राज राजेश्वर शिव की नगरी काशी में देव दीपावली पर देव स्वयं धरा पर उतर आते हैं। सात नवंबर को काशी में देव दीपावली मनाई जाएगी। घाट से लेकर गलियों में जन जन का उत्साह अलग स्वरूप में नजर आता है। मान्यता है कि काशीपुराधिपति कार्तिक पूर्णिमा पर स्वयं सभी देवी देवताओं के साथ गंगा तट पर दीपदान करने आते हैं। इसलिए भी इसको देवदीपावली कहा जाता है। काशी के अर्द्ध चंद्राकार घाट जब दीपों का हार पहनकर प्रज्ज्वल होते हैं तो इस स्वर्गिक आभा का दर्शन एक अद्भुत अनुभूति कराता है।
काशी विद्वत कर्मकांड परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष आचार्य अशोक द्विवेदी ने बताया कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध करके देवराज इंद्र को स्वर्ग का राज्य वापस दिलाया था। तारकासुर के वध के बाद उसके तीनों बेटों ने देवताओं से बदला लेने का फैसला कर लिया। उन्होंने ब्रह्मा जी की तपस्या करके तीन पुर मांगे और कहा की जब यह तीनों पर जब अभिजित नक्षत्र में एक साथ आ जाएं तब असंभव व्रत, असंभव बाण से बिना क्रोध किए हुए ही उनका वध हो सकेगा। उन्होंने देवताओं को परेशान करना शुरू कर दिया और उन्हें स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। सभी देवी देवता त्रिपुरासुर से बचने के लिए भगवान शिव की शरण में पहुंचे। देवताओं का कष्ट दूर करने के लिए भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया। इस खुशी में सभी देवी देवता भगवान शिव की नगर काशी में पधारे और दीप दान किया। माना जाता है तभी से काशी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव दीपावली मनाने की परंपरा चली आ रही है।
दीपदान से होती है मोक्ष की प्राप्ति
काशी विद्वत परिषद के महामंत्री डॉ. रामनारायण द्विवेदी ने बताया कि माना जाता है कि चतुर्दशी के दिन भगवान शिव और सभी देवी देवता काशी में आकर दीप जलाते हैं। भगवान साक्षात इस दौरान काशी को पावन धरा पर मौजूद रहते हैं तो ऐसे में यदि इस दिन कोई व्यक्ति सच्चे मन से काशी में जाकर दीप जलाता है और भगवान से प्रार्थना करता है तो उसके जीवन की सभी इच्छाएं पूर्ण होती है और मृत्यु के बाद उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
ज्योतिषाचार्य विमल जैन ने बताया कि नदी, घाट और सरोवरों पर दीप जलाने की मान्यता मत्स्यावतार से भी जुड़ी है। पौराणिक मान्यता है कि इस दिन देवाधिदेव महादेव ने त्रिपुरासुर राक्षस का वध किया था तथा शिव जी के आशीर्वाद से दुर्गा रुपी पार्वती जी ने महिषासुर का वध करने के लिए सभी देवी देवताओं से शक्ति अर्जित की थी। मान्यता है कि इस दिन सायं काल भगवान श्री विष्णु भी मत्स्य अवतार के रूप में अवतरित हुए थे।
ज्योतिषाचार्य दैवज्ञ कृष्ण शास्त्री ने बताया कि ब्रह्म मुहूर्त में उठकर निवृत्त होकर अपने आराध्य देवी देवता की पूजा अर्चना के पश्चात कार्तिक पूर्णिमा के व्रत का संकल्प लेना चाहिए। स्नान करके देव दर्शन करके आकर्षक दीपमालिका सजाने की परंपरा है। नदियों और सरोवरों में इस दिन दीपदान किया जाता है। आज के दिन पीपल और तुलसी के वृक्षों का दीपक जला कर उनका पूजन किया जाता है। इस दिन प्रतीक के रूप में दान का भी विधान है। फ लाहार ग्रहण करके श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा से अभीष्ट की प्राप्ति होती है। धर्म शास्त्रों में कार्तिक पूर्णिमा के दिन किए गए दान का फल यज्ञ के समान बताया गया है।