लखनऊ, 27 मार्च 2025, गुरुवार। उत्तर प्रदेश की सियासत में बयानबाजी का तड़का कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बार समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव और यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के बीच की जुबानी जंग ने एक नया रंग ले लिया है। अखिलेश के ताज़ा “दुर्गंध वाले बयान” ने जहां बीजेपी को निशाने पर लिया, वहीं केशव ने इसे मौके की तरह भुनाते हुए जोरदार पलटवार किया। यह सियासी ड्रामा अब केवल राजनीति नहीं, बल्कि संस्कृति, जड़ों और समाज से जुड़ाव का मसला बन गया है। आइए, इस रोचक टकराव को करीब से देखें।
अखिलेश का “दुर्गंध” वाला तंज
हाल ही में कन्नौज में एक जनसभा को संबोधित करते हुए अखिलेश यादव ने बीजेपी पर हमला बोलते हुए कहा, “ये जो बीजेपी के लोग हैं, इन्हें दुर्गंध पसंद है, इसलिए गौशाला बनवा रहे हैं। हम तो सुगंध पसंद करते हैं, इसलिए इत्र पार्क बनाते हैं।” उनका इशारा साफ था—बीजेपी की नीतियों को नकारात्मकता और अव्यवस्था से जोड़ना, जबकि समाजवादी पार्टी को विकास और खुशहाली का प्रतीक बताना। कन्नौज, जो इत्र के लिए मशहूर है, वहां यह बयान स्थानीय भावनाओं को भुनाने की कोशिश भी माना जा सकता है। लेकिन इस तंज ने बीजेपी को मौका दे दिया कि वे इसे हिंदू संस्कृति और गौमाता के अपमान से जोड़कर पेश करें।
केशव का करारा जवाब
अखिलेश के बयान पर यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने देर नहीं लगाई। उन्होंने तुरंत पलटवार करते हुए कहा, “किसान, खासकर ग्वाल के बेटे को अगर गाय के गोबर से दुर्गंध आने लगे, तो समझना चाहिए कि वह अपनी जड़ों और समाज से पूरी तरह कट चुका है।” केशव ने मशहूर साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद का हवाला देते हुए यह भी जोड़ा, “प्रेमचंद ने लिखा था कि अगर किसान के बेटे को गोबर से दुर्गंध आने लगे, तो अकाल तय है।” उनका यह जवाब न सिर्फ अखिलेश पर व्यक्तिगत हमला था, बल्कि समाजवादी पार्टी की विचारधारा को भी कठघरे में खड़ा करने की कोशिश थी। केशव ने इसे और आगे बढ़ाते हुए कहा कि अखिलेश की यह टिप्पणी गौभक्तों को आहत करने वाली है और इसके लिए उन्हें माफी मांगनी चाहिए, वरना सपा का “सफाया” तय है।
सियासत में संस्कृति की एंट्री
यह पूरा विवाद अब केवल राजनीतिक बयानबाजी तक सीमित नहीं रहा। अखिलेश का बयान जहां बीजेपी को गौशाला और सांडों के मुद्दे पर घेरने की कोशिश थी, वहीं केशव ने इसे गाय, गोबर और हिंदू संस्कृति से जोड़कर एक भावनात्मक मुद्दा बना दिया। गाय को सनातन धर्म में माता का दर्जा प्राप्त है, और गोबर को पारंपरिक रूप से औषधीय और पवित्र माना जाता है। ऐसे में अखिलेश का “दुर्गंध” वाला बयान बीजेपी के लिए एक सुनहरा मौका बन गया, जिसे वे सनातन संस्कृति के अपमान के तौर पर पेश कर रहे हैं। दूसरी ओर, अखिलेश का तर्क है कि उनकी बात को गलत संदर्भ में पेश किया जा रहा है और यह बीजेपी की नाकामियों से ध्यान हटाने की चाल है।
सुगंध और दुर्गंध का सियासी खेल
इस टकराव में “सुगंध बनाम दुर्गंध” एक प्रतीक बन गया है। अखिलेश जहां कन्नौज के इत्र को सुगंध के रूप में पेश कर अपनी सरकार के काम को याद दिलाना चाहते हैं, वहीं केशव गौशाला को गर्व का विषय बताकर बीजेपी की गरीब और किसान हितैषी छवि को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इस बीच जनता के असल मुद्दे—रोजगार, विकास, कानून व्यवस्था—कहीं पीछे छूटते नजर आ रहे हैं। सवाल यह है कि क्या यह बयानबाजी केवल वोटों की राजनीति है, या वाकई दोनों नेता अपनी-अपनी विचारधारा को लेकर गंभीर हैं?
जनता क्या सोचती है?
उत्तर प्रदेश की राजनीति में भावनाएं और प्रतीक हमेशा से अहम रहे हैं। अखिलेश का बयान जहां उनके समर्थकों के लिए बीजेपी पर तंज का एक और मौका है, वहीं बीजेपी इसे ग्रामीण मतदाताओं और गौभक्तों के बीच भुनाने की कोशिश कर रही है। सोशल मीडिया पर भी यह बहस छिड़ी हुई है—कोई इसे अखिलेश की “संस्कारहीनता” बता रहा है, तो कोई केशव के जवाब को “नाटकबाजी” करार दे रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि यह सियासी जंग 2027 के विधानसभा चुनावों की जमीन तैयार कर रही है, जहां हर बयान एक हथियार बन सकता है।
अखिलेश और केशव की यह ताज़ा तकरार न सिर्फ राजनीतिक मंचों, बल्कि आम जनमानस में भी चर्चा का विषय बन गई है। “दुर्गंध” और “सुगंध” के इस खेल में कौन बाजी मारेगा, यह तो वक्त बताएगा। लेकिन इतना तय है कि उत्तर प्रदेश की सियासत में यह नया अध्याय आने वाले दिनों में और रंग भरेगा। क्या अखिलेश अपने बयान पर सफाई देंगे या केशव की माफी की मांग पूरी होगी? फिलहाल, यह सवाल हवा में तैर रहा है, और जनता इस ड्रामे को देखने के लिए तैयार बैठी है।