विवेक शुक्ला
नई दिल्ली- मोहम्मद तकी पिछले करीब पचास सालों से स्वाधीनता दिवस का चांदनी चौक से नजारा देख रहे हैं। उन्हें इस दौरान लाल किला और चांदनी चौक का सारा क्षेत्र तिरंगे से रंगा नजर आता है। सब तरफ तिरंगे बिक रहे होते हैं या दुकानों और इमारतों पर लहरा रहे होते हैं। लेकिन, वो मानते हैं कि अब ये आयोजन पहले जैसा सादा नहीं रहा। इसमें कई बदलाव आ गए हैं।
दिल्ली में स्वतंत्रता दिवस का जश्न 1947 के सादे, सरकारी समारोहों से बदलकर 2025 तक भव्य और हाई-सिक्योरिटी वाले आयोजनों में तब्दील हो चुका है। “पहले जो मूल परंपराएं थीं—झंडारोहण, प्रधानमंत्री का भाषण, और सांस्कृतिक कार्यक्रम—वो तो अब भी हैं, लेकिन इसका स्केल, सिक्योरिटी और लोगों की भागीदारी बहुत बढ़ गई है, पेशे से बिजनेसमैन मोहम्मद तकी बताते हैं।
सादगी और प्रतीकवाद (1947–1960s)
1947 में दिल्ली का पहला स्वतंत्रता दिवस एक ऐतिहासिक पल था। 16 अगस्त, 1947 को पंडित नेहरू ने लाल किले पर तिरंगा फहराया। आयोजन सादा था। तब बंटवारे की उदासी और संसाधनों की कमी की वजह से जनभागेदारी सीमित थी।
“मुझे 1950 और 1960 के दशक अच्छे से याद हैं। तब समारोह
औपचारिक होते थे। प्रधानमंत्री का भाषण राष्ट्र निर्माण पर केंद्रित होता था, जो गरीबी और अशिक्षा जैसी चुनौतियों को दर्शाता था। लोग ज्यादा शामिल नहीं होते थे, ज्यादातर सरकारी आयोजन होते थे। स्कूली बच्चे और सेना परेड में हिस्सा लेते थे, और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में देशभक्ति के गाने और नृत्य होते थे,” ये कहना है डॉक्टर आर. के. गुप्ता का जो ऋषिकेश से 15 अगस्त समारोह देखने दिल्ली आते थे।
बढ़ता स्केल और राष्ट्रीय गर्व (1970s–1980s)
1970 के दशक तक दिल्ली में स्वतंत्रता दिवस का जश्न बड़ा होने लगा, क्योंकि भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में आत्मविश्वास हासिल कर रहा था। लाल किले का समारोह ज्यादा व्यवस्थित हो गया, और प्रधानमंत्री का भाषण रेडियो और बाद
में टेलीविजन के जरिए पूरे देश में प्रसारित होने लगा। “1980 के दशक में लोगों की भागीदारी बढ़ी। सरकार ने स्कूलों, कॉलेजों और मोहल्लों में झंडारोहण को प्रोत्साहित किया। इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन को तिरंगे की रोशनी से सजाया जाता था, जिससे उत्सवी माहौल
बनता था।
आधुनिकीकरण और समावेशिता (1990s–2000s)
1990 का दशक आर्थिक उदारीकरण और टेक्नोलॉजी के विकास के साथ आधुनिकीकरण का दौर लाया। लाल किले के समारोह का टीवी प्रसारण लाखों लोगों तक पहुंचा, जिसने दिल्ली के जश्न को राष्ट्रीय तमाशा बना दिया। प्रधानमंत्री का भाषण अब वैश्विक आकांक्षाओं को छूने लगा, जो भारत की टेक्नोलॉजी और कूटनीति में बढ़ती भूमिका को दर्शाता था।
हर घर तिरंगा” जैसे अभियान
“हर घर तिरंगा” जैसे अभियानों ने लोगों को घर पर झंडा फहराने के लिए प्रेरित किया। स्कूलों और कॉलेजों में क्विज, निबंध प्रतियोगिताएं और देशभक्ति प्रदर्शन हुए, जिससे युवाओं में नागरिक भावना बढ़ी। 2000 के दशक में लाल किले पर स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों को विशेष अतिथि के रूप में बुलाया जाने लगा। लेकिन वैश्विक और क्षेत्रीय खतरों की वजह से सिक्योरिटी सख्त हो गई। लाल किला और सेंट्रल दिल्ली के आसपास बैरिकेड्स, पुलिस गश्त और बेसिक सीसीटीवी निगरानी आम हो गई।
21वीं सदी में सिक्योरिटी और टेक्नोलॉजी (2010s–2020s)
2025 में दिल्ली स्वतंत्रता दिवस के लिए “किले” में तब्दील हो गई। 2017 में एक पतंग के मंच के पास गिरने की घटना के बाद “पतंग पकड़ने” वाले उपाय किए गए। ट्रैफिक पाबंदियां बढ़ गईं, जिससे सेंट्रल दिल्ली में सड़कें बंद हुईं और यात्रियों को परेशानी हुई, लेकिन सुरक्षा सुनिश्चित हुई।
हां, स्वाधीनता समारोह का चेहरा राजधानी में बदलता रहा, पर 15 अगस्त पर दिल्ली का आसमान पहले की तरह पतंगों से अट जाता है। इस बार भी यह रिवायत जारी रहने वाली है।