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Monday, March 31, 2025

नेपाल में राजशाही की मांग: काठमांडू में हिंसा और इतिहास का पुनर्जनन

नई दिल्ली, 29 मार्च 2025, शनिवार। नेपाल, एक ऐसा देश जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है, आजकल एक अलग कारण से सुर्खियों में है। पिछले कुछ समय से यहां राजशाही की बहाली की मांग तेज होती जा रही है, और यह आंदोलन अब हिंसक रूप ले चुका है। शुक्रवार, 28 मार्च 2025 को राजधानी काठमांडू की सड़कों पर इस मांग ने एक नया मोड़ लिया, जब पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह के समर्थकों और पुलिस के बीच हिंसक झड़प हुई। इस दौरान प्रदर्शनकारियों ने न केवल पथराव किया, बल्कि एक इमारत में तोड़फोड़ मचाई और उसे आग के हवाले कर दिया। यह घटना नेपाल के राजनीतिक परिदृश्य में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रही है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि 2008 में खत्म हो चुकी राजशाही की मांग फिर से जोर पकड़ रही है? आइए, इस मुद्दे की गहराई में उतरते हैं।

राजशाही का इतिहास और उसका अंत

नेपाल में राजशाही का इतिहास 240 साल से भी पुराना है। यह देश लंबे समय तक एक हिंदू राजशाही के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए था। लेकिन 2006 में जनता का एक बड़ा आंदोलन उभरा, जिसने तत्कालीन राजा ज्ञानेंद्र शाह को सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। कई हफ्तों तक चले इस विरोध के बाद, 2008 में नेपाल की संसद ने राजशाही को औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया और देश को एक धर्मनिरपेक्ष, संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया। यह एक ऐतिहासिक कदम था, जिसने नेपाल को आधुनिक युग में प्रवेश कराया। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह सवाल उठने लगा है कि क्या यह बदलाव वास्तव में जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरा?

असंतोष की जड़ें

2008 के बाद से नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता कोई नई बात नहीं रही। पिछले 17 वर्षों में देश में 13 सरकारें बदल चुकी हैं। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आर्थिक संकट और बार-बार होने वाले सत्ता परिवर्तन ने जनता के एक बड़े वर्ग में असंतोष पैदा किया है। विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा गणतांत्रिक व्यवस्था के प्रति बढ़ती निराशा ही राजशाही की मांग को फिर से जन्म दे रही है। इसके अलावा, कई समूहों का यह भी दावा है कि धर्मनिरपेक्षता ने नेपाल की हिंदू पहचान को कमजोर किया है। उनके अनुसार, राजशाही न केवल स्थिरता लाएगी, बल्कि देश को उसकी मूल सांस्कृतिक जड़ों से फिर से जोड़ेगी।

28 मार्च 2025: काठमांडू में हिंसा का दिन

28 मार्च 2025 को काठमांडू में जो कुछ हुआ, वह इस आंदोलन का सबसे हिंसक प्रदर्शन था। हजारों राजशाही समर्थक सड़कों पर उतरे, जिनके हाथों में नेपाल का राष्ट्रीय ध्वज और पूर्व राजा ज्ञानेंद्र की तस्वीरें थीं। “राजा आओ, देश बचाओ”, “भ्रष्ट सरकार मुर्दाबाद” और “हमें राजशाही चाहिए” जैसे नारे गूंज रहे थे। प्रदर्शनकारी तिनकुने इलाके में जमा हुए और जल्द ही स्थिति बेकाबू हो गई। पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन समर्थकों ने बैरिकेड तोड़ने की कोशिश की और पथराव शुरू कर दिया। जवाब में पुलिस ने आंसू गैस और रबर की गोलियां चलाईं। इस हिंसक टकराव में प्रदर्शनकारियों ने एक इमारत में तोड़फोड़ की और उसे आग लगा दी। कई वाहनों और संपत्तियों को भी नुकसान पहुंचाया गया। इस झड़प में दो लोगों की मौत हो गई, जबकि दर्जनों घायल हुए। हालात को काबू में करने के लिए काठमांडू के कई इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया और सेना को तैनात करना पड़ा।

पूर्व राजा का प्रभाव

इस आंदोलन में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 19 फरवरी 2025 को लोकतंत्र दिवस के मौके पर उन्होंने एक वीडियो संदेश जारी कर जनता से समर्थन मांगा था। इसके बाद से ही राजशाही समर्थकों में एक नई ऊर्जा देखी गई। मार्च की शुरुआत में जब ज्ञानेंद्र धार्मिक यात्रा से काठमांडू लौटे, तो हवाई अड्डे पर उनके स्वागत में हजारों लोग जुटे। कुछ समर्थकों ने उनकी तस्वीरों के साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तस्वीरें भी प्रदर्शित कीं, जो नेपाल में हिंदू राष्ट्र की मांग को और बल देता है। ज्ञानेंद्र के समर्थक उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में देखते हैं जो देश को अराजकता से बचा सकता है।

दो धड़ों का टकराव

काठमांडू में जहां राजशाही समर्थक अपनी मांग को लेकर हिंसा पर उतर आए, वहीं गणतंत्र समर्थक भी पीछे नहीं रहे। समाजवादी मोर्चा के नेतृत्व में हजारों लोग भृकुटीमंडप इलाके में जुटे और “गणतंत्र जिंदाबाद” व “राजशाही मुर्दाबाद” के नारे लगाए। उनका कहना है कि गणतंत्र के लिए लंबा संघर्ष किया गया है और इसे किसी भी कीमत पर खत्म नहीं होने दिया जाएगा। इस टकराव ने नेपाल को दो धड़ों में बांट दिया है—एक जो अतीत की ओर लौटना चाहता है और दूसरा जो वर्तमान व्यवस्था को बचाने के लिए लड़ रहा है।

क्या संभव है राजशाही की वापसी?

राजशाही की बहाली की मांग को लेकर भावनाएं भले ही प्रबल हों, लेकिन इसकी संभावना कई चुनौतियों से घिरी है। संवैधानिक बदलाव के लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत की जरूरत है, जो वर्तमान में किसी भी राजशाही समर्थक दल के पास नहीं है। राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (RPP), जो इस मांग का प्रमुख समर्थक है, के पास संसद में महज 5% सीटें हैं। इसके अलावा, सरकार और मुख्यधारा की पार्टियां इस आंदोलन का कड़ा विरोध कर रही हैं। फिर भी, जनता का एक वर्ग मौजूदा व्यवस्था से इतना असंतुष्ट है कि वह राजशाही को एक विकल्प के रूप में देख रहा है।

आगे की राह

नेपाल इस समय एक नाजुक मोड़ पर खड़ा है। काठमांडू की हिंसा ने यह साफ कर दिया है कि देश में गहरी असहमति और अस्थिरता मौजूद है। अगर सरकार जनता की शिकायतों—भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और आर्थिक संकट—को दूर करने में नाकाम रही, तो यह आंदोलन और तेज हो सकता है। दूसरी ओर, राजशाही समर्थकों को भी यह समझना होगा कि इतिहास को पूरी तरह वापस लाना संभव नहीं है। नेपाल के भविष्य का फैसला इस बात पर निर्भर करेगा कि ये दोनों पक्ष संवाद और समाधान की दिशा में कितना आगे बढ़ते हैं।

फिलहाल, काठमांडू की सड़कों पर धुआं और तनाव छाया हुआ है। यह देश अपने अतीत और वर्तमान के बीच फंसा हुआ नजर आ रहा है। क्या नेपाल फिर से राजशाही की ओर मुड़ेगा, या गणतंत्र को मजबूत करने में सफल होगा? यह सवाल समय के साथ ही जवाब देगा। लेकिन एक बात तय है—नेपाल की जनता अब चुप नहीं बैठेगी।

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