नई दिल्ली, 9 अगस्त 2025: रक्षा और बंधन, ये दो शब्द जीवन के हर क्षेत्र में एक-दूसरे के पूरक हैं। रक्षा का आश्वासन तभी संभव है, जब व्यक्ति और समाज बंधनों को स्वीकार करें। ये बंधन अनुशासन, मर्यादा और कर्तव्य के रूप में हमारे जीवन को दिशा देते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि बिना बंधन के रक्षा का कोई आधार नहीं, जैसे नदी अपने तटों के बंधन में रहकर ही जीवनदायिनी बनती है, वैसे ही समाज नियमों और मर्यादाओं के बंधन में रहकर ही सुरक्षित और समृद्ध हो सकता है।
रक्षा का अर्थ केवल बाहरी सुरक्षा तक सीमित नहीं है। यह आंतरिक संयम और अनुशासन से भी जुड़ा है। चाहे सैनिक हो, पुलिसकर्मी हो, गुरु हो या अभिभावक, रक्षक का धर्म तभी सार्थक होता है, जब वह अपने आदर्शों और प्रतिज्ञाओं का पालन करता है। विशेषज्ञों के अनुसार, जिस क्षण रक्षक अपने कर्तव्यों से विचलित होता है, उसकी रक्षा-शक्ति कमजोर पड़ने लगती है।
रक्षाबंधन का पर्व इस सत्य को और गहराई से रेखांकित करता है। यह केवल भाई-बहन के पवित्र रिश्ते का प्रतीक नहीं, बल्कि जीवन में मर्यादा और सुरक्षा के सह-अस्तित्व का उत्सव है। इस पर्व के माध्यम से समाज को यह संदेश मिलता है कि रक्षा और बंधन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रक्षक के लिए सत्य, कर्तव्य और त्याग बंधन हैं, तो संरक्षित के लिए विश्वास, अनुशासन और सहयोग।
दार्शनिक और सामाजिक विश्लेषकों का कहना है कि रक्षा की चाह रखने वाले समाज को बंधनों को सहजता से अपनाना होगा। बंधन कोई बाधा नहीं, बल्कि वह कवच है, जो हमारे भविष्य को सुरक्षित रखता है। बंधन को त्यागकर रक्षा की कल्पना करना उतना ही असंभव है, जितना तटों को तोड़कर नदी से जीवन की अपेक्षा करना।
इस रक्षाबंधन पर देशवासियों से अपील है कि वे अनुशासन और मर्यादा के बंधनों को अपनाएं, क्योंकि यही बंधन हमारी रक्षा का सबसे मजबूत आधार हैं।