रायपुर, 6 जून 2025, शुक्रवार: छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में, जहां कभी नक्सलियों का राज चलता था, अब सुरक्षा बलों का परचम लहरा रहा है। 21 मई 2025 को नक्सल संगठन के सरगना बसवा राजू और 5 जून 2025 को कुख्यात नक्सली सुधाकर के एनकाउंटर ने माओवादी आंदोलन को तगड़ा झटका दिया है। ये दोनों इनामी नक्सली, जिनके सिर पर करोड़ों रुपये का इनाम था, अब इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं। यह केवल सैन्य जीत नहीं, बल्कि भारत सरकार की रणनीति और सुरक्षा बलों के साहस का प्रतीक है, जो नक्सलवाद को जड़ से उखाड़ने की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है।
बसवा राजू: लाल आतंक का मास्टरमाइंड
सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य और महासचिव नंबाला केशव राव उर्फ बसवा राजू का नाम सुनकर पांच राज्यों की पुलिस के पसीने छूटते थे। 1.5 करोड़ रुपये के इनामी इस नक्सली ने 35 साल तक संगठन को अपनी रणनीतियों से मजबूती दी। हथियारों की सप्लाई, विदेशी संपर्क, और IED व गुरिल्ला युद्ध में माहिर बसवा राजू लाल आतंक का रणनीतिक दिमाग था।
21 मई को नारायणपुर के अबूझमाड़ जंगल में ‘ऑपरेशन कगार’ ने इस ‘लाल सम्राट’ का अंत कर दिया। डीआरजी, एसटीएफ और सीआरपीएफ की संयुक्त टीमों ने चार जिलों की खुफिया जानकारी के आधार पर किलरकोट पहाड़ी पर नक्सलियों को घेर लिया। घने जंगलों और बांस के कवर में ड्रोन की नाकामी के बावजूद, सुरक्षा बलों ने बसवा राजू सहित 27 नक्सलियों को ढेर कर दिया। मुठभेड़ स्थल से तीन एके-47, छह इंसास राइफल्स, रॉकेट लांचर और भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद हुए, जो नक्सलियों की आधुनिक युद्ध क्षमता को दर्शाते हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसे ‘तीन दशकों में पहली बार महासचिव स्तर के नक्सली का खात्मा’ करार दिया।
सुधाकर का अंत: नक्सलियों को दूसरा झटका
बसवा राजू के बाद 5 जून को बीजापुर के इंद्रावती टाइगर रिजर्व में नक्सलियों को एक और करारा प्रहार मिला। 1 करोड़ रुपये के इनामी और केंद्रीय समिति के सदस्य सुधाकर को डीआरजी, एसटीएफ और कोबरा कमांडोज ने खुफिया सूचना के आधार पर मार गिराया। 30 साल से संगठन की सैन्य और रणनीतिक गतिविधियों को संभालने वाला सुधाकर नक्सलियों का अहम स्तंभ था। उसका खात्मा न केवल संगठन की नेतृत्व क्षमता को कमजोर करता है, बल्कि नक्सलियों में दहशत भी फैलाता है।
नक्सलवाद: हिंसा की राह पर
1967 में नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ माओवादी आंदोलन कभी वैचारिक क्रांति का प्रतीक था, लेकिन समय के साथ यह हिंसा का पर्याय बन गया। 2004 में सीपीआई (माओवादी) के गठन ने इसे और संगठित और खतरनाक बनाया। 2009 में 223 जिलों में फैले नक्सलियों ने 2258 हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया। 2010 का दंतेवाड़ा नरसंहार और 2013 का झीरम घाटी हमला बसवा राजू जैसे नेताओं की क्रूर रणनीतियों का नतीजा था।
सरकार की दोहरी रणनीति ने बदला खेल
भारत सरकार की सैन्य और विकासात्मक रणनीति ने नक्सलवाद को घुटनों पर ला दिया है। 2014 से 2024 तक नक्सल हिंसा में 70% कमी आई, प्रभावित जिले 126 से घटकर 12 रह गए, और सुरक्षा बलों की हताहत संख्या 73% कम हुई। ‘ऑपरेशन प्रहार’, ‘ऑपरेशन कगार’ और ‘ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट’ जैसे अभियानों ने नक्सलियों के गढ़ को ध्वस्त किया। वहीं, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़क, स्कूल, अस्पताल और आदिवासी विकास योजनाओं ने नक्सलियों के प्रचार को कमजोर किया। एनआईए और ईडी ने उनकी फंडिंग पर भी शिकंजा कसा।
नक्सलवाद की अंतिम सांसें
बसवा राजू और सुधाकर के खात्मे ने नक्सल संगठन को नेतृत्व संकट में डाल दिया है। गणपति जैसे बचे-खुचे नेता अब कमजोर पड़ चुके हैं। 54 नक्सलियों की गिरफ्तारी और 84 के सरेंडर ने संगठन को और कमजोर किया है। सुरक्षा बलों की नजर 15 शीर्ष नक्सलियों पर है, जिन पर 8.4 करोड़ रुपये का इनाम है।
नक्सल-मुक्त भारत की ओर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 तक नक्सल-मुक्त भारत का संकल्प लिया है। अबूझमाड़ जैसे दुर्गम क्षेत्रों में सुरक्षा बलों की पहुंच और स्थानीय लोगों का बढ़ता विश्वास इस सपने को साकार कर रहा है। बसवा राजू और सुधाकर का अंत इस बात का सबूत है कि लाल आतंक का सूरज अब डूब चुका है, और नक्सलवाद जल्द ही इतिहास की किताबों तक सिमट जाएगा।