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Friday, July 18, 2025

मैंने तीन सदियाँ देखी हैं, पहला वित्तीय घोटाला फिरोज गांधी ने उजागर किया

त्रिलोक दीप, वरिष्ठ पत्रकार

8 सितम्बर, 1960 की बात है ।लोकसभा का अधिवेशन चल रहा था ।अगस्त-सितम्बर का मानसून सत्र होता था। उन दिनों तीनों सत्रों की समय सीमा निश्चित हुआ करती थी ।दफ्तर जाने से पहले मैं करीब दस बजे सिंधिया हाउस स्थित एलाइड मोटर्स के शोरूम में गया ।देखा तो वह बंद था ।बाहर शीशे के दरवाजे पर एक पत्र चिपका था जिस पर लिखा था कि ‘फिरोज गांधी का निधन हो गया है इसलिए आज यह शोरूम बंद रहेगा ‘।एलाइट मोटर्स में मैं अपने लम्ब्रेटा स्कूटर की स्थिति के बारे में जानने के लिए गया था ।उन दिनों कुछ महत्वपूर्ण वस्तुओं की प्राप्ति के लिए अग्रिम बुकिंग करानी पड़ती थी ।वहां पर लम्ब्रेटा,लम्ब्रेटी और एम्बेसडर कार की बुकिंग होती थी ।लम्ब्रेटी तो मेरी आ गयी थी,लम्ब्रेटा स्कूटर का इंतज़ार था।लम्ब्रेटी साइकिल जैसी होती है जो पेट्रोल से भी चल सकती है और पेट्रोल खत्म होने पर उसे साइकिल की तरह भी चलाया जा सकता है ।उन दिनों स्कूटर के नाम पर लम्ब्रेटा और वेस्पा थे तो कारों में एम्बेसडर,फीएट और स्टैंडर्ड । एलाइट मोटर्स के बाहर शीशे पर चिपके कागज़ पर फिरोज गांधी के निधन की खबर पढ़कर मेरा मन बहुत मायूस हो गया । इसलिए कि तीन दिन पहले ही तो मैं उनसे संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में मिला था और हमारी लंबी बातचीत हुई थी खुलकर ।जब से सरदार हुकम सिंह के सौजन्य से फिरोज गांधी से मेरा परिचय हुआ था, केंद्रीय कक्ष में आते जाते उनसे बात मुलाकात हो जाया करती थी ।

फिरोज गांधी को मैं कैसे जानता था इस बारे में संक्षिप्त जानकारी मैं पहले दे चुका हूं ।फिर भी जो लोग वह देखना/पढ़ना भूल गए हैं उनके लिए उसे दोबारा बता देता हूं ।मैंने 1956 से 1965 तक लोक सभा सचिवालय में काम किया।करीब दस बरस-मोटा मोटी पहली लोकसभा से तीसरी लोकसभा तक । शुरू शुरू में मैं जिस सेक्शन में काम करता था उसका नाम है प्राइवेट मेंबर्स बिल्स ऐंड रेसुलूशंस ब्रांच अर्थात् पीएमबी।इसका काम था गैरसरकारी सदस्यों यानी सांसदों से प्राप्त विधेयकों और संकल्पों की भाषा और तथ्यों की जांच पड़ताल कर उन्हें सदन में बहस के योग्य बनाना ।हर शुक्रवार दो से पांच बजे तक गैरसरकारी सांसदों के विधेयकों और संकल्पों पर बहस का दिन होता था ।एक हफ्ते विधेयकों पर बहस होती थी और एक सप्ताह संकल्पों पर ।सांसद आम तौर पर अपने विधेयक और संकल्प ग्राउंड फ्लोर पर स्थित पार्लियामेंटरी नोटिस ऑफ़िस (पीएनओ) में छोड़ जाया करते थे जहां से वे हमारी ब्रांच में आ जाते ।कभी कभी सांसद हमारी ब्रांच में स्वयं भी आ जाया करते थे और हम लोगों से गपशप भी मारते थे ।बहुत खुला माहौल होता था उन दिनों ।

एक हफ्ते की कार्यसूची में छह विधेयक और छह ही संकल्प रखे जाते थे । कभी कभी तो एक ही विधेयक या संकल्प पर बहस हो पाया करती थी ।इन विधेयकों और संकल्पों की बहस के लिए समय आवंटित करने के लिए एक समिति थी ।नाम था कमेटी ऑफ़ प्राइवेट मेंबर्स बिल्स ऐंड रिसुलूशंस और उसके अध्यक्ष होते थे लोकसभा के उपाध्यक्ष (डिप्टी स्पीकर)।उन दिनों डिप्टी स्पीकर थे सरदार हुकम सिंह । इस समिति में 25 सदस्य होते थे । कमेटी की बैठक आम तौर पर शाम चार बजे होती थी ।जब कोरम पूरा हो जाता तो मैं सरदार हुकम सिंह को सदन से लेने के लिए चला जाता। एक दिन मैं उन्हें एस्कार्ट करके उनके कक्ष की ओर ले जा रहा था कि कहीं से आवाज़ आयी ‘सरदार साहब’। सरदार हुकम सिंह को सांसद ऐसे ही संबोधित किया करते थे ।उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो एक सांसद तेज कदमों से उनके पास आये ।सरदार साहब ने पूछा, ‘जी बतायें फ़िरोज़ गांधी जी!’ मुझे साथ देखकर पहले वह कुछ सकुचाये, फिर बोले,’मुझे आप से बहुत ज़रूरी मिलना है आज ही।’ सरदार साहब ने बड़े सहज भाव से कहा कि इस मीटिंग के बाद आ जायें ।फिर मेरी तरफ मुड़ कर बोले,’कितना वक़्त लगेगा!’मैंने बताया कि ज़्यादा से ज़्यादा आध घंटा ।सरदार साहब ने मेरा परिचय फिरोज गांधी से कराते हुए कहा कि ‘यह नौजवान त्रिलोक दीप है,यहीं काम करता है और मेरे यात्रा संस्मरणों का अंग्रेज़ी से हिंदी और पंजाबी में अनुवाद करके छपवाता है ।मीटिंग खत्म होने के बाद यह आपको बता जाएगा ।’ फिरोज गांधी से यह मेरी पहली मुलाकात थी जो बज़रिया सरदार हुकम सिंह के हुई थी ।मीटिंग खत्म होने के बाद मैंने फिरोज गांधी को बता दिया कि ‘सरदार साहब आपका इंतज़ार कर रहे हैं ।’

केंद्रीय कक्ष में एक कोना था जहां फिरोज गांधी,असम की महारानी मंजुला देवी तथा अन्य दो-तीन लोग बैठकर बातचीत किया करते थे ।इसे फिरोज गांधी कार्नर के नाम से जाना जाता था ।यह कोना कॉफ़ी और चाय काउंटर से दूर था । सेंट्रल हाल के धुर कार्नर में था जहां हर कोई आने जाने से झिझकता था ।प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का दामाद होने के कारण फिरोज गांधी से सांसद बहुत ज़रूरी काम होने पर ही मिलते थे हालांकि फिरोज ने ऐसा कोई हौवा नहीं बना रखा था ।फिरोज कार्नर आउटर लॉबी के नज़दीक था ताकि कोरम या डीविजन की घंटी उन्हें साफ सुनाई दे सके ।लाइब्रेरी भी उनके कार्नर से ज़्यादा दूर नहीं थी ।इसके अलावा यह कार्नर पंडित नेहरू की निगाह से भी दूर था ।पंडित नेहरू दिन में दो-चार बार सेंट्रल हाल से गुजरते हुए राज्यसभा जाया करते थे ।

अब क्योंकि फिरोज गांधी से मेरा परिचय हो चुका था,वह भी सरदार हुकम सिंह के सौजन्य से, इसलिए एक दिन मैंने उनके कार्नर के पास जाने की हिम्मत की ।मुझे देखकर वह स्वयं ही उठकर आ गये और बोले,’कोई खास बात!’ मैंने कहा कि आपसे एक लंबी बात करनी है उसके लिए आपको कब सुविधा होगी ।’किस विषय पर ।’उनका अगला सवाल था, आपकी संसदीय कार्यप्रणाली पर ।फिरोज कुशाग्र बुद्धि के थे,समझ गए मेरे मकसद को ।एक-दो दिन में आपको बताता हूं ।आप मुझसे संपर्क रखियेगा । फिरोज गांधी के निधन से तीन दिन पहले सेंट्रल हाल में उन्हीं के कार्नर में सुबह दस बजे बात हुई ।उनकी चौकड़ी तो ग्यारह बजे के बाद जमती थी ।

शिष्टाचार के नाते मैंने उनसे कांग्रेस पार्टी की उस हाई टी पार्टी का ज़िक्र किया जिसमें वह सांसदों से घिरे हुए थे । अचानक जब उनकी पीठ पर किसी ने हाथ मारा तो उस हाथ मारने वाले की तरफ देखकर मुस्कुरा दिए थे और फिर उनके साथ हो लिए थे । पीठ पर हाथ इंदिरा गांधी ने मारा था ।बाद में दोनों काफी देर तक एक साथ रहे ।मैंने फिरोज गांधी को जब आंखों देखा यह दृश्य बयाना तो बोले,’आपने कहां से देख किया ‘।मैंने बताया कि तीसरी मंज़िल से। भई,वह मेरी बीवी है ।मेरे दो बेटों की माँ है ।वह पंडित जी के कामों में व्यस्त रहती हैं ।हम लोग ऐसे ही कुछ समारोहों और आयोजनों में मिल लेते हैं ।ये हम दोनों के बीच अंडरस्टैंडिंग है।आप असली मुद्दे पर आयें ।यकीनन आप मुझसे ‘इंदु’ और मेरे बीच के रिश्तों को लेकर बात करने के लिए नहीं आये होंगे ।

मैं भी अब अपने मुद्दे पर आ गया ।पूछा कि आजकल आप देश में व्याप्त भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में खासे मुखर हैं जिसकी वजह से कई धनी व्यक्तियों की पोल पट्टी खोल रहे हैं । सत्तापक्ष का सदस्य होने की भी आप परवाह नहीं करते ।कभी कभी तो आपको कांग्रेस का ‘विरोधी स्वर’ भी कहा जाता है ।अपनी खोजी शैली की वजह से किन्हीं धनी व्यक्तियों को आप जेल भी भिजवा चुके हैं ।आजकल कुछ धनी और रसूखदार ऐसे व्यक्ति भी हैं जो आपके राडार पर हैं जिनके तार सत्ता से जुड़े बताये जाते हैं ।आजकल वह आपके निशाने पर हैं । फिरोज गांधी बड़े साफगो इंसान थे ।उन्होंने कहा कि मैं बेवजह और बिना पुख्ता दस्तावेजों के किसी पर आरोप नहीं लगाता ।अपने विषय का लाइब्रेरी में बैठकर गहन अध्ययन करता हूं ।आप तो यहां काम करते हैं न,पूछ लीजिए पृथ्वीनाथ शकधर और सेठ साहब से ।मेरे चाहे मैटर पर वे फ़्लैग लगाकर देते हैं और उस मैटीरियल को मैं स्वयं सदन में ले जाता हूं । पृथ्वीनाथ शकधर यहां के संयुक्त सचिव (बाद में महासचिव) श्यामलाल शकधर के भाई हैं लेकिन उन्होंने अपनी काबिलियत से यहां के सांसदों के दिलों में अपना स्थान बना रखा है ।कई बार तो पंडित जी के साथ साथ मैंने उन्हें पुरानी डिबेटस की फ़ाइलें खोजते भी देखा है ।

अगर आप हरिदास मुंदड़ा कांड की बात कर रहे हैं तो उनके खिलाफ मेरे पास पुख्ता जानकारी थी जो मैंने लाइब्रेरी से एकत्र की थी । सेठ साहब ने जिन कागज़ों पर फ़्लैग लगाकर दिए थे उन्हें मैंने अपने भाषण में साक्ष्य के तौर पर प्रस्तुत किए थे ।लाइब्रेरी से प्राप्त उसी सामग्री से मुझे पता चला कि इस समय जीवन बीमा कंपनियाँ कुकरमुत्ते की तरह देश भर में फैली हुई हैं ।शेयर बाज़ार के सट्टेबाज छोटे व्यापारियों से सांठगांठ कर शेयरों के भाव बढ़ाते घटाते रहते हैं । इस बीच सरकार ने 245 फर्मों का राष्ट्रीयकरण कर जीवन बीमा निगम के तहत समेकित किया । यह कुछ वैसा ही कदम था जैसे सरदार वल्लभभाई पटेल ने देसी रियासतों का विलय स्वाधीन भारत में किया था ।19 जून,1956 को इन समेकित बीमा कंपनियों को भारतीय जीवन बीमा (एलआईसी) अधिनियम के अंतर्गत लाया गया ।

लेकिन यहां भी सब कुछ ठीक नहीं था, उसमें झोल था ।कोलकाता स्थित शेयर सट्टेबाज हरिदास मुंदड़ा ने नौकरशाही, शेयर बाजार के सट्टेबाजों और छोटे व्यापारियों की सांठगांठ से भारतीय जीवन बीमा निगम को कई कंपनियों क शेयर ऊँचे भाव पर बेचकर बड़ी रकम की ठगी की थी। फिरोज गांधी ने जीवन बीमा निगम के साथ किए गये वित्तीय घोटाले की गहन जांच पड़ताल करके पूरे मामले को लोकसभा में उजागर किया ।उन्होंने अपने पास रखे दस्तावेजों को पलटते हुए सरकार से पूछा कि क्या नवगठित एलआईसी ने 55 लाख जीवन बीमा पॉलिसीधारकों के प्रीमियम का इस्तेमाल कुख्यात सट्टेबाज हरिदास मुंदड़ा द्वारा नियंत्रित कंपनियों में बाज़ार भाव से ज़्यादा कीमत पर शेयर खरीदने के लिए किया है ।पहले तो सरकार की तरफ से टालमटोल की गयी और वित्तमंत्री टी टी कृष्णमाचारी (टीटीके), जो खुद भी उद्योगपति थे, कहा कि यह तथ्य नहीं है तो फिरोज गांधी ने एलआईसी को ‘संसद की संतान’ बताते हुए अपने साथ लाए दस्तावेजों का हवाला देते हुए अपने हाथों के कुछ दस्तावेज लहराते हुए कहा तो यह क्या है ।जब स्पीकर साहब ने उन दस्तावेजों को सदन के पटल पर रखने के लिए कहा तो फिरोज गांधी ने तुरंत उस पर अमल किया।उन्होंने कहा कि सरकार से तो यह उम्मीद की जाती है कि वह सार्वजनिक धन पर सतर्कता और नियन्त्रण रखेगी लेकिन यहां तो उसका दुरुपयोग हुआ है लिहाजा पॉलिसीधारकों की संतुष्टि के लिए इस मामले की न्यायिक जांच होनी चाहिए ।

फिरोज गांधी द्वारा सट्टेबाज हरिदास मुंदड़ा द्वारा भारतीय जीवन निगम के पॉलिसीधारकों के प्रीमियम की अनियमितता की खबरें सार्वजनिक सुर्खियां बटोर रही थीं लिहाजा सरकार ने बिना देर किए मामले की जांच के लिए बंबई हाईकोर्ट के सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद करीम छागला को एक सदस्यीय समिति के तौर पर नियुक्त किया । जस्टिस छागला दस बरस तक बंबई हाईकोर्ट के मुख्य और धाकड़ न्यायाधीश रहे थे। उन्हें तीन बार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश का ऑफ़र मिला जिसे उन्होंने बड़ी विनम्रता से इसे स्वीकार करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। एक मुलाकात में जब मैंने जस्टिस छागला से पूछा कि हाईकोर्ट का जस्टिस या चीफ़ जस्टिस सर्वोच्च न्यायालय जाने के लिए हमेशा लालियत रहते हैं तो आपके न जाने की क्या वजह थी,इस पर जस्टिस छागला का उत्तर था कि जिन दिनों मुझे सर्वोच्च न्यायालय का ऑफ़र मिला था उस समय बंबई हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट से अधिक शक्तिशाली हुआ करता था ।जस्टिस छागला से भी मुंदड़ा मामले को लेकर मेरी बात हुई थी, उसके बारे में आगे उल्लेख करूंगा फिरोज गांधी का भाषण सुनने के बाद ।

16 दिसंबर, 1957 को मुंदड़ा मामले पर लोकसभा में फिरोज गांधी का भाषण मैंने भी सुना था ।उस दिन सदन खचाखच भरा हुआ था ।प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनका मंत्रिमंडल पूरी संख्या में उपस्थित था और विपक्ष के सांसद भी पूरी तादाद में थे ।दर्शक दीर्घाओं में भी जगह नहीं थी ।यह उन दिनों की रवयात थी कि प्रमुख नेताओं को सुनने के लिए राज्यसभा के सांसद भी दर्शक दीर्घा में पहुंच जाया करते थे और डिप्लोमेटिक कोर के राजनयिक भी ।सभी के लिए अलग दीर्घायें थीं ।सदन में किस दिन कौन बोलेगा इसकी सूचना आम तौर पर समाचारपत्रों में होती थी । जब फिरोज गांधी बोलने के लिए खड़े हुए तो विपक्षी सांसदों ने अपनी मेजे थपथपा कर स्वागत किया जबकि उनकी अपनी कांग्रेस पार्टी के सांसद मौन रहे ।उस समय सदन में पूरी तरह से खामोशी छा गयी थी । अध्यक्ष के आसन पर एम. ए. अय्यंगर विराजमान थे ।फिरोज गांधी की मेज़ पर फ़्लैगयुक्त बहुत सी किताबें,फ़ाइलें और अखबारों की कतरनें थीं लिहाजा उन्होंने सीधे सट्टेबाज हरिदास मुंदड़ा पर आने से पहले देश के औद्योगिक जगत में फैलने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते हुए कहा कि मैं पहले भी कुछ मामलों में सदन और सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट कर चुका हूं। मुझे खुशी है कि कुछ मामलों में सरकार की ओर से यथोचित कार्यवाही की गयी ।लेकिन मुंदड़ा मामला उनसे कुछ अलग है ।इसमें ‘बाड़ ही खा गयी खेत को’ का मुहावरा सटीक बैठता है ।जी हां,मैं भारतीय जीवन निगम में हुई अनियमितताओं का ज़िक्र कर रहा हूं ।सरकार ने देश भर में फैली बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करके एक महत्वपूर्ण और सराहनीय कदम उठाया था लेकिन शातिर सट्टेबाज हरिदास मूंदड़ा ने नौकरशाही की मदद से एलआईसी को ही चूना लगा दिया और वहां की निवेश समिति टापती ही रह गयी ।मूंदड़ा ने उन छह संकटग्रस्त कंपनियों के शेयरों का निवेश करवाया,जिनके बड़ी संख्या में शेयर मूंदड़ा के पास थे । वे कंपनियां थीं: रिचर्डसन क्रुडास, जेसप्स एण्ड कंपनी, ओस्लर लैंप्स, ब्रिटिश इंडिया कारपोरेशन आदि ।यह निवेश सरकारी दबाव में किया गया था और एलआईसी की निवेश समिति को दरकिनार कर दिया गया था ।उसे इस फैसले के बारे में डील हो जाने के बाद ही बताया गया ।इस घटना में एलआईसी ने ज़्यादातर पैसा खो दिया । सरकार ने जस्टिस एम सी छागला की एक-सदस्यीय जांच समिति पहले ही नियुक्त कर दी गयी बावजूद इसके फिरोज गांधी अपने विस्तृत विचार सदन के समक्ष रखना चाहते थे ।फिरोज गांधी यह भाषण मुझे भी सुनने को मिला जो खासा लंबा था तमाम तरह के तथ्यों, उद्धरणों और उदाहरणों से भरपूर ।मैंने तब महसूस किया कि सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ओर के सांसद बड़े मनोयोग से फिरोज गांधी का भाषण सुन रहे थे ।पंडित नेहरू को तो मैंने कुछ नोट करते भी देखा था ।

फिरोज गांधी का लोकसभा में दिए गए उनके भाषण का ज़िक्र करते हुए जब मैंने उनसे पूछा कि अपनी ही पार्टी की सरकार को आपने कटघरे में खड़ा कर दिया तो उनका उत्तर था कि मैंने भ्रष्टाचार विरोधी एक आंदोलन चला रखा है उसकी जद में जो कोई भी आएगा उसकी खैर नहीं ।मेरे यह पूछने पर कि इस
मुद्दे पर जितना विस्तृत अध्ययन आपने किया है उससे लगता तो नहीं कि सरकार के पास कोई बीच का रास्ता बचा है इस पर फिरोज गांधी का कहना था कि अगर यह मुद्दा भविष्य की नज़ीर बनता है तो उससे देश का ही फायदा है ।आपको लगता नहीं कि सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्य द्वारा सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाकर आपने प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की फजीयत की है, उनकी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाई है और उन्हें शर्मसार किया है ।आप कांग्रेस के सांसद होने के साथ साथ पंडित जी के दामाद भी हैं! मेरे इस सवाल का फिरोज गांधी ने बड़ी बेबाकी से जवाब देते हुए कहा कि ‘कतई नहीं ।मैंने तो अलबत्ता उनकी मदद की है । मुंदड़ा कांड के उजागर हो जाने से उन्हें यह पता चल गया है कि उनकी सरकार में कितने ‘जयचंद’ हैं । इसके अलावा जो लोग किसी न किसी घोटाले की रूपरेखा बना रहे होंगे वह चौकस हो जाएंगे क्योंकि ऐसे लोगों को मालूम है कि भ्रष्टाचारियों पर मेरी निगाहें लगी रहती हैं । मुझे पूरा विश्वास है कि छागला समिति की जांच समिति मेरी दलीलों की ताईद करेगी । क्या सरदार हुकम सिंह से ‘तुरंत’ मिलने की वजह भी मुंदड़ा घोटाले पर बहस थी ।फिरोज गांधी ने बेहिचक इसे स्वीकार किया ।उन्होंने कहा कि मैं सरदार साहब से पूछना चाहता था कि जब मेरा मुद्दा बहस के लिए आएगा तब स्पीकर के आसन पर कौन विराजमान होगा ।सरदार साहब ने बताया था कि इसकी पूर्वसूचना नहीं होती । खैर जो भी पीठासीन अधिकारी होगा,स्वागत है लेकिन सरदार साहब के प्रति मेरी निजी श्रद्धा और आस्था है ।

जस्टिस एम सी छागला की एक सदस्यीय समिति ने अपना काम तुरंत शुरू कर दिया । उन्होंने समिति की कार्यवाही पारदर्शी बनाने के लिए खुले में सुनवाई शुरू की ताकि आमजन भी उसे देख-सुन सकें ।जस्टिस छागला पूरी जांच न्यायसंगत, सुस्पष्ट और निष्पक्ष दिखाना चाहते थे ।यहां तक कि जांच समिति के स्थल पर लाउडस्पीकर भी लगा दिए गए थे ।इस जांच समिति के समक्ष कई प्रमुख निवेशकों,सट्टेबाजों, शेयर दलालों ने गवाही दी। जस्टिस छागला ने कहा कि एलआईसी में निवेश बाज़ार को सहारा देने के उद्देश्य से नहीं किया गया था,जैसा कि वित्त मंत्रालय ने दावा किया था।अगर एलआईसी ने निवेश समिति से परामर्श किया होता तो मुंदड़ा के जाली शेयरों से बचा जा सकता था ।गवाही देने वालों में भारतीय औद्योगिक ऋण और निवेश निगम के उपमहाप्रबंधक एच टी पारेख भी शामिल थे जो निवेश समिति के
सदस्य थे ।बाद में पारेख आईसीआईसी बैंक में चले गये ।कुछ लोग इस जांच समिति की कार्यवाही को देखने और सुनने के लिए ‘यों ही’ आ जाते थे । 1964 में जब वह शिक्षामंत्री थे तब शिक्षा से लेकर देश के तमाम मुद्दों पर छागला साहब से मेरी कई मुलाकातें हुई थीं। मैंने जब उनसे यह पूछा कि इस पर सार्वजनिक सुनवाई क्यों! उन्होंने तुरंत उत्तर दिया ताकि आमजन अपने चुने हुए प्रतिनिधियों की कारगुज़ारियों को अपनी आंखों से देख सकें ।जितने दिलेर जस्टिस छागला बंबई के चीफ़ जस्टिस के तौर पर थे उनकी वैसी ही दिलेरी और साफगोई मुंदड़ा मामले की जांच समिति के दौरान भी नज़र आयी।

जस्टिस छागला ने वित्त सचिव एच एम पटेल और दो एलआईसी अधिकारियों की इस भुगतान पर मिलीभगत होने के संदेह में जब उन्हें भी जांच के घेरे में लाने की मंशा जताई तो इसके लिए अवकाशप्राप्त न्यायाधीश विवियन बोस की अध्यक्षता में एक नयी जांच समिति गठित की गयी,क्योंकि यह मामला सिविल सेवकों अर्थात नौकरशाही से जुड़ा था ।बोस समिति ने इस मामले की जांच करने के बाद इन सिविल सेवकों को तो दोषमुक्त करार दे दिया लेकिन
वित्तमंत्री टी टी कृष्णमाचारी के खिलाफ ‘झूठ बोलने’ के लिए कड़ी आलोचना की ।वित्तमंत्री ने लोकसभा सदन में भी फिरोज गांधी के आरोपों को ‘तथ्यों से परे’ बताया था। लेकिन टीटीके ने जांच समिति की सिफारिश से अपना पल्ला झाड़ते हुए एलआईसी के फैसले से खुद को दूर रखने की कोशिश की ।इस घोटाले का ठीकरा वह वित्त सचिव के सर पर फोड़ना चाहते थे । वित्तमंत्री का खेल भांपते हुए जस्टिस छागला ने टिप्पणी की कि ‘सचिव के कार्यों पर नज़र रखना आपकी संवैधानिक जिम्मेदारी है ,जिससे आप अपने को अलग नहीं रख सकते ।’

जस्टिस छागला खाँटी न्यायाधीश थे ।उन्होंने केवल 24 दिनों में अपनी जांच समिति की सुनवाई पूरी करके रिपोर्ट सरकार को सौंप दी ।इस जांच समिति के निष्कर्ष के फलस्वरूप वित्तमंत्री टी टी कृष्णमाचारी को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा ।पंडित नेहरू की सरकार का यह पहला घोटाला था जिसको उजागर करने का श्रेय रायबरेली से कांग्रेस सांसद और पंडित जवाहरलाल नेहरू के दामाद फिरोज गांधी को जाता है । इस फैसले से बेशक पंडित नेहरू की साख गिरी और उनकी छवि भी दागदार हुई । बताया जाता है कि जस्टिस छागला से भी पंडित नेहरू ने अप्रत्यक्ष तौर पर नाखुशी का इज़हार किया था लेकिन खुले तौर पर उनकी ईमानदारी और निष्पक्षता की तारीफ की । मुंदड़ा कांड पर जस्टिस छागला की बेबाक रिपोर्ट का असर यह हुआ कि सरकार में बैठे मंत्रियों को भी एहसास हो गया कि उनकी गतिविधियों पर नज़र सिर्फ विपक्षी सांसदों की नहीं रहती बल्कि फिरोज गांधी जैसे कांग्रेस के सक्रिय सांसदों की भी रहती है ।

जस्टिस एम सी छागला की रिपोर्ट के बाद जहां वित्तमंत्री टी टी कृष्णमाचारी को नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा वहीं हरिदास मुंदड़ा को दिल्ली के क्लेरिज होटल से गिरफ्तार किया गया जहां वह एक आलीशान सुएट में रह रहे थे। अब क्योंकि उनके कृत्यों का पिटारा खुल गया था लिहाजा दूसरी एजेंसियां भी सक्रिय हुईं ।उन्होंने पाया कि मुंदड़ा की हेराफेरी केवल एलआईसी तक ही सीमित नहीं थी बल्कि आयकर विभाग में भी उन्होंने अपनी दबिश का परिचय देते हुए वहां के अधिकारियों से अपने ‘बकाये भुगतान के बारे में कुछ समझौते’ कर लिए थे । स्वतंत्र भारत में यह पहला वित्तीय घोटाला था जो पकड़ में आया था ।उसके बाद हर्षद मेहता, अब्दुल करीम तेलगी तथा अन्य अनेक लोग शामिल हैं जिन्होंने राजनीतिक मिलीभगत से काम किया ।

तारीफ तो पंडित नेहरू सरकार की भी करनी होगी जिन्होंने जस्टिस एम सी छागला को खुली छूट दी थी ।छागला समिति ने अपनी पारदर्शिता बनाये रखते हुए जब मुंदड़ा मामले की गुप्त नहीं बल्कि सार्वजनिक सुनवाई की तो सरकार ने उनके फैसले में दखल नहीं दिया और न ही जस्टिस छागला पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दबाव ही डाला । जस्टिस छागला ने एक ईमानदार और सक्षम न्यायाधीश की मिसाल एक बार फिर कायम कर दी ।कुछ लोगों का यह मानना था कि एलआईसी में वित्तमंत्री टीटीके की भूमिका का खुलासा कर उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया जिससे पंडित नेहरू उनसे खासे ‘खफा’ थे । जब छागला साहब से मैंने इस बाबत पूछा तो उन्होंने बताया कि पंडित नेहरू के लोकतंत्री स्वभाव और सोच को न जानने वाले इस प्रकार का अनर्गल प्रचार करते रहते हैं ।

मुंदड़ा मामले के फैसले के बाद जिस तरह से मोहम्मद करीम छागला की सेवाएं ली गयीं उससे साफ लगता है कि पंडित नेहरू उनकी ईमानदारी, सक्षमता, निर्भीकता, साफगोई, कार्यकुशलता और अपने काम के प्रति समर्पण की भावना से बहुत मुतासिर हुए थे ।लिहाजा छागला साहब को एक के एक पदों से सम्मानित किया गया जैसे 1957-59 में हेग में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के तदर्थ न्यायाधीश, 1958 से 1961 तक अमेरिका में भारतीय राजदूत जहां उनकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी से भारत-अमेरिका संबंधों पर लंबी बातचीत हुई थी (22 मई, 1961)।बताया जाता कि राष्ट्रपति केनेडी जस्टिस छागला की प्रबुद्धता और विद्वता से बहुत प्रभावित हुए थे ।छागला ने ही भारतीय दूतावास के राजनयिक और गैरराजनयिकों को फ़ील्ड में जाकर काम करने का निर्देश दिया था ।उन्होंने कहा था कि दूसरे देशों की तुलना में आम अमेरिकी को भारत के बारे में अधिक जानकारी नहीं । अमेरिका के साथ वह मेक्सिको और क्यूबा के भी राजदूत थे ।उन्होंने अपने प्रवास में भारत की ऐसी छवि पेश की थी जो दूसरे देशों के लिए मिसाल बनी ।

इसके बाद अप्रैल,1962 से सितम्बर, 1963 तक ब्रिटेन और आयरलैंड में भारतीय उच्चायुक्त के रूप में कार्यरत रहे ।उनसे पहले पंडित नेहरू की बहन श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित वहां पर तैनात थीं ।ब्रिटेन और आयरलैंड में रहते हुए भी जस्टिस छागला ने उच्चायोग के कर्मचारियों-अधिकारियों को फ़ील्ड में भेज भारत की छवि-सुधार का काम किया ।जस्टिस छागला का ‘खौफ’ सितम्बर,1967 तक बना रहा ।उसके बाद उन्होंने विदेशमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था ।उनके इस्तीफे के बाद फिर से राजनयिक बेलगाम
हो गये ।इसकी मिसालें मैं 1975 से 1983 तक यूरोप और अमेरिका के अपने दौरों के दौरान देख चुका हूं ।

जस्टिस एम सी छागला 1963 से 1966 तक देश के शिक्षामंत्री रहे ।मैं पहली बार 1964 में उनसे दिल्ली के नार्थ ब्लाक में उनके ऑफ़िस में मिला था ।तब मैं लोकसभा सचिवालय में काम करता था और छागला साहब का इंटरव्यू मैंने लखनऊ से निकलने वाली पत्रिका ‘ज्ञान भारती’ के लिए लिया था । जस्टिस छागला की शिक्षा नीति के बारे में मैं अपनी किसी किश्त में लिख चुका हूं । यहां तो मैं मुंदड़ा मामले में उनकी अहम भूमिका में बारे में लिखना चाहता था ।उसी इंटरव्यू के दौरान ही मैंने उनसे इस मामले पर चर्चा की थी । जब मैंने उनसे पूछा कि मुंदड़ा मामले की सुनवाई के दौरान आप पर सरकार की ओर से किसी ने दबाव बनाने की कोशिश नहीं की, मेरे इस प्रश्न पर वह मुस्कुराए और बोले,’यह तो राजनीतिकों की फितरत होती है लेकिन उन्हें यह भी मालूम था कि मैं किस धातु का बना हुआ हूं ।इसके अलावा सभी लोग जानते थे कि कानूनन हम पुख्ता ज़मीन पर खड़े हैं और इसमें सूराख करने की कोई गुंजाइश नहीं है,खास तौर पर मेरे रहते ।’

क्योंकि शिक्षामंत्री के रूप में मैं एम सी छागला से मिला था,जिन्होंने तीन प्रधानमंत्रियों पंडित जवाहरलाल नेहरू,लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के साथ काम किया था, इसलिए देश की शिक्षा प्रणाली पर उनसे टिप्पणी लेनी तो बनती थी,छागला अपने स्वभाव के मुताबिक बहुत साफगो थे,बोले कि आज शिक्षा की हालत यह है कि वहां अप्रशिक्षत टीचर हैं, बच्चों के पास नई किताबें नहीं, खेलने के लिए ढंग के ग्राउंड नहीं,झोंपड़ियों में हमारे स्कूल चल रहे हैं क्या ऐसी शिक्षा प्रणाली से हम आधुनिक शिक्षित पीढ़ियां तैयार करना चाहते हैं ।इस पर तुर्रा यह कि जब कभी देश में आर्थिक संकट की स्थिति पैदा होती है तो पहला शिकार शिक्षा मंत्रालय का बजट होता है,ऐसा क्यों यह मेरी समझ के बाहर है ।यह पूछे जाने पर कि आप तो निर्विकार और निर्भीक न्यायविद रहे हैं यहां शिक्षा मंत्रालय में ऐसी क्या मजबूरी है तो उनका बहुत ही सटीक उत्तर था कि ‘न्यायपालिका और कार्यपालिका की पद्धति में यही तो अंतर है ।मुख्य न्यायधीश के तौर पर तो मैं बादशाह था और शिक्षा मंत्रालय का तो मैं पूरी तरह से मुखिया भी नहीं,दूसरों के रहमोकरम पर निर्भर रहना पड़ता है । आपसे पहले अबुल कलाम आजाद और हुमायूं कबीर भी शिक्षामंत्री रह चुके हैं,क्या उन्होंने इस दशा-दिशा के बारे में प्रधानमंत्री को अवगत नहीं कराया इस पर छागला साहब का कहना था कि मैं दूसरों के बारे में तो नहीं जानता, मैंने अलबत्ता पंडित नेहरू से अपने मन की बात कह दी थी ।

12 सितम्बर,1912 को फिरोज गांधी का जन्म मुंबई में एक पारसी परिवार में हुआ ।उनके पिता जहांगीर क्लिक निक्सन नामक कंपनी में मरीन इंजीनियर थे,बाद में तरक्की करके वारंट इंजीनियर बन गये ।अपने मां बाप की पांच संतानों में फिरोज सबसे छोटे थे ।फिरोज के पिता का जल्दी निधन हो गया जिसकी वजह से उनकी मां उन्हें लेकर इलाहाबाद उनकी मौसी के पास आ गयी जहां उन्होंने इवनिंग क्रिश्चियन कॉलेज प्रयागराज में पढ़ाई की । 1930 में अपने कॉलेज के बाहर धरना दे रहीं महिला प्रदर्शनकारियों के बीच फिरोज की मुलाकात कमला नेहरू और इंदिरा से हुई ।कमला नेहरू धूप की गर्मी बर्दाश्त न कर जब बेहोश हो गयीं तो फिरोज उनकी देखभाल में जुट गये ।उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और वह स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गये तब उनकी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र पंडित नेहरू का निवास आनंद भवन हुआ करता था।1930 में ही इलाहाबाद ज़िला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष लालबहादुर शास्त्री के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें फैज़ाबाद जेल में उन्नीस महीने तक नजरबंद रखा गया ।रिहाई के बाद वह उत्तरप्रदेश में कृषि लगान-मुक्ति अभियान में शामिल हो गए और नेहरू जी के साथ मिलकर काम करते रहे ।1932 और 1933 में दो बार जेल गये ।नेहरू जी के साथ अभियान से जुड़ने की वजह से वह नेहरू परिवार के करीब आ गये,खास करके कमला नेहरू के ।1934 में वह उनके साथ भोवाली टीबी सेनेटोरियम गए । जब वहां उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ तो अप्रैल,1935 में उन्हें स्विट्ज़रलैंड ले जाया गया ।वहां भी कमला नेहरू की देखभाल के लिए फिरोज गांधी पहुंच गये लेकिन 28 फरवरी, 1936 को उनका निधन हो गया ।तब फिरोज गांधी उनके पास थे । फिरोज गांधी को अपनी मां की सेवा करते देख इंदिरा उनके और करीब आ गयी, वैसे करीबी तो दोनों की 1933 में ही हो गयी थी ।1942 में हिंदू रीतिरिवाज के साथ दोनों की शादी हो गयी ।
शादी के छह महीने भी नहीं हुए थे कि अगस्त, 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इस जोड़े को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया ।एक साल की सज़ा के बाद इलाहाबाद की नैनी सेंट्रल जेल से जब रिहाई हुई तो उसके अगले पांच साल सुकून भरे रहे ।1944 में राजीव का जन्म हुआ और 1946 में संजय का ।

क्योंकि इतनी जद्दोजहद के बाद फिरोज गांधी अब जमने लगे थे, पारिवारिक और राजनीतिक दोनों तरह से,मैंने उनसे यह पूछा कि आपकी स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के बारे में तो मैं जानता हूं लेकिन अक्सर यह सुनने में आता है कि आपने कमला नेहरू की बहुत सेवा की थी जिसकी वजह से इंदिरा जी की और आपकी नज़दीकियां बढ़ीं ।फिरोज हल्के से मुस्कुराते हुए बोले कि आपका प्रश्न है तो धुर निजी लेकिन फिर भी मैं आपको स्पष्ट उत्तर दूंगा ।शुरुआत करते हैं 1930 में मेरे कॉलेज के बाहर महिलाओं के धरने के दौरान कमला नेहरू का बेहोश हो जाना ।क्योंकि मुंबई से इलाहाबाद आकर शुरू शुरू में रहता तो मैं अपनी मौसी के घर था लेकिन जब राजनीति में प्रवेश किया तो मेरा ठिकाना आनंद भवन में हो गया ।इसलिए कमला नेहरू को मैं बेहोशी की हालत में आनंद भवन ले गया और उन्हें होश में लाने की कोशिश की ।तब मैंने उन्हें परामर्श दिया कि आपका कृशकाय शरीर इस तरह के आंदोलनों और अभियानों में शिरकत करने की इज़ाजत नहीं था ।उनके यहां पंडित नेहरू के अलावा कोई दूसरा पुरुष सदस्य था नहीं,इसलिए कमला जी की मैं ही देखभाल किया करता था ।बाद में मुझे पता चला कि वह टीबी मरीज़ हैं, अपनी परवाह किए बगैर मैं भवाली में भी उनके पास रहा और स्विट्ज़रलैंड में भी,उनकी आखिरी सांस तक ।यह इंसानियत का भी तकाजा था ।

लेकिन सुना तो यह भी जाता है कि आपने आनंद भवन रहते हुए ही इंदिरा जी को प्रोपोज़ कर दिया था! हां यह बात सच है ।कमला जी इसके विरुद्ध नहीं थीं लेकिन उनका यह सुझाव था कि इसकी उम्र 18 बरस हो जाने दो। अगर कमला नेहरू जीवित होतीं तो हम दोनों को आशीर्वाद ज़रूर देतीं ।और पंडित जी! शुरू शुरू में उन्हें कुछ आपत्ति थी, बाद में इंदु ने उन्हें राज़ी कर लिया था ।आप खुद ही सोचिए कि यदि पंडित जी को हमारे विवाह को लेकर एतराज होता तो क्या मुझे वह पहले अंतरिम संसद (1950-1952) का सदस्य बनाते, उनके द्वारा स्थापित ‘नेशनल हेरल्ड’ में क्या मैं प्रबंध निदेशक बन पाता, क्या वह मुझे 1952 और उसके बाद 1957 में राय बरेली से लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए टिकट देते । 1955 में जब मैंने कुछ धन्ना सेठों की वित्तीय अनियमितताओं का भंडाफोड़ किया तो उन्होंने ऐतराज किया था क्या।

माफ कीजिएगा,मैं बहुत ही निजी सवाल पूछ रहा हूं ।अगर सब कुछ सही है तो आपके और पंडित जी के संबंध ‘तुर्श’ और ‘तनावपूर्ण’ क्यों दीखते हैं,उन्हें सामान्य दीखना चाहिए ।इंदिरा गांधी की आपके साथ न रहने की क्या वजह है । संकेतों और गुपचुप तरीकों से ऐसे प्रश्न फिजा में तैरते रहते हैं । मेरे इस सवाल से फिरोज गांधी संजीदा हो गये ।मैंने फिर उनसे क्षमायाचना करते हुए कहा कि यदि आप उत्तर न देना चाहें तो कोई बात नहीं ।लेकिन मुझे लगा कि इस बीच उन्होंने अपने आपको संभाल लिया था ।वह बड़ी ही गंभीर और धीमी आवाज़ में बोले,’अगर आपसे मेरा परिचय सरदार हुकम सिंह ने न कराया होता तो मैं इस सवाल का हर्गिज जवाब नहीं देता और हो सकता है कि मैं आपको भला बुरा भी कह देता ।क्योंकि मैं बज़ातेखुद सरदार साहब की बहुत इज़्ज़त करता हूं इसलिए आपको मैंने इतना कहने की छूट दी ।

बेशक यह मेरी धुर निजी ज़िंदगी में झांकने का सवाल है और कुछ हद तक अपने बारे में लोगों की फुसफुसाहट से भी मैं वाकिफ हूं लिहाजा आज मैं इस प्रकार के संकेतों,इंगितों और गलतफहमियों को हमेशा के लिए दूर कर देना चाहता हूं ।अब आप ध्यान से सुनिये ।यह सभी को मालूम है कि मेरी राजनीति का केंद्रबिंदु इलाहाबाद का आनंद भवन था, कमला नेहरू और इंदिरा जी से मेरी यहीं मुलाकात हुई थी,कमला के अंतिम दिनों में मैं ही उनके साथ था । 1943 में जेल से छूटने के बाद हमारी पारिवारिक ज़िंदगी सुकून भरी थी और हम लोग प्रयागराज में प्रसन्न थे,हमारे दोनों बेटे यहीं पैदा हुए थे ।1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री बन गये लेकिन हम लोग इलाहाबाद में ही रहे । हालांकि मैं अंतरिम संसद का भी सदस्य था लेकिन 1952 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद ही हम लोग दिल्ली शिफ्ट हुए और यहीं से गप्पों और गलतफहमियों की शुरुआत हुई । मैं यह स्पष्ट कर दूं कि 1952 और 1957 के चुनावों के दौरान इंदु मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव प्रचार करती रहीं ।दिल्ली में मुझे जो आवास मिला उसे भी इंदु ने सजाया संवारा ।1958 में मुझे दिल का दौरा पड़ा वह अपना भूटान का दौरा बीच में छोड़ कर मेरी देखभाल के लिए आ गयीं ।पति पत्नी के बीच की परस्पर समझदारी ही उनके रिश्ते को मज़बूत करती है ।

अब अटकलों और कयासों का दौर शुरू होता है ।इंदिरा गांधी अपने पिता पंडित नेहरू के साथ तीनमूर्ति भवन में बच्चों के साथ क्यों रहती हैं ।उत्तर बिलकुल साफ है ।पंडित नेहरू देश के प्रधानमंत्री हैं ।उन्हें विदेशों से आने वाले राजाध्यक्षों और राष्ट्राध्यक्षों का स्वागत करना होता है लेकिन उनकी पत्नियों का स्वागत कौन करेगा।यह दायित्व इंदु का है ।अलावा इसके प्रधानमंत्री की बहुत सी व्यस्तताएं रहती हैं, सरकारी तो उनके सचिव या अन्य कर्मचारी संभाल लेते हैं लेकिन घरेलू पक्ष कौन देखेगा ।इंदु को उनकी परिचारिका के रूप में भी काम करना होता है ।यह हम दोनों के बीच एक तरह का समझौता था कि वह तीनमूर्ति रह रही थीं दोनों बेटों के साथ । मुझे वहां जाकर अपने परिवार से मिलने की मनाही नहीं थी ।पंडित जी से भी मेरी मुलाकात हो जाया करती थी ।हम दोनों के बीच रिश्ते बहुत सहज और सामान्य थे ।

लेकिन 1958 में भारतीय जीवन निगम से जुड़े हरिदास मुंदड़ा घोटाले का मुद्दा उठाने पर तो वह बहुत असहज थे जब मैंने फिरोज गांधी से यह प्रश्न किया था तो उनका तत्काल उत्तर था कि ‘यह किसने आपसे कह दिया । उन्हें तो अलबत्ता यह जानकर ताज्जुब हुआ कि एलआईसी वित्तीय घोटाले से उनका कोई मंत्री भी लिप्त है।बेशक टीटीके उनके विश्वसनीय मंत्री थे लेकिन उनकी कारगुर्ज़ारियों से तो वह भी क्षुब्ध हो गए थे ।यदि वह मुझसे नाराज़ होते तो जस्टिस एम सी छागला की एक सदस्यीय जांच कमेटी क्यों गठित करते ।जिस प्रकार जस्टिस छागला ने जांच समिति की कार्यवाही को गोपनीय न रखकर उसे सार्वजनिक रूप दे दिया, उस पर भी तो वह ऐतराज जता सकते थे,लेकिन नहीं जताया ।अपने मंत्री की उस घोटाले में लिप्त होने के उल्लेख पर उन्होंने जस्टिस छागला की निर्भीकता, निष्पक्षता और स्पष्टवादिता की तारीफ की और उन्हें ऊंचे पद देकर सम्मानित किया,यहां तक कि अपनी सरकार में शिक्षामंत्री भी बनाया । यदि निर्विकार भाव से देखा जाए तो मैंने पंडित जी की सहायता ही की।इस घटना के बाद से वे सभी मंत्री, सांसद और नौकरशाह सचेत हो गये जो इस तरह के किसी सौदे की योजना बना रहे थे और संभवतः स्वयं प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी ।

सुना जाता है कि मुंदड़ा कांड के बाद मंत्री और सांसद आपसे खौफज़दा रहने लगे थे ।फिरोज गांधी मुस्कुरा दिए और बोले,’जब तक किसी मामले में मेरे पास ठोस और पुख्ता प्रमाण नहीं होते, मैं सदन का समय नष्ट करने में विश्वास नहीं करता ।मैं रोज़ संसद में आता हूं,हाज़िरी लगाता हूं, कुछ समय तक सदन की कार्यवाही देखता-सुनता हूं और जरूरत पड़ने पर हस्तक्षेप भी करता हूं, कोई पूरक प्रश्न भी पूछ लेता हूं वहां की कार्यवाही को देखते हुए ।संसद के सेंट्रल हाल में मेरी कार्नर है वहां हम कुछ मित्र बैठकर बातचीत करते रहते हैं विभिन्न विषयों पर ।

8 सितम्बर, 1960 को 48 बरस की आयु में जब फिरोज गांधी का निधन हुआ तो उस दिन लोकसभा का सत्र हुआ,प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी आये ।उन्हें लोकसभा में आया देखकर सत्तापक्ष और विपक्ष के सांसद जब अपनी अपनी संवेदनाएं व्यक्त करने के लिए गए और उन्हें ‘फिरोज गांधी के पास रहना चाहिए था’ की सलाह दी तो उनका उत्तर था कि इंदु उनके पास रहकर सारा इंतजाम देख रही है ।सदन का नेता होने के नाते मुझे भी तो दिवंग्त आत्मा को श्रृद्धांजलि देनी चाहिए । थोड़ी देर में घोषणा हुई ‘माननीय सदस्यो, माननीय अध्यक्ष जी ।’ इसके बाद स्पीकर श्री एम ए अय्यंगर ने आसन ग्रहण कर फिरोज गांधी के निधन की दुखद सूचना दी ।इसके बाद श्रृद्धांजलि देने का दौर शुरू हो गया। प्रमुख दलों के नेताओं ने फिरोज गांधी की दिलेरी और ईमानदारी की तारीफ करते हुए कहा कि वह सही अर्थों में लोकतंत्री सोच के नेता थे और भ्रष्टाचार के कट्टर दुश्मन। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी उन्हें एक ‘माननीय और अपने लोकतंत्री मूल्यों के प्रति समर्पित सांसद’ कह कर श्रृद्धांजलि दी ।

8 सितम्बर,1960 को वेलिंगटन अस्पताल (वर्तमान में डॉ राममनोहर लोहिया अस्पताल) में निधन हुआ ।उनका शव तीनमूर्ति भवन में लोगों के दर्शनार्थ रखा गया था । वहां पर सभी धर्म ग्रंथों का पाठ किया गया था ।मृत्यु से पहले उनकी इच्छा थी कि पारसी होने के बावजूद उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीतिरिवाज के आधार पर किया जाए क्योंकि उन्हें पारसी तरीके से अंत्येष्टि का तरीका पसंद नहीं था ।पारसी तरीके से शव को चीलों के खाने के लिए छोड़ दिया जाता है ।उनकी पत्नी इंदिरा गांधी ने फिरोज की इस इच्छा का सम्मान रखा ।हालांकि उन्होंने कुछ पारसी रीतिरिवाजों का भी पालन किया । उनके बड़े बेटे 16 वर्षीय राजीव गांधी ने शव को मुखाग्नि दी ।उनकी कुछ अस्थियों को इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) संगम में प्रवाहित कर दिया गया तो कुछ अस्थियों को पारसी कब्रिस्तान में रखा गया। क्या संयोग है कि जस्टिस एम सी छागला की इच्छा अनुसार उनका भी अंतिम संस्कार किया गया,पारंपरिक मुस्लिम दफनाने के बजाय ।उनकी स्मृति में आज भी एक शिलालेख पर यह पढ़ने को मिल जाता है ‘एक महान न्यायाधीश, एक महान नागरिक और इन सबसे ऊपर,एक महान इंसान ।’ फिरोज गांधी के बारे में भी कहा जाता है कि ‘एक मुखर सांसद, भ्रष्टाचार का दुश्मन और एक साफगो इंसान ।’

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