नई दिल्ली, 27 जुलाई 2025: आज, जब हम दक्षिण भारत के गौरवशाली इतिहास में झांकते हैं, तो चोल साम्राज्य की कहानी हमें एक ऐसी दुनिया में ले जाती है, जहां समुद्री शक्ति, कला, संस्कृति और व्यापार का अनूठा संगम था। यह कहानी न केवल भारत की, बल्कि विश्व इतिहास की एक स्वर्णिम गाथा है, जिसने इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे सुदूर क्षेत्रों तक अपनी छाप छोड़ी। राजेंद्र चोल प्रथम की जयंती पर, जब पीएम मोदी ने गंगैकोंडा चोलपुरम के भव्य मंदिर में आयोजित विशेष समारोह में हिस्सा लिया, तो यह अवसर हमें उस गौरवशाली युग की याद दिलाता है। पीएम मोदी ने अपने संबोधन में कहा, “यह राज राजा की श्रद्धा भूमि है। आज का वातावरण, ‘ॐ नमः शिवाय’ की गूंज और शिव दर्शन की ऊर्जा मन को भावविभोर कर देती है।” यह भावना उस चोल साम्राज्य की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गहराई को दर्शाती है, जिसने न केवल भारत, बल्कि पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया को अपने वैभव से रोशन किया।
चोल साम्राज्य: एक प्राचीन सुपरपावर
9वीं से 13वीं शताब्दी तक तमिलनाडु की कावेरी नदी के डेल्टा में फलने-फूलने वाला चोल साम्राज्य एक ऐसी शक्ति था, जिसने सैन्य कुशलता, प्रशासनिक दूरदर्शिता और सांस्कृतिक समृद्धि के बल पर विश्व मंच पर अपनी पहचान बनाई। संगम युग (300 ई.पू. से 300 ई.) से शुरू होकर, चोलों ने तमिल साहित्य और संस्कृति को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। संगम साहित्य में ‘किल्लि’ और ‘वलवन’ जैसे चोल शासकों का उल्लेख मिलता है, जो उनकी प्रारंभिक शक्ति का प्रतीक है। हालांकि, कुछ समय के लिए पल्लवों और पांड्यों के उदय ने चोलों को पीछे धकेला, लेकिन 9वीं शताब्दी में विजयालय चोल ने तंजावुर को अपनी राजधानी बनाकर इस राजवंश को पुनर्जनन दिया। मुथरैयरों को हराकर उन्होंने चोल साम्राज्य के पुनरुत्थान की नींव रखी।
राजराज चोल और राजेंद्र चोल: वैभव का स्वर्ण युग
चोल साम्राज्य का असली वैभव राजराज चोल प्रथम (985-1014 ई.) और उनके पुत्र राजेंद्र चोल प्रथम (1014-1044 ई.) के शासनकाल में अपने चरम पर पहुंचा। राजराज चोल ने पांड्य, चेर और श्रीलंका के उत्तरी हिस्से पर विजय प्राप्त की। उन्होंने चालुक्यों को चुनौती दी और कर्नाटक के कुछ हिस्सों पर कब्जा किया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी एक शक्तिशाली नौसेना का निर्माण, जिसने मालदीव पर विजय प्राप्त की और समुद्री व्यापार मार्गों को सुरक्षित किया। तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर, जो आज यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है, उनकी वास्तुकला और सांस्कृतिक दृष्टि का प्रतीक है। इस मंदिर का विशाल शिवलिंग, भव्य गोपुरम और उत्कृष्ट मूर्तिकला द्रविड़ कला का बेजोड़ नमूना है।
राजेंद्र चोल ने अपने पिता की विरासत को और भी ऊंचाइयों तक ले गए। उन्होंने पूरे श्रीलंका पर कब्जा किया और गंगा नदी तक सैन्य अभियान चलाकर ‘गंगैकोंड चोल’ की उपाधि अर्जित की। गंगैकोंडचोलपुरम में उन्होंने एक नई राजधानी और भव्य मंदिर बनवाया। लेकिन उनकी सबसे साहसिक उपलब्धि थी 1025 ई. में श्रीविजय साम्राज्य (आधुनिक इंडोनेशिया और मलेशिया) पर नौसैनिक हमला। चोल नौसेना ने श्रीविजय की राजधानी कदरम पर कब्जा कर समुद्री व्यापार पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। यह अभियान न केवल उनकी सैन्य शक्ति, बल्कि व्यापारिक दूरदर्शिता का भी प्रतीक था।
व्यापार और संस्कृति का वैश्विक केंद्र
चोल साम्राज्य केवल सैन्य शक्ति तक सीमित नहीं था। नागपट्टिनम और कावेरीपट्टिनम जैसे बंदरगाहों के जरिए चोलों ने अरब, चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापारिक नेटवर्क स्थापित किया। मसाले, रत्न, कपड़ा और हाथी दांत जैसे उत्पादों का निर्यात उनकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ था। उनकी नौसेना ने समुद्री डाकुओं से व्यापार मार्गों की रक्षा की, जिससे चोल साम्राज्य वैश्विक व्यापार का केंद्र बन गया।
चोलों की प्रशासनिक व्यवस्था भी उन्नत थी। राजा सर्वोच्च शासक था, लेकिन गांवों को स्वायत्तता दी गई थी। ग्राम सभाएं और मंदिर समितियां स्थानीय स्तर पर प्रशासन और न्याय का संचालन करती थीं। भूमि सर्वेक्षण और कर संग्रह को व्यवस्थित करने में चोल अग्रणी थे। समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित था, लेकिन व्यापारियों और कारीगरों को भी सम्मान प्राप्त था।
सांस्कृतिक और आध्यात्मिक योगदान
चोल मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक गतिविधियों के केंद्र थे। बृहदीश्वर, गंगैकोंडचोलपुरम और दरासुरम के ऐरावतेश्वर मंदिर द्रविड़ वास्तुकला की कालजयी कृतियां हैं। नटराज की कांस्य मूर्तियां और भित्तिचित्र विश्व प्रसिद्ध हैं। चोल काल में तमिल साहित्य का स्वर्ण युग था, जिसमें कंबन की ‘कंब रामायणम’ और ‘तिरुक्कुरल’ जैसे ग्रंथों को संरक्षण मिला। शैव धर्म को प्राथमिकता देने के बावजूद, चोलों ने वैष्णव, जैन और बौद्ध धर्मों को भी बढ़ावा दिया।
चोल साम्राज्य का पतन और अमर विरासत
13वीं शताब्दी में उत्तराधिकार विवाद और कमजोर शासकों के कारण चोल साम्राज्य कमजोर पड़ गया। पांड्यों और होयसलों के हमलों ने इसे और अस्थिर किया, और 1279 ई. में राजेंद्र चोल तृतीय के शासन के बाद यह साम्राज्य समाप्त हो गया। लेकिन चोलों की विरासत आज भी जीवित है। उनके मंदिर, शिलालेख और व्यापारिक नेटवर्क उनकी महानता की गवाही देते हैं। चोलों की स्थानीय स्वशासन व्यवस्था आधुनिक भारत के पंचायती राज की प्रेरणा बनी, और उनकी वैश्विक व्यापारिक नीतियां आज के भारत के आर्थिक इतिहास का आधार हैं।
एक प्रेरणादायक गाथा
चोल साम्राज्य की कहानी केवल सैन्य विजयों या भव्य मंदिरों तक सीमित नहीं है। यह एक ऐसी सभ्यता की कहानी है, जिसने समुद्र को लांघकर, संस्कृतियों को जोड़ा और विश्व मंच पर भारत का परचम लहराया। राजराज चोल और राजेंद्र चोल जैसे शासकों ने न केवल साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि कला, साहित्य और प्रशासन में भी अमिट छाप छोड़ी। आज जब हम उनके मंदिरों में प्रवेश करते हैं या उनके शिलालेखों को पढ़ते हैं, तो वह गौरवशाली युग जीवंत हो उठता है। चोल साम्राज्य हमें सिखाता है कि साहस, दृष्टि और संस्कृति के बल पर कोई भी सभ्यता विश्व को प्रेरित कर सकती है।