जैनब, पैगंबर मोहम्मद की नवासी, को जंजीरों में जकड़कर 750 किलोमीटर की कठिन यात्रा पर कूफा (इराक) से दमास्कस (सीरिया) ले जाया गया। यह यात्रा बच्चों और महिलाओं के लिए असहनीय थी, सर्दियों की ठंड में कईयों ने तड़पकर दम तोड़ दिया। दमास्कस पहुंचने पर उन्हें 72 घंटे तक बाजार के चौराहे पर खड़ा रखा गया, अपमान और यातना का यह दृश्य दिल दहलाने वाला था। उस समय युद्ध जीतने वाली सेना पराजितों के कटे सिरों को साथ ले जाती थी, जीत का जश्न मनाने के लिए। जैनब के साथ उनके भाई हुसैन और अब्बास के कटे सिर भी इस यात्रा में शामिल थे। बाद में जैनब ने खलीफा यजीद से अपने शहीद भाइयों के सिर लौटाने और मातम के लिए एक घर देने की मांग की।
पैगंबर मोहम्मद के निधन के महज तीन महीने बाद उनकी बेटी फातिमा की उनके घर में घुसकर निर्मम हत्या कर दी गई। उनके दामाद अली को रमजान में नमाज पढ़ते वक्त मार दिया गया। उनके बड़े नवासे को जहर दिया गया, और छोटे नवासे हुसैन को कर्बला के मैदान में तीन दिन तक भूख-प्यास से तड़पाकर शहीद किया गया। यह सब तब हुआ जब न अमेरिका था, न इजरायल, न हथियार बेचने वाली कंपनियां। और यह क्रूरता करने वाले कोई बाहरी नहीं, बल्कि अपने ही थे।
यह क्रूरता केवल अरब तक सीमित नहीं रही। भारत में भी यह मानसिकता बाद में दिखाई दी। कर्बला में 70 लोगों ने हजारों का सामना किया, तो चमकौर के युद्ध में 40 सिखों ने 10 हजार का। कर्बला में हुसैन की चार साल की बेटी को उनके पिता का कटा सिर खाने की थाली में सजा कर दिया गया। भारत में दारा शिकोह का कटा सिर शाहजहां को थाली में परोसा गया। जैनब अपने भाइयों के सिर मांग रही थी ताकि मातम मना सके, तो सोनीपत के कुशाल सिंह दहिया ने गुरु तेग बहादुर का सिर सम्मानपूर्वक आनंदपुर साहिब भेजने के लिए अपना सिर मुगलों को सौंप दिया।
कर्बला में हुसैन की छोटी बेटी को तड़पाया गया, तो भारत में गुरु गोविंद सिंह के बच्चों को जिंदा दीवार में चिनवा दिया गया। जैनब को कूफा से दमास्कस ले जाया गया, उसी तरह बंदा बैरागी को जोकर बनाकर लाहौर से दिल्ली लाया गया, जहां उनके मुंह में उनके तीन साल के बच्चे का मांस ठूंसा गया। कर्बला में शहीदों के शवों की बेकद्री हुई, तो भारत में गुरु गोविंद सिंह के बच्चों के दाह संस्कार के लिए जमीन सोने के सिक्कों से खरीदी गई।
सातवीं शताब्दी की वह बर्बरता, जो अरब में कर्बला के मैदान में दिखी, वही क्रूरता सत्रहवीं शताब्दी में भारत में भी साफ झलकती थी। फिर भी, यजीद को शैतान कहा गया, लेकिन औरंगजेब को “जिंदा पीर” का दर्जा मिला। यह इतिहास हमें याद दिलाता है कि क्रूरता और अन्याय की कहानियां समय और स्थान बदलने के बावजूद अपनी भयावहता नहीं खोतीं।