जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए दीनता, पलायन या समर्पण जैसे रास्तों का चयन नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, एकाग्रता और निर्णायक संघर्ष के साथ लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। जब हम किसी चुनौती का सामना करते हैं, तो हमें उसे पूरी एकाग्रता के साथ हल करने का प्रयास करना चाहिए। यही जीवन की सफलता की कुंजी है। समय के साथ समस्याएं और चुनौतियां बदलती रहती हैं, लेकिन वे हमेशा हमारे साथ रहती हैं। इन समस्याओं से पलायन करना या दीनता का प्रदर्शन करके समर्पण करना उनका समाधान नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही संदेश दिया था कि समस्याओं का सामना करने के लिए पूरी एकाग्रता के साथ निर्णायक संघर्ष करना ही एकमात्र समाधान है। यही संदेश आज भी हमें श्रीमद्भगवत गीता के माध्यम से मिलता है, जो हमें हमारे कर्म और कर्तव्य के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच एक महत्वपूर्ण संवाद है, जो महाभारत युद्ध के लिए सजी सेनाओं के बीच हुआ था। यह महाभारत के भीष्मपर्व का एक अंश है, जिसमें कुल सात सौ श्लोक हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण के वचनों में ज्ञान का महासागर है, जिसमें विचारों की गहराई, निष्कर्ष की सतह, और भविष्य के जीवन का विस्तार है। यह एक कालजयी संवाद है, जिसमें समस्याओं के समाधान के सूत्र प्रत्येक कालखंड में सामयिक हैं। समय कोई भी हो, समस्या या चुनौती का स्वरूप कोई हो, उसके समाधान के सूत्र गीता में अवश्य मिलते हैं। समस्या पर सफलता ही जीवन की प्रगति है, और समस्या से भागना जीवन की अवनति है। इसलिए, समस्या को समझकर फिर पूरी एकाग्रता के साथ सामना करने से ही जीवन की उन्नति होती है। श्रीमद्भगवद्गीता एक असाधारण ग्रंथ है, जो कालचक्र से परे है। इसमें वर्णित सूत्र लक्ष्य प्राप्ति और समस्या निदान के लिए प्रत्येक कालखंड में सामयिक हैं। सामान्य जीवन के कर्म-कर्तव्य से लेकर परिश्रम, पुरुषार्थ, प्रकृति के रहस्य, आत्मा का अस्तित्व, ब्रह्म के द्वैत और अद्वैत स्वरूप तक सभी जिज्ञासाओं का समाधान श्रीमद्भगवत गीता में है।
व्यक्तित्व विकास, धर्म की रक्षा, और राष्ट्र निर्माण के सूत्र समझने के लिए संसार के अधिकांश देशों ने गीता का अपनी भाषा में अनुवाद किया है। अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, उर्दू, और अरबी में गीता के अनुवाद हुए हैं। अमेरिका और ब्रिटेन के कुछ विश्वविद्यालयों में गीता पाठ्यक्रम में शामिल है। भारत में भी गीता के जितने भाष्य तैयार हुए उतने किसी अन्य ग्रंथ के नहीं। ये भाष्य सभी विचार समूह के मनीषियों ने किए। उनमें आध्यात्मिक, साहित्यक, समाज सुधारक, राजनेता आदि सभी वर्ग समूह के सुधिजन हैं। पूज्य आदि शंकराचार्य जी के भाष्य में निर्गुण और अद्वैत के दर्शन होते हैं तो रामानुजाचार्य जी के भाष्य में सगुन भक्ति के। वहीं ज्ञान और कर्म को समझाने वाला ओशो का भाष्य है। राजनेताओं में गाँधी जी और लोकमान्य तिलक और बिनोबा जी भी हैं जिन्होंने गीता के ज्ञान को अपने ढंग प्रस्तुत किया है। विषमता और विभ्रम के बीच विचारों की जो संकल्पशील एकाग्रता गीता से मिलती है, वह अद्भुत है। इसकी झलक विषमता के बीच पूज्य आदिशंकराचार्य जी द्वारा सनातन धर्म की पताका को पुनर्प्रतिठित करने में, रामानुजाचार्य जी द्वारा दासत्व के घोर अंधकार के बीच भक्ति मार्ग द्वारा सनातन ज्योति जलाये रखने में, गाँधीजी एवं लोकमान्य तिलक ने स्वाधीनता संग्राम में नयी दिशा प्रदान करने में, और बिनोवा जी के भूदान आँदोलन की संकल्पशीलता में स्पष्ट झलकती है। व्यक्ति निर्माण कैसा हो, समाज का स्वरूप कैसा हो, और समस्या आने पर व्यक्ति का संकल्प कैसा हो, इन सबके सूत्र श्रीमद्भगवत गीता में हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने व्यक्तित्व निर्माण के लिए आदर्श जीवनशैली पर जोर दिया है। व्यक्ति ही परिवार, समाज और राष्ट्र निर्माण की नींव होता है। यदि व्यक्ति का चरित्र आदर्श है, व्यक्तित्व संकुचित नहीं है तो उस व्यक्ति और परिवार की प्रगति कोई रोक नहीं पाएगा। व्यक्ति और परिवार की प्रगति से ही समाज और राष्ट्र प्रगति करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने व्यक्तित्व निर्माण के लिए आचरण पर जोर दिया है। व्यक्ति का आचरण ऐसा होना चाहिए कि वह स्वयं भी प्रतिष्ठित हो और अन्य लोग भी उसका अनुसरण करें। यह संतुलित जीवन शैली और विचारों के समन्वय, राग-द्वेष से परे होना चाहिए। विपरीत परिस्थितियों में भी संतुलित रहना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण के इन सिद्धांतों को अपनाकर व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बना सकता है।
दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। (2/56)
आदर्श व्यक्तित्व विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता। राग, भय, क्रोध, मोह में भी स्थिर बुद्धि रहे, सुख में भी डूबे नहीं तथा संकट और संतापों की प्रतिकूलता और अनुकूलता में भी संतुलन बनाए रखे। एक संतुलित और आदर्श जीवन शैली जीने वाला स्वयं तो प्रगति करता ही है, साथ ही वह समाज में भी एक आदर्श के रूप में स्थापित होता है। व्यक्ति अपने आचरण से ही समाज में श्रेष्ठ बनता है, आदर्श भी बनता है। लोग उसका अनुसरण करते हैं। परिवार प्रमुख का अनुसरण अधिकांश सदस्य करते हैं और समाज के श्रेष्ठ जनों के आचरण का अनुसरण समाज में अन्य लोग भी करते हैं।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ (3/ 21)
श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करते हैं, जो काम करते हैं, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। अतएव श्रेष्ठ पुरुषों को अपने आचरण और कार्य श्रेष्ठ करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि सृष्टि का निर्माण गुण और कर्म पर आधारित है। अपनी प्रतिभा के अनुसार कर्म करना ही उचित है।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ।। (4/13)
श्रीमद्भगवत गीता का यह श्लोक बहुत व्यापक अर्थ वाला है। इसमें कहा गया है कि सृष्टि का निर्माण गुण कर्म के आधार पर है। इसका स्पष्ट संकेत है कि प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को कुछ विशेष गुणों के साथ सृजित किया है। उसे अपना कर्म अपने ही विशिष्ट गुणों के आधार पर करना चाहिए। व्यक्ति की प्रतिभा, कौशल और प्रज्ञा शक्ति सब उसके गुणों में आती है। अपनी प्रगति के लिए उसे सबसे पहले अपना आकलन करना चाहिए, अपनी कला कौशल, प्रतिभा के आधार पर अपने कर्तव्य निर्धारित करके आगे बढ़ना चाहिए। तभी उसकी प्रगति होगी और वह संसार में श्रेष्ठ नागरिक बन सकेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि कार्य की सफलता या असफलता में उनका कोई योगदान नहीं। सफलता या असफलता व्यक्ति के अपने कर्म के आधार पर ही मिलती है। उन्होंने यह भी कहा है कि मनुष्य को किसी एक कर्म में रुकना नहीं चाहिए, लिप्त नहीं रहना चाहिए। काम करे और आगे बढ़े।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।। (4/14)
इससे स्पष्ट है कि कर्मों का फल पर ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। वह केवल व्यक्ति की कर्मशक्ति पर निर्भर करता है। दीनता या पलायन नहीं, निर्णायक संघर्ष ही सफलता की कुंजी है। महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि में शांति के पूरे प्रयास किए गए थे। युद्ध की तैयारी के लिए बुलाई गई विराट की सभा में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था – “युद्ध तब तक नहीं जब तक शांति का एक भी मार्ग शेष हो।” और वे स्वयं शांति और समझौता प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर गए। लेकिन जब युद्ध के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं बचा, तब उन्होंने निर्णायक युद्ध का संदेश दिया।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चय:।। (2/37)
यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग मिलेगा और विजय मिली तो राज्य भोगेगा। इस संदेश में समझौता, समर्पण अथवा पीछे हटने की कोई बात नहीं की गई। केवल निर्णायक युद्ध की बात कही गई। ऐसा निर्णायक युद्ध जिसमें या तो जीत हो अथवा बलिदान। व्यक्तित्व निर्माण और कर्म कर्तव्य की दृढ़ता के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने धर्म पर अडिग रहने का भी संदेश दिया। सनातन परंपरा में धर्म बहुत व्यापक अर्थ लिये हैं। इसका आशय अपने इष्ट की आराधना उपासना तो है ही, इसके साथ ही संसार के धारणीय दायित्वों से भी है। जैसे शिक्षक का धर्म है अच्छे से पढ़ाना और विद्यार्थी का धर्म पढ़ना। भगवान श्रीकृष्ण ने सबको अपने धर्म के प्रति समर्पित रहने का संदेश भी दिया।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं, श्रेयः परधर्मो भयावहः।। (3/35)
भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म पर अडिग रहने की दो स्थानों पर कही है। पहले तीसरे अध्याय में कर्म का महत्व समझाया है, जहाँ कर्म के प्रति समर्पण के साथ धर्म को जोड़ा है। और फिर अंतिम अठारहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वधर्म पर अडिग रहने की बात कही है। गीता का अठारहवाँ अध्याय संपूर्ण गीता ज्ञान का उपसंहार है, जिसे मोक्ष सन्यास के रूप में जाना जाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म के महत्व को फिर से रेखांकित किया है।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।। (18/47)
यदि कोई आपके धर्म को गुण रहित बताता है, लाभ या भय दिखाता है तब भी अपने ही धर्म को श्रेष्ठ समझना चाहिए। दूसरे धर्म के पालन से अपने धर्म में मरना श्रेष्ठ है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का संदेश व्याख्या बहुत व्यापक है। इसमें मानव जीवन की लौकिक और अलौकिक दोनों के लिए आवश्यक कर्म कर्त्तव्य शामिल हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार जीवन केवल मनुष्य का ही नहीं अपितु संपूर्ण सृष्टि, प्रकृति और प्राणी जगत भी शामिल है। प्राणी और प्रकृति एक दूसरे के अनुपूरक हैं। एक दूसरे के बिना एक दूसरे की जीवन यात्रा अपूर्ण होती है। जब यह अनुपूरकता उनकी पूरी जीवन यात्रा में भी होनी चाहिए। तभी प्राणी और प्रकृति दोनों दीर्घजीवी होंगे। सृष्टि की समृद्धि से ही हमारी और आने वाली पीढ़ियों का जीवन सुखद होगा। इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन विकास के साथ संपूर्ण संसार के सुखमय जीवन के लिए भी कर्मशील रहे। इसके लिए स्वयं की प्रतिभा, क्षमता और विशिष्टता के साथ कर्म, कर्त्तव्य आवश्यक है। पूर्ण पुरुषार्थ और परिश्रम से किए गए कार्य से ही वह स्वयं और संसार समृद्ध होगा।