटनाओं में से एक घटना माना जायेगा ।जिस तरह से एक बड़ी संख्या में लोगों को अपना वतन या मुल्क छोड़कर भारत या पाकिस्तान में नये सिरे से बसने को मजबूर होना पड़ा उसे बड़े ही मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है । शरणार्थियों को लेकर आने वाली एक बस के ड्राइवर का यह कथन कि ‘रब ने जिन्हें एक बनाया था,उसके बन्दों ने अपने वहम और ज़ुल्म से उन्हें दो कर दिया’ बड़ा ही हृदयस्पर्शी और मौजूं लगता है ।दूसरे खंड ‘देश का भविष्य’ में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के दशक में देश के निर्माण और विकास में नेताओं और बुद्धिजीवियों की सोच को रेखांकित किया गया है ।कुछ लेखक और आलोचक इस उपन्यास की तुलना प्रसिद्ध रूसी लेखक टालस्टाय की महान रचना ‘युद्ध और शांति’ से करते हैं तो कुछ समीक्षक ‘झूठा सच’ को यशपाल के श्रेष्ठतम उपन्यासों में मानते हैं ।

यशपाल ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में जब एडमिशन ली तब वहां पर उनकी मुलाकात भगत सिंह और सुखदेव थापर जैसे लोगों से हुई ।ये लोग पंजाबी सशस्त्र क्रांति आंदोलन का प्रमुख केंद्र थे ।इन छात्रों ने यूरोप और भारत के राजनीतिक सिद्धांत और पिछ्ले
क्रांतिकारियों के बारे में गहन अध्ययन किया था ।उसके बाद उन्होंने वर्तमान संदर्भ में एक संस्था बनायी
जिस का नाम रखा ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन
एसोसिएशन’ (एचएसआरए)। शुरू शुरू में यशपाल को पर्दे के पीछे रह कर काम करने की जिम्मेदरी सौंपी गयी । यशपाल लिखते हैं कि मुझसे कोई असन्तुष्ट नहीं था ।मेरी लगन,कड़ी मेहनत और योग्यता की सदा तारीफ होती लेकिन मुझे यह काम एक क्लर्क का-सा लगता था ।मैं तो कुछ ‘क्रांति’ करने के इरादे से यहां आया था कि मुझे देश और समाज का बदलाव करना है । शीघ्र ही उनके मन की मुराद पूरी हो गयी।

1929 में एचएसआरए बम फैक्ट्री में पुलिस द्वारा छापा मारे जाने के बाद यशपाल कांगड़ा क्षेत्र (हमीरपुर रेल स्टेशन के करीब) अपने एक रिश्तेदार पंडित श्यामा के साथ छुप कर रहे ।क्योंकि यशपाल कांगड़ा जन्मा हैं इसलिए वहां के पर्वतीय क्षेत्र से परिचित थे । करीब दो माह बाद जब वह लाहौर लौटे तो पता चला कि भगत सिंह और सुखदेव थापर को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है । उन्हें सहारनपुर में एचएसआरए के किसी सदस्य का संपर्क सूत्र मिला।इससे पहले कि यशपाल किसी से मिलते वहां की फैक्ट्री पर भी पुलिस ने छापा मारकर कई लोगों को हिरासत में ले लिया था ।

एचएसआरए अभी तक अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पा रहा था कि अचानक यशपाल को खबर मिली कि 23 दिसंबर,1929 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन को ले जा रही ट्रेन को उड़ाने की कोशिश करनी है ।यशपाल ने बम विस्फोट तो किया लेकिन लॉर्ड इरविन बच गये,सिर्फ डाइनिंग कार नष्ट हुई ।इस हादसे में कई लोग पकड़े गये लेकिन यशपाल साफ बच निकले ।इसके बाद चंद्रशेखर आजाद ने एचएसआरए का पुनर्गठन किया और यशपाल को केंद्रीय समिति में नियुक्त किया गया और वह पंजाब में आयोजक बन गये ।लाहौर में ही एचएसआरए के काम के ज़रिये उनकी मुलाकात 17 वर्षीय प्रकाशवती कपूर से हुई जिनसे बाद में उन्होंने शादी कर ली ।

प्रकाशवती एचएसआरए की सदस्य थीं,बम बनाती थीं और क्रांतिकारियों के लिए खाना भी । हालांकि चंद्रशेखर आजाद ने क्रांतिकारियों को महिलाओं से दूरी बनाए रखने के निर्देश दे रखे थे बावजूद इसके यशपाल और प्रकाशवती के बीच का बढ़ता हुआ आकर्षण उनकी शादी में तबदील हो गया ।

जैसा मैंने पहले कहा कि चाहकर भी मैं यशपाल जी से नहीं मिल पाया ।लखनऊ मेरा जाना कई बार हुआ था लेकिन कुछ झिझक मुझे उनके नज़दीक जाने से रोकती रही ।अज्ञेय की भांति मैंने स्कूल के दिनों में ही उनका तब तक का उपलब्ध साहित्य पढ़ लिया था जिसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूं ।दिल्ली में लोक सभा सचिवालय में काम करते हुए मैंने पढ़ने के साथ साथ लिखना भी शुरू कर दिया था ।रेडियो पर हफ्ते में एक बार तो जाना हो ही जाता था ।शुरू शुरू में मैंने हिंदी टॉक के प्रमुख हेमेंद्र जी के आग्रह पर कहानियां लिखीं और रिकार्ड कीं और देविंदर जी के इसरार पर पंजाबी में कहानियां लिखीं ।डॉ आर के माहेश्वरी मेरे लोकसभा से जुड़ाव के चलते अपने राष्ट्रीय कार्यक्रम में बुला लिया करते थे ।एक दिन माहेश्वरी जी के माध्यम से मुझे रेडियो के एक अधिकारी मिले,उनका नाम शायद पात्रो जी था और बोले कि हम स्वाधीनता सेनानियों पर एक सीरीज़ करना चाह रहे हैं और हम चाहते हैं कि इसका संचालन आप करें ।तब तक मैं ‘दिनमान’ ज्वायन कर चुका था,लोकसभा सचिवालय छोड़ कर और हमारे संपादक थे सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ।उनका सुझाव था कि इस श्रृंखला की शुरुआत आप अपने संपादक से कर सकते हैं,जो चोटी के क्रांतिकारियों में थे । उन्होंने पूछा कि क्या आप उनके साथी और सहयोगी बिमल प्रसाद जैन को भी जानते हैं । मैंने हामी भर दी ।

मैंने पहले बिमल प्रसाद जैन से शुरुआत की ।उनके साथ मैं बहुत सहज था ।वह जब वात्स्यायन जी से ‘दिनमान’ के ऑफ़िस 7, बहादुर शाह जफर मार्ग मिलने के लिए आते तो उनसे मेरी भी दुआ सलाम हो जाया करती थी ।लेकिन उनसे असली मुलाकात और बातचीत दरियागंज में उनके घर के आसपास होती थी वह इसलिए कि ‘दिनमान’ छापने का प्रिंटिंग प्रेस10, दरियागंज में था ।वहां हम सभी लोग बारी बारी से जाया करते थे ।कई बार मैं बिमल प्रसाद जैन को दरियागंज में सैर करते हुए देखता और उन्हें देखकर रुक जाया करता था ।एक दिन मैंने उनसे जब रेडियो के प्रोग्राम के बारे में चर्चा की तो वह मान गये ।उन्होंने बताया कि बटुकेश्वर दत्त के कहने पर वह क्रांतिकारी संगठन में शामिल हुए थे ।युवा थे। देश के स्वधीनता संग्राम में हिस्सेदारी का मन में जज़्बा था, क्रांतिकारी संगठन में शामिल होने का मार्ग था तो रोमांचक किंतु खतरनाक भी।मेरी शक्ल-सूरत देखकर कोई भी मुझे क्रांतिकारी नहीं कह सकता था। शायद यही वजह थी कि जिस दिन भगत सिंह ने राष्ट्रीय असेंबली में बम फेंका तो इसकी खबर अखबारों को देने के लिए मुझे चुना गया। खबर हमने पहले से तैयार कर रखी थी ।ज्यों ही बम फेंकने की आवाज़ हमने सुनी, मैं और चंद्रशेखर आजाद भागकर हिंदुस्तान टाइम्स गये और रिपोर्टिंग डेस्क पर खबर देकर वहां से चंपत हो गये ।किसी को कानोंकान इस बात की खबर न लगी ।

इसी प्रकार मेरी ड्यूटी वात्स्यायन जी के साथ भी लगती थी और कभी कभी यशपाल जी के साथ भी । वात्स्यायन लंबा ऊंचा गबरू पंजाबी जवान था और यशपाल जी भी पंजाबी थे लेकिन उनका व्यक्तित्व वात्स्यायन जी से अलग था और दोनों का मिज़ाज भी। ।लाहौर में हिमालय टॉयलेट्स नाम की एक मनियारी की दुकान थी जहां साबुन,क्रीम आदि बिकती थीं लेकिन भीतर एक रासायनिक कारखाना था जहां पर वात्स्यायन विस्फोटक तैयार किया करते थे जिनसे बम बनाया जा सके।क्रांतिकारी संगठन में वात्स्यायन ‘साईंटिस्ट’ के नाम से मशहूर थे ।यहां बने विस्फोटक दूसरे कई ठिकानों पर पहुंचाए जाते थे ।पहले यशपाल जी भी बम बनाया करते थे बाद में उन्हे संगठन का काम सौंप दिया गया ।जहां वात्स्यायन बेहद सादी आदतों वाले थे और अपने साथियों पर गहरा विश्वास और भरोसा रखते थे वहां यशपाल जी साहसी तो थे लेकिन उनका ‘साहबी अंदाज़’ था ।उन्हें अच्छा अच्छा खाने और पहनने का शौक था,खाना वह पार्टी के साथियों से अलग होटल में खाते थे।उनके कपड़े आधुनिक और दूसरों की अपेक्षा अधिक साफ सुथरे होते थे ।यशपाल अपने आप को दूसरों से ऊंचा मानते थे और वैसा ही व्यवहार किया करते थे । बिमल प्रसाद जैन ने बताया था ।

बिमल प्रसाद जैन के बाद मुझे सच्चिदानंद वात्स्यायन,जैनेंद्र, रामचरन अग्रवाल से बात करनी थी।जहां वात्स्यायन जी उर्फ अज्ञेय क्रांतिकारी थे,यशपाल और बिमल प्रसाद जैन की तरह वहां जैनेंद्र और रामचरन अग्रवाल गांधी जी के आवाहन पर जेल गए थे।लिहाजा मैंने वात्स्यायन जी से पहले बात करने का फैसला किया ।मेरी सूची में नाम तो यशपाल का भी था,यह रेडियो अधिकारियों को तय करना था कि उन्हें दिल्ली आमंत्रित किया जाए या उनसे लखनऊ में बात की जाये ।क्योंकि इस समय मैं यशपाल के क्रांतिकारी जीवन पर लिख रहा हूं इसलिए मैंने अज्ञेय से यशपाल के उसी पक्ष पर बात की ।क्रांतिकारी संगठन में दोनों की ही खासी अहमियत थी । स्नातक की पढ़ाई में वात्स्यायन के पास भौतिक और रसायनशास्त्र प्रमुख विषय थे ।इस सिलसिले में उन्होंने प्रयोगशाला में कई प्रकार के प्रयोग किए थे लिहाजा क्रांतिकारी संगठन में उन्हें विस्फोटक बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी।वात्स्यायन चंद्रशेखर आजाद,भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, यशपाल और बिमल प्रसाद जैन के करीबी और विश्वसनीय क्रांतिकारियों में माने जाते थे इसलिए उन्हें चुनौतीपूर्ण कार्य ही दिए जाते थे ।क्योंकि उनका काम काफी महत्वपूर्ण था जिसे किसी भी क्रांतिकारी संगठन की रीढ़ कहा जा सकता था इसलिए वात्स्यायन की गिनती अग्रिम पंक्ति के क्रांतिकारियों में उस तरह से नहीं होती थी जैसे भगत सिंह,सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु,चंद्रशेखर आज़ाद आदि की होती है ।जब मैंने वात्स्यायन जी से उनके क्रांतिकारी साथी यशपाल के साथ उनके संबंधों और क्रांतिकारी संगठन में उनकी भूमिका के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि यशपालजी में गुप्त संगठन चलाने की कुशलता तो काफी थी लेकिन साथियों के प्रति उनका व्यवहार जैसा होना चाहिए वैसा नहीं था । उनके ऐसे व्यवहार का संगठन पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ा ।उन्होंने बताया कि संगठन में काम करते हुए गोपनीयता बनाये रखनी अनिवार्य होती है इस नाते अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग भूमिकाएं रखी जाती थीं जो उस व्यक्ति की कदकाठी के अनुकूल हों । इस संदर्भ में वात्स्यायन ने गिरिवर सिंह की मिसाल देते हुए बताया कि वह था तो राजपूत लेकिन उसका रोल नौकर का था ।कभी कभी यशपालजी उनके साथ सचमुच नौकरों जैसा व्यवहार कर बैठते थे इसकी अनदेखी करते हुए कि वह भी क्रांतिकारी है और संगठन ने उनके लिए यह भूमिका निश्चित की है ।

वात्स्यायन जी ने अपना एक उदाहरण देते हुए रेडियो के उसी कार्यक्रम में बताया कि एक बार उन्हें यशपाल को छिपाकर रखने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी ।जिस ट्रेन से उन्हें जाना था उसमें एक को साहब यानी इंजीनियर का रोल करना था और दूसरे व्यक्ति को नौकर का ।आयु और संगठन दोनों में यशपालजी मुझसे सीनियर थे और वह अपनी वरिष्ठता जताते और चेताते भी रहते थे ।लिहाजा वह चाहते थे कि वह साहब बनकर ट्रेन की प्रथम श्रेणी में बैठें और मैं नौकर वाली वर्दी में उनके बगल वाले डिब्बे में सफर करुँ ।वात्स्यायनजी बताते हैं कि उन्हें एक शरारत सूझी ।मैंने कहा कि मुझे इस व्यवस्था से कोई आपत्ति नहीं परंतु विश्वसनीयता की दृष्टि से यशपालजी को सोच लेना चाहिए कि किसे नौकर और किसे साहब के रोल में रखना उचित होगा ।बहुत सोच विचार के बाद यशपालजी ने कहा कि उचित यही होगा कि वह नौकर बनें और वात्स्यायन को इंजीनियर बनकर चलना चाहिए ।यही हुआ ।मैं इंजीनियर बनकर फ़र्स्ट क्लास की अपनी बर्थ पर आ गया और यशपाल नौकर की वेशभूषा में बगल वाले डिब्बे में बैठे ।अब मैंने यशपाल को नसीहत देने का मन बनाया, हेठी करने का नहीं ।सबसे पहले बर्थ पर बैठते ही मैंने अपने पैरों को यशपालजी की तरफ बढ़ाते हुए जूते के फीते खोलकर उतारने के लिए कहा । यशपालजी ने पहले मुझे गुस्से से घूरा और फिर पैरों से जूते अलग किये ।इसी प्रकार सुबह अन्य नौकरों की भांति यशपालजी भी अपने साहब से बैड-टी के बारे में पूछने के लिए आये ।हम दोनों जानते थे कि मैं बैड-टी का आदी नहीं हूं लेकिन उस दिन मुझे अपनी साहबी बघारनी थी इसलिए मैंने बैड-टी का ऑर्डर कर दिया । बेशक यशपालजी को मेरा यह व्यवहार कड़वा लगा होगा किंतु मैं उन्हें यह समझाना चाहता था कि अपने साथियों के साथ कैसा बर्ताव किया जाना चाहिए, आखिरकार हम सभी क्रांतिकारी हैं और हम सबका उद्देश्य देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराना है ।मेरा मकसद किसी को छोटा महसूस कराना नहीं था अपितु यह बताना था कि किसी और को भी हमें छोटा महसूस कराने का कोई हक़ नहीं ।

वात्स्यायन जी अपने विनोदी स्वभाव के लिए भी जाने जाते थे जिसकी एक बानगी उन्होंने दी थी ।अब उनके यशपाल के मददगार होने के पक्ष का उल्लेख करना भी ज़रूरी है ।यशपाल से जुड़े हुए अज्ञेय के पास कई प्रसंग थे लेकिन यह एक ऐसा प्रसंग है जिसमें जब यशपाल की ज़िंदगी पर बन आयी थी तब वात्स्यायन उनके लिए कितने सहायक सिद्ध हुए थे इससे यशपाल जी परिचित थे ।वात्स्यायन जी ने बताया कि एक बार क्रांतिकारी संगठन के मुख्य आधारभूत नियमों के उल्लंघन के अपराध में चंद्रशेखर आजाद और केंद्रीय समिति के लोगों ने यशपाल को गोली मार देने का फैसला किया ।गोली मारने का काम कानपुर के कैलाशपति को सौंपा गया था ।इस पर यशपाल ने कहा कि वह एक बार पंडित जी (चंद्रशेखर आजाद) से मिलकर अपनी स्थिति स्पष्ट करना चाहते हैं । गोली प्रसंग की जानकारी मुझे भी थी ।यशपाल दिल्ली आये और मुझसे बोले कि अपना बिस्तर बांध लो,तुम्हें भी मेरे साथ चलना है ।वह वरिष्ठ थे। मैंने अनुशासन का पालन किया।यशपाल जो विस्फोटक सामग्री अपने साथ ले जाना चाहते थे उसे मैंने अपने कब्ज़े में कर लिया ।बेशक मैं क्रांतिकारी संगठन में अनुशासन और मर्यादा का पूरी तौर पर ख्याल रखता था लेकिन मुझे धीरे-धीरे महसूस हो रहा था कि इस संगठन में सारे लोग चरित्र और निष्ठा वाले नहीं आये हैं ।लेकिन चंद्रशेखर आजाद के प्रति मेरे मन में पूरा सम्मान था ।उनकी नेतृत्व-क्षमता,चरित्र और साथियों पर भरोसा रखने और उनको प्रेरणा दे सकने के सामर्थ्य पर पूरा भरोसा था ।आज़ाद में एक क्रांतिकारी नेता की पूरी चुस्ती और कुशलता थी ।वह बहुत चौकन्ना और सतर्क रहते थे और संगठन की हर तरह की बारीकियों से वह अवगत रहते थे ।

यशपाल को इतनी कठोर सज़ा देने का क्या कारण था के प्रश्न के उत्तर में वात्स्यायन जी ने बताया कि चंद्रशेखर आज़ाद ने संगठन की कुछ आधारभूत मान्यताएं घोषित कर रखी थीं,जिनमें एक महत्वपूर्ण मान्यता यह थी कि संगठन में पुरुष और महिला कार्यकर्ताओं के बीच कभी भी किसी भी स्थिति में कोई रागात्मक संबंध नहीं होगा लेकिन यशपाल और प्रकाशवती के संबंध सार्वजनिक रूप से साथियों के बीच चर्चा का विषय बन गए थे ।इनके अतिरिक्त छोटे-बड़े अनेक आरोप थे जैसे संगठन में अपना अलग से संगठन बनाना, बम विस्फोट में संदेह,कई योजनाओं का अचानक विफल हो जाना । अब शक़ का तो कोई ओरछोर नहीं होता लिहाजा जब यशपालजी ने आज़ाद और केंद्रीय समिति के समक्ष अपना पक्ष रखा तो उनकी सज़ा माफ कर दी गयी ।
वह इसलिए भी क्योंकि वह पुराने क्रांतिकारी थे ।अज्ञेय से जब मैंने यह पूछा कि क्या आपने और यशपाल ने एक साथ लिखना शुरू किया था इस बाबत उनके पास कोई पुख्ता जवाब नहीं था ।इतना भर कहा कि यशपालजी का ‘सिंहावलोकन’ और मेरा ‘शेखर: एक जीवनी’ का संबंध हमारे क्रांतिकारी जीवन से था ।

रामधारी सिंह दिनकर

23 सितम्बर,1908 में बेगूसराय ज़िले के सिमरिया गांव में जन्मे रामधारी सिंह भी स्वतंत्रता सेनानी थे और उनका झुकाव भी शुरू में क्रांतिकारी आंदोलन की ओर था और जमकर उसका समर्थन करते थे ।बेशक वह युद्ध को विनाशकारी मानते थे लेकिन साथ में यह भी जोड़ जाते थे कि स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह आवश्यक है ।एक तरह से वह क्रांतिकारी संगठन का समर्थन भी करते थे लेकिन यशपाल और अज्ञेय की भांति वह खुलकर क्रांतिकारियों की पंगत में बैठने से परहेज करते थे ।वह कार्ल मार्क्स और गांधी के राजनीतिक विचारों से प्रभावित तो थे लेकिन अपने आप को ‘बुरा गांधीवादी’ कहते थे । डॉ राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, श्रीकृष्ण सिन्हा,रामवृक्ष बेनीपुरी जैसे बिहार के राष्ट्रवादियों के वह बहुत करीब थे ।बेशक रामधारी सिंह दिनकर खुलकर क्रांतिकारी संगठन से नहीं जुड़े थे किंतु रामवृक्ष बेनीपुरी ‘दिनकर को क्रांतिकारी आंदोलन की आवाज़’ कहा करते थे ।उनकी वीर रस की कविताएं स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े सेनानियों में जोश भरती थीं ।’वीर रस’ के सबसे प्रबल हिंदी कवि के साथ साथ उनकी कविताएं ‘ऐतिहासिक और पुनर्जागरण की भावनाओं’ से ओतप्रोत रहती थीं ।

मुझे रामधारी सिंह दिनकर को करीब से सुनने, मिलने और बातचीत करने के कई अवसर प्राप्त हुए। मैं 1956 में दिल्ली आ गया था और लोकसभा सचिवालय में नौकरी करता था ।उन्हीं दिनों दिनकर जी राज्यसभा के सदस्य थे-मनोनीत सदस्य।वह 1952 से 1964 तक राज्यसभा के सदस्य रहे ।एक बार अटलबिहारी वाजपेयी ने मेरा उनसे परिचय कराते हुए कहा कि ‘यह त्रिलोक दीप काम तो लोकसभा सचिवालय में करते हैं लेकिन इन्हें हिंदी में लिखने-पढ़ने-छपने-छपाने का बहुत शौक है ।यह न केवल लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह के अंग्रेज़ी यात्रा संस्मरणों का हिंदी में अनुवाद कर ‘धर्मयुग’,’साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं में छपवाते हैं बल्कि पंजाबी के उपन्यासकार कर्नल नरेंद्रपाल सिंह और उनकी विदुषी कवयित्री पत्नी श्रीमती प्रभजोत कौर की पंजाबी कविताओं का हिंदी में अनुवाद करके भी प्रकाशित कराते हैं ।अपना मौलिक लेखन करते हैं सौ अलग ।सरदार हुकम सिंह ने इनसे हमारा परिचय कराया था।’ मैंने दोनों हाथ जोड़कर दिनकर जी का अभिवादन किया ।अटल जी ने दिनकर जी को मेरे बारे में यह भी बताया कि वह एक बार कांस्टीट्यूशन क्लब के किसी कवि सम्मेलन में आपकी वीर रस की कविता को आपकी ओजस्वी आवाज़ में सुनकर इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे आपसे विधिवत मिलाने का आग्रह किया ।धन्यवाद अटलबिहारी वाजपेयी जी का जिन्होंने दिनकर जी से मेरी मुलाकात करायी । लोकसभा सचिवालय में काम करने का सुख यह होता था कि मुझे संसद की दोनों सदनों में से किसी भी अपने प्रिय सांसद या मंत्री से मिलने में दिक्कत पेश नहीं आती थी ।जैसे मैं पहले स्पष्ट कर चुका हूं कि उन दिनों के गोल संसद भवन में हम बेहिचक किसी भी सांसद से खुलकर बातचीत कर सकते थे ।स्थिति यह होती थी कि तब सांसदों की संख्या अधिक और वहां काम करने वाले कर्मचारियो की तादाद कम होती थी ।

बजट सत्र शुरू होने से पहले राष्ट्रपति जब संसद के संयुक्त सत्र के सम्मुख अभिभाषण देते थे तब वहां जुड़ने वाले सांसदों की संख्या को देखकर संसद में काम करने वाले कर्मचारियो की संख्या से सहज तुलना की जा सकती थी ।इतनी कम तादाद होने के बावजूद वहां काम करने का आनंद इसलिए आता था कि हम लोग देश के भाग्यविधाताओं को बखूबी जानते-पहचानते थे और इस बात का अनुमान लगा सकते थे कि आमजन द्वारा निर्वाचित उनके नुमाइंदे देश के निर्माण और विकास के प्रति कितने गंभीर और समर्पित हैं ।देश नया नया जो आज़ाद हुआ था।मैंने पहली और तीसरी लोकसभा के दौरान वहां काम किया था ।उस समय अधिसंख्य सांसदों का संबंध किसी न किसी प्रकार से स्वधीनता सेनानियों से था ।बहुत से तो संविधान सभा के भी सदस्य रह चुके थे ।इनमें रामधारी सिंह दिनकर भी एक थे और राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी भी ।

राज्यसभा में सत्र के दौरान जब रामधारी सिंह दिनकर आते तो मुझे पता लग जाया करता था ।कभी मैं उन्हें केंद्रीय कक्ष में मिल लेता अथवा राज्यसभा सचिवालय में । एक बार मैंने उनसे पूछा कि शुरू शुरू में तो आपका झुकाव क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति था तो फिर आप क्रांतिकारी संगठन में शामिल क्यों नहीं हुए ।वहां यशपाल और अज्ञेय तो थे ही ।उनका उत्तर था कि मैं क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति आकर्षित ज़रूर था लेकिन क्रांतिकारी संगठन में शामिल नहीं होना चाहता था ।बेशक वे लोग भी देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन उनके ‘तरीके’ से मैं सहमत नहीं था । इसलिए मैं महात्मा गांधी की ओर आकृष्ट हुआ ।मैं 1928 में साइमन कमीशन के खिलाफ़ प्रदर्शनो में शामिल हुआ । इसी प्रदर्शन के दौरान तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की पुलिस ने पंजाब के शेर लाला लाजपतराय पर बेरहमी से लाठीचार्ज किया था।1928 में ही मैंने सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में किसान सत्याग्रह के बारदोली को देखा और इस पर आधारित दस कविताएं लिखीं जो ‘विजय संदेश’ के नाम से एक पुस्तक के रूप में छ्पीं । मन में बनी यह बेचैनी किसी न किसी रूप में प्रकट होती रही,कविता के रूप में या निबंध के तौर पर ।संभवतः इसी बेचैनी ने ही ‘वीर रस’ की कविताएं लिखने के लिए प्रेरित किया जिसमें देशभक्ति की भावना स्पष्ट तौर पर निहित रहती है। मेरी कविताओं में युवाओं का आक्रोश झलकता है, वीरता का बोध होता है जो उनमें जोश भरता है देश की आज़ादी का ।

रामधारी सिंह दिनकर की कुछ कविताओं के अंश इस प्रकार हैं: ‘
वैराग्य छोड़ बांहों की विभा संभालो,
चट्टानो की छाती से दूध निकालो,
है रुकी जहां भी धार शिलाएं तोड़ो,
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोडो
-वीर से

    क्षमा शोभती उस भुजंग को,
     जिसके पास गरल हो,
     उसको क्या जो दन्तहीन,विषहीन,वीनीत,
      सरल हो । (कुरुक्षेत्र से) 

दिनकर जी ने सामाजिक और आर्थिक समानता तथा शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की।एक
प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने
ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया । उनकी बहुत चर्चित कविता है ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ‘।
इस कविता का धड़ल्ले से इस्तेमाल सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ बिगुल बजाते समय दिल्ली के रामलीला मैदान में लगभग एक लाख लोगों की भीड़ को संबोधित करते हुए किया था । उस कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह,समय के रथ का घरघर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता? हां,लंबी-बड़ी जीभ की वही कसम,
'जनता,सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है '।
'सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है '?
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?'

 मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
 जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में,
 अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के 
 जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।

 आरती लिए तू किसे ढूंढ़ता है मूरख,
  मंदिरों, राजप्रासादों में,तहखानों में?
  देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
  देवता मिलेंगे खेतों में,खलिहानों में 

फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं,
 धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है,
  दो राह, समय के रथ का घरघर-नाद सुनो,
  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

हालांकि यह काफी लंबी कविता है फिर भी मैंने उसके मुख्य भाग उद्धृत कर दिए हैं ।इस कविता का भावार्थ यह है कि अब जनता का राज आ गया है और राजतंत्र का अंत हो गया है । जैसे हमने कहा कि दिनकर जी निबंधकार,स्वतंत्रता सेनानी, देशभक्त और शिक्षाविद थे ।इसी वजह से डॉ हरिवंश राय बच्चन ने कहा था कि दिनकर जी को चार भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने चाहिए,कविता,गद्य,भाषा और हिंदी में उनकी सेवा के लिये ।स्वतंत्रता से पूर्व लिखी गयी उनकी राष्ट्रवादी कविताओं के कारण ही उन्हें विद्रोही कवि कहा जाता था । छह फुट लंबे और मज़बूत कदकाठी वाले रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं वीर रस से ओतप्रोत रहती थीं और उनकी प्रेरक देशभक्ति रचनाओं के कारण उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ के रूप में सम्मानित भी किया गया ।दिल्ली में कांस्टीट्यूशन क्लब के कवि सम्मेलनों में उनकी ओजस्वी वाणी में उन्हें सुनने के लिए लोग दूर दूर से आया करते थे, ऐसा उनका क्रेज़ था।मैं ऐसे खुशकिस्मत लोगों में रहा हूं जिसे न केवल उनका आशीर्वाद मिला बल्कि उन्हें कई कवि सम्मेलनों में सुनने का गौरव भी प्राप्त हुआ । कभी कभी तो मैं संसद भवन से उनके साथ ही कांस्टीट्यूशन क्लब जाया करता था ।तब वह कर्जन रोड (वर्तमान कस्तूरबा गांधी मार्ग) पर स्थित था ।

डॉ हरिवंश राय बच्चन

डॉ हरिवंश राय बच्चन से मेरा परिचय कई माध्यमों से है ।सबसे पहला परिचय रामधारी सिंह दिनकर ने कराया था ।एक बार जब मैं संसद भवन से ही दिनकर जी के साथ कांस्टीट्यूशन क्लब पहुंचा तो उन्होंने मेरा परिचय बच्चन जी से कराते हुए कहा कि ‘मिलिये त्रिलोक दीप से जो लोकसभा सचिवालय में काम करते हैं और अटलबिहारी वाजपेयी के करीबियों में से हैं । यह लोकसभा के उपाध्यक्ष सरदार हुकम सिंह (वह 1956 से 1962 तक लोकसभा के उपाध्यक्ष थे ।अध्यक्ष 1962-67 तक रहे) के यात्रा संस्मरणों का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद कर ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित कराते हैं और इसी प्रकार पंजाबी की साहित्यिक दंपत्ति कर्नल नरेंद्रपाल सिंह के उपन्यास और यात्रा संस्मरण तथा श्रीमती प्रभजोत कौर की कविताओं का हिंदी में इन्हीं तथा अन्य कई पत्र-पत्रिकाओं में छपवाते हैं ।प्रभजोत कौर की पंजाबी कविताओं का अनुवाद तो मैंने भी पढ़ा है ।वह उच्चकोटि की कवयित्री हैं ।’ दोनों हाथ जोड़कर डॉ बच्चन का मैंने अभिवादन किया ।थोड़ी दूर पर खड़ी अपनी पत्नी तेजी जी को आवाज़ देकर बुलाया ।उनके आने पर बच्चन जी ने पूछा कि आप तो प्रभजोत कौर जी को निजी तौर पर जानती हैं न?” उनकी हामी भरने पर उन्होंने बच्चन जी से पूछा कि ‘प्रसंग क्या है?’ तब बच्चन जी ने तेजी से मेरा परिचय कराते हुए बताया कि यह त्रिलोक दीप हैं जिन्होंने
प्रभजोत जी की कविताओं का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद कर कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराया है ।इस पर तेजी जी ने कहा कि मैंने प्रभजोत जी तथा अमृता प्रीतम की मूल कविताओं को पढ़ा है ।इतना ही नहीं मैंने प्रीतलड़ी के गुबख्शसिंह,उनके बेटे नवतेज सिंह,नानक सिंह,मोहन सिंह आदि को भी पढ़ा ।तेजी जी ने बताया कि उपन्यासकार गुरबख्श सिंह ने (1895-1977)लाहौर और अमृतसर के बीच प्रीत नगर टाउनशिप की स्थापना की जो रवींद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन के समकक्ष था ।उन्होंने करतार सिंह दुग्गल, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,साहिर लुधियानवी, उपेन्द्रनाथ अश्क, बलवन्त गार्गी,अमृता प्रीतम,मोहन सिंह,नानक सिंह,मुल्खराज आनंद,आदि को जोड़ा ।उन्होंने एक पंजाबी पत्रिका ‘प्रीत लड़ी’ का भी प्रकाशन किया ।लेकिन भारत के विभाजन के समय प्रीत नगर को बहुत नुकसान उठाना पड़ा ।अशांति के इस दौर में लोग बिखर गये।कोई दिल्ली चला गया तो कोई मुंबई या अन्य किसी स्थान पर ।शांति स्थापित होने पर गुरबख्श सिंह और उनका परिवार प्रीत नगर लौट आये । बेशक पंजाबी के ये साहित्यकार बहुत लोकप्रिय थे। तेजी जी ने पंजाबी साहित्यकारों के बारे में जानकारी देकर सभी को विस्मित कर दिया ।

तेजी बच्चन का ताल्लुक सिख परिवार से था। लायलपुर (वर्तमान में फैसलाबाद) में जन्मी सरदार खजान सिंह सूरी की वह बेटी थीं ।लायलपुर में शिक्षा प्राप्त करने के बाद लाहौर में खूबचंद डिग्री कॉलेज में मनोविज्ञान की वह प्राध्यापिका नियुक्त हो गयीं ।1941 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक डॉ हरिवंश राय बच्चन एक कॉलेज के प्रोग्राम में भाग लेने के लिए लाहौर आये थे ।यहां पर बच्चन जी ने अपनी कुछ कविताएं भी सुनायीं जिन्हें सुनकर तेजी सूरी बहुत प्रभावित हुईं ।उनका डॉ बच्चन के प्रति आकर्षण हो गया ।दोनों की एक दूसरे से बातचीत हुई और 1941 में ही दोनों ने शादी कर ली।बच्चन जी की पहली पत्नी श्यामा का 1936 में तपेदिक की बीमारी के कारण देहांत हो गया था ।तब पंजाब में सुनने को मिलता था कि लाहौर केवल क्रांतिकारियों का ही ठौर नहीं है बल्कि प्रेमियों का भी मृगवन है । ओडिसा के राजनेता बीजू पटनायक ने सिख परिवार की ज्ञान कौर से शादी कर प्रेम की इस गाथा की शुरुआत की थी ।बीजू पटनायक और ज्ञान कौर दोनों पायलट थे और उन्होंने जोखिम उठाते हुए इंडोनेशिया से वहां के नेता सुकर्ण को सकुशल निकाला था ।ओडिसा के पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ज्ञान कौर के ही बेटे हैं ।पंजाबी,उर्दू,हिंदी और अंग्रेज़ी के रचनाकार रावलपिंडी जन्मा करतार सिंह दुग्गल ने लाहौर में फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज से अंग्रेज़ी में एम ए की और एक चिकित्सक आयशा मिन्हाज़ से शादी कर ली ।वह मुस्लिम थीं ।लगता है वह अंतर्जातीय शादियों का दौर था ।बच्चन उत्तरप्रदेश के,पटनायक ओडिसा के और दुग्गल पंजाब के ।दिलचस्प बात यह है कि ये सभी कमोबेश हमउम्र थे ।दुग्गल 1मार्च,1917 जन्मा थे तो पटनायक 5 मार्च,1916, तेजी 12 अगस्त,1914, ज्ञान कौर 17 दिसंबर,1919 ।ये लोग उन दिनों ‘पंजाब के दामाद’ कहलाते थे ।

रामधारी सिंह दिनकर और डॉ हरिवंश राय बच्चन तो सभी कवियों से परिचित थे लेकिन मुझे लेकर वहां मौजूद दूसरे कवियों में कुतूहल था जिसका निराकरण मंच पर बैठते ही दिनकर जी ने कर दिया ।बच्चन जी ने तरन्नुम में कविता पाठ किया अपनी प्रिय कविता ‘मधुशाला’ से। यह बहुत बड़ी कविता है जिसे अमिताभ बच्चन ने बहुत ही सुंदर तरीके से गाया है ।वह अपने माता पिता के प्रति बहुत समर्पित थे ।अमिताभ उन दोनों के ‘मुन्ना’ जो थे ।

प्रस्तुत हैं ‘मधुशाला’ के कुछ अंश :

उस प्याले से प्यार मुझे जो,
दूर हथेली से प्याला,
 उस हाला से चाव मुझे जो 
 दूर अधर-मुख से हाला;
  प्यार नहीं पा जाने में है,
 पाने के अरमानो में!
  पा जाता तब,हाय,न इतनी
   प्यारी लगती मधुशाला ।

  प्रियतम,तू मेरी हाला है,
  मैं तेरा प्यासा प्याला,
  अपने को मुझमें भरकर 
   तू बनता है पीनेवाला,
    मैं तुझे छक छलका करता 
     मस्त मुझे पी तू होता,
     एक दूसरे की हम दोनों 
      आज परस्पर मधुशाला 

मदिरालय जाने घर से
चलता है पीनेवाला,
‘किस पथ से जाऊं?’ असमंजस
में है वह भोला-भाला;
अलग-अलग पथ बतलाते सब
पर मैं यह बतलाता हूँ ….
‘राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जाएगा मधुशाला’।

उनके बाद रामधारी सिंह दिनकर की गर्जना हुई । क्या आवाज़ थी और कविता पाठ करने का ढंग ।उन्होंने वीर रस की कई कविताएं सुनायीं लेकिन जब अपनी ओजस्वी आवाज़ में वह कविता सुनायी कि ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ तो श्रोताओं की करतल ध्वनि से पूरा कांस्टीट्यूशन क्लब गूंज उठा ।रमानाथ अवस्थी और वीरेंद्र मिश्र ने भी अपनी कविताएं गाकर सुनायीं । निस्संदेह वह गजब का साहित्यिक और सांस्कृतिक माहौल हुआ करता था ।समाज के हर वर्ग के लोग इन महान कवियों को सुनने के लिए बड़ी संख्या में आया करते थे ।उन दिनों मैं लोकसभा सचिवालय में काम करता था और मुझे भी कवि सम्मेलों में जाने का शौक चर्राने लगा था ।

इनके अतिरिक्त मैं हिंदी भवन में भी साहित्यकारों से मिलता जुलता रहता था ।हिंदी भवन तब थिएटर कम्युनिकेशन बिल्डिंग में हुआ करता था जहां आज पालिका बाज़ार है । कविता सम्मेलनों में जाते जाते कुछ कवियों से अच्छी खासी बातचीत भी हो जाया करती थी ।रमानाथ अवस्थी को मैं रेडियो स्टेशन से जानता था जबकि वीरेंद्र मिश्र से मेरी भेंट जयप्रकाश भारती के सौजन्य हुई थी ।बाद में पता चला कि वह वेस्ट पटेल नगर में रहते हैं ।उन दिनों मैं भी वहीं रहता था । भारती जी ने मेरा परिचय राधेश्याम प्रगल्भ (अशोक चक्रधर के पिता) और संतोषानंद से भी कराया था ।एक बार मैंने देखा कि कांस्टीट्यूशन क्लब के कवि सम्मेलन में बच्चन जी के स्थान पर उनकी पत्नी तेजी बच्चन ने उनकी कविता पढ़ी हालांकि बच्चन जी वहां उपस्थित थे ।वह कविता थी:

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहां मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गयी सो बात गयी

कवि सम्मेलन समाप्त होने के बाद मैं बच्चन जी से मिला और उनकी सेहत के बारे में पूछा ।उन्होंने बताया कि गले में थोड़ी खराश थी इसलिए तेजी से मैंने कविता पाठ करने के लिए कहा ।तेजी जी से मेरी पहले से मुलाकात थी ।हम दोनों ने हाथ जोड़कर एक दूसरे को सत श्री अकाल कहा ।

हिंदी भवन में भी अक्सर साहित्यिकआयोजन होते रहते थे ।’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के संपादक बांकेबिहारी भटनागर की पत्नी शांति भटनागर बहुत सक्रिय हुआ करती थीं ।वह केवल हिंदी ही नहीं दूसरी भाषाओं के साहित्यकारों को भी आमंत्रित किया करती थीं ।पंजाबी के उपन्यासकार कर्नल नरेंद्रपाल सिंह उन दिनों राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के उपसैन्य सचिव हुआ करते थे ।डॉ राधाकृष्णन इस पंजाबी साहित्यिक दंपत्ति का बहुत सम्मान करते थे ।यह बात दिल्ली के साहित्यकारों को ज्ञात थी ।जब भी किसी को राष्ट्रपति से भेंट करनी होती तो वे राष्ट्रपति के निजी सचिव के बजाय कर्नल नरेंद्रपाल सिंह से बात कर डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन से मिला करते थे ।एक बार सस्ता साहित्य मंडल की ओर से यशपाल जैन के अनुरोध पर उनकी राष्ट्रपति से भेंट करा दी ।राष्ट्रपति से मिलने के बाद यशपाल जैन कर्नल नरेंद्रपाल सिंह के ऑफ़िस में उनका आभार व्यक्त करने के लिए आये ।बातों बातों में यशपाल जैन ने कर्नल साहब से पूछा कि क्या आपके किसी पंजाबी उपन्यास का हिंदी में अनुवाद हुआ है?कर्नल साहब ने उन्हें बताया कि उपन्यास का तो नहीं हुआ है किंतु उनके अफगानिस्तान के संस्मरणों का अनुवाद त्रिलोक दीप करके कई पत्रिकाओं में प्रकाशित करा रहे हैं ।कर्नल साहब ने अपने एक ताज़ा नॉवेल ‘चानन खड़ा किनारे’ का जब उल्लेख किया तो उन्होंने सस्ता साहित्य मंडल से छापने की इच्छा व्यक्त की ।यह भी तय हो गया कि इस उपन्यास का अनुवाद त्रिलोक दीप करेंगे ।मैंने उस उपन्यास का अनुवाद किया जो ‘प्रकाश की छाया’ के शीर्षक से छ्पा और उसकी खूब चर्चा हुई ।
सब किरायेदार हैं यहाँ…….

आदि मानव, द्रविड़, आर्यन्स, हूण, कुषाण, गुलाम वंश, खिलजी, तुगलक, लोदी, मुग़ल, फ्रेंच, ब्रिटिश……

कुछ बस गए – कुछ आकर चले गए…..

सभ्यताएं ऐसे ही बनती हैं…….

कोई मालिक नहीं यहाँ – सब किरायेदार हैं…..

जय हिन्द …….🇮🇳🇮🇳🇮🇳
इसी प्रकार सच्चिदनंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय भी राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन से कर्नल नरेंद्रपाल सिंह के सौजन्य से मिले ।उनकी राष्ट्रपति से दस मिनट की भेंट आध घंटे तक चली ।कर्नल साहब ने मुझे बाद में बताया कि अज्ञेय के ज्ञान से,विशेष कर संस्कृत और अंग्रेज़ी के,राष्ट्रपति बहुत प्रभावित हुए ।दोनों के बीच दूसरी बार लंबी बातचीत का निर्णय हुआ था जो फलीभूत नहीं हो पाया ।इस बीच 1964 के साहित्य अकादेमी के पुरस्कारों की घोषणा हुई ।हिंदी में ‘आंगन के पार द्वार’ के काव्य संग्रह के लिए अज्ञेय को और पंजाबी के कविता संग्रह ‘पब्बी’ के लिए प्रभजोत कौर को पुरस्कार मिला ।उन दिनों साहित्य अकादेमी के पुरस्कार का बहुत महत्व होता था ।प्रभजोत जी को कई कॉलेजों द्वारा सम्मानित किया गया ।उनके साथ मैं ही जाया करता था ।हिंदी भवन की ओर से अज्ञेय और प्रभजोत कौर दोनों का सम्मान किया गया ।इस अवसर पर डॉ हरिवंश राय बच्चन,जैनेंद्र,विष्णु प्रभाकर,यशपाल जैन, कमला रत्नम,बांके बिहारी भटनागर,पंजाबी के गुरमुख सिंह जीत आदि लोग बड़ी संख्या में उपस्थित थे ।

उन दिनों डॉ हरिवंश राय बच्चन विदेश मंत्रलाय में हिंदी अधिकारी के पद पर थे और रहते थे 13, विलिंगडन क्रीसेंट (वर्तमान मदर टेरेसा क्रीसेंट) में ।उनके यहां मेरा आना जाना लगा रहता था ।तेजी जी से तो मैं पंजाबी में ही बातचीत करता था ।बच्चन जी को पंडित जवाहरलाल नेहरू बहुत मानते थे ।कुछ लोगों का मानना है कि पंडित नेहरू के कई भाषण बच्चन जी लिखा करते थे विशेष तौर पर 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से देने वाला भाषण । तेजी जी की सामाजिक कार्यों में रुचि थी इसलिए वह इंदिरा गांधी के कामों में हाथ बंटाया करती थीं ।दोनों के बीच अच्छी खासी दोस्ती थी । इंदिरा जी ने ही 3 अप्रैल, 1966 को हरिवंश राय बच्चन को राज्यसभा में मनोनीत किया था ।वह 2 अप्रैल,1972 तक राज्यसभा के सदस्य रहे । इसी दौरान अमिताभ बच्चन और राजीव गांधी की दोस्ती हो गयी ।बताया जाता है कि जब 1968 में राजीव गांधी की सोनिया माइनो से शादी हुई थी तो कन्यादान डॉ हरिवंश राय बच्चन ने किया था । दिल्ली आने पर सोनिया बच्चन परिवार के साथ रही थीं ।तेजी जी ने उन्हें भारतीय संस्कारों के बारे में दीक्षित किया था। 1983 में फिल्म ‘कुली’ की शूटिंग का एक दृश्य करते समय अमिताभ बच्चन गंभीर रूप से घायल होकर अस्पताल में कई महीनों तक भरती रहे थे तो उनके स्वास्थ्य की जानकारी लेने के लिए इंदिरा गांधी मुंबई गयी थीं ।तब वह देश की प्रधानमंत्री थीं । दोनों परिवारों के बीच काफी घनिष्ठ संबंध थे ।1977 में इंदिरा गांधी के गर्दिश के दिनों में दोनों परिवारों के बीच निकटता बनी रही ।31 अक्टूबर,1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो पहली नवंबर को उनका शव तीन मूर्ति भवन लाने वाले व्यक्तियों में अमिताभ बच्चन भी थे जो राजीव गांधी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनके दुख की घड़ी में खड़े हुए थे ।

डॉ हरिवंश राय बच्चन और तेजी जी से तब भी मेरा मिलना जारी रहा जब वह बी-8, ‘सोपान’,गुलमोहर पार्क शिफ्ट हो गये ।बच्चन परिवार का दिल्ली में यह पहला अपना घर था जो अमिताभ बच्चन ने अपने माता पिता के लिए बनवाया था ।जब वह मुंबई से दिल्ली आते तो यहां मेरी अमिताभ बच्चन से भी भेंट हो जाया करती थी ।संसद भवन में मैं उनसे कई बार मिल चुका था ।लोकसभा अध्यक्ष डॉ बलराम जाखड़ की मेहरबानी से लोकसभा के पूरे सत्र के लिए मेरा पास बन जाता था ।डॉ हरिवंश राय बच्चन और तेजी से मिलना उनके मुंबई शिफ्ट हो जाने के बाद नहीं हो पाया था । 18 जनवरी, 2003 में बच्चन जी का 95 बरस की उम्र में मुंबई में निधन हो गया जबकि तेजी बच्चन का अपने पति के निधन के चार बरस बाद मुंबई में ही 21 दिसंबर,2007 को 93 साल की आयु में । लेकिन यशपाल और रामधारी सिंह दिनकर इन दोनों से पहले ही गुज़र गए थे ।यशपाल का 26 दिसंबर,1976 में 73 बरस की आयु में लखनऊ में और रामधारी सिंह दिनकर का 24 अप्रैल, 1974 को 65 वर्ष की उम्र में चेन्नई में निधन हो गया ।

दूसरी तरफ राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन की दोस्ती और करीबी शिखर पर थी । राजीव गांधी के अनुरोध पर ही अमिताभ बच्चन राजनीति में आए थे ।इसके फलस्वरूप 1984 में इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए वह सहमत हो गये और उन्होंने उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को भारी मतों से पराजित किया । इन लोगों की एक युवा ब्रिगेड थी जिसमें राजीव गांधी,अमिताभ बच्चन,सतीश शर्मा,अरुण नेहरू,अरुण सिंह और कमल नाथ प्रमुख थे ।अमिताभ बच्चन 31 दिसंबर, 1984 से जुलाई,1987 तक लोकसभा के सदस्य रहे ।उसके बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया ।इस्तीफे का कारण एक समाचारपत्र में छ्पी एक रिपोर्ट थी जिसमें उनके भाई अजिताभ बच्चन के स्विट्ज़रलैंड में एक अपार्टमेंट में बोफ़ोर्स घोटाले में उनकी संलिप्तता की अटकलों को बल मिला था ।इस घटना के बाद राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन के रिश्तों में खटास पैदा हो गयी ।हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अजिताभ बच्चन को क्लीन चिट दे दी लेकिन दोनों परिवारों के बीच पहले जैसी गर्मजोशी नहीं रही । 1997 में प्रियंका गांधी की रोबर्ट वाड्रा से शादी में अमिताभ बच्चन ने बढ़चढ़कर भाग लिया था और जश्न का हिस्सा बने थे लेकिन दोनों परिवारों के बीच की दूरियां कम नहीं हुईं,शायद बढ़ी ही हैं ।

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