नई दिल्ली, 28 मार्च 2025, शुक्रवार। भारत की न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही के सवाल अक्सर चर्चा का विषय बनते हैं। हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट में जस्टिस यशवंत वर्मा से जुड़े एक मामले ने सुर्खियां बटोरीं, जब सुप्रीम कोर्ट के वकील मैथ्यू नेदुम्पारा ने इस मामले में FIR दर्ज करने और व्यापक जांच की मांग को लेकर याचिका दाखिल की। हालांकि, जस्टिस अभय एस. ओक की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस याचिका को “प्री-मैच्योर” (समय से पहले दायर) करार देते हुए खारिज कर दिया। यह मामला न केवल न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता को उजागर करता है, बल्कि आम जनता और कानूनी विशेषज्ञों के बीच एक गहरे मतभेद को भी रेखांकित करता है।
मामला क्या है?
जस्टिस यशवंत वर्मा से संबंधित इस मामले की शुरुआत तब हुई, जब उनके खिलाफ कुछ आरोपों को लेकर सवाल उठे। इन आरोपों की गंभीरता को देखते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने एक इन-हाउस इंक्वायरी शुरू की। यह इंक्वायरी न्यायिक व्यवस्था के भीतर स्व-नियमन का एक हिस्सा है, जिसके तहत किसी जज के खिलाफ लगे आरोपों की प्रारंभिक जांच की जाती है। CJI के इस कदम का मकसद यह सुनिश्चित करना था कि मामले की तह तक पहुंचा जाए और जरूरत पड़ने पर आगे की कार्रवाई तय की जाए।
लेकिन इस प्रक्रिया के बीच वकील मैथ्यू नेदुम्पारा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर इसे पुलिस जांच के दायरे में लाने की मांग की। उनका तर्क था कि अगर इस मामले में कोई वित्तीय लेन-देन या भ्रष्टाचार का आरोप है, तो FIR दर्ज कर पुलिस को जांच करनी चाहिए। नेदुम्पारा ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीन जजों की समिति बनाने का कोई औचित्य नहीं है और यह मामला अब न्यायिक समिति से आगे बढ़कर कानून-व्यवस्था का विषय बन चुका है।
दिल्ली हाई कोर्ट का रुख
दिल्ली हाई कोर्ट ने इस मामले को लेकर साफ रुख अपनाया। जस्टिस अभय एस. ओक की बेंच ने कहा कि जब तक CJI द्वारा शुरू की गई इन-हाउस इंक्वायरी की रिपोर्ट नहीं आती, तब तक इस मामले में हस्तक्षेप करना उचित नहीं है। कोर्ट का मानना था कि याचिका समय से पहले दायर की गई है और मौजूदा स्थिति में कोई आधार नहीं बनता कि इस स्टेज पर कोई निर्णय लिया जाए। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि इंक्वायरी की रिपोर्ट आने के बाद CJI के पास कई विकल्प होंगे, और तब आगे की कार्रवाई पर विचार किया जा सकता है।
इसके साथ ही, कोर्ट ने याचिका का निपटारा कर दिया, लेकिन यह सवाल अनुत्तरित छोड़ दिया कि क्या इस तरह के मामलों में पुलिस जांच की मांग जायज है या नहीं। नेदुम्पारा ने कोर्ट के बाहर यह सवाल उठाया कि “जब पैसा मिलने की बात सामने आई, तो FIR क्यों नहीं दर्ज की गई?” यह सवाल आम जनता के मन में भी गूंज रहा है, जो न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता पर भरोसा चाहता है।
न्यायिक जवाबदेही बनाम स्व-नियमन
यह मामला एक बड़े सवाल को जन्म देता है: क्या न्यायपालिका को अपने भीतर की समस्याओं को हल करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए, या क्या कुछ मामलों में बाहरी जांच एजेंसियों की भूमिका जरूरी है? भारत में न्यायिक स्वतंत्रता एक संवैधानिक मूल्य है, और इन-हाउस इंक्वायरी जैसे तंत्र इसी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए बनाए गए हैं। लेकिन जब ये तंत्र जनता के सवालों का जवाब देने में नाकाम दिखते हैं, तो विश्वास की कमी पैदा होती है।
नेदुम्पारा की याचिका में यह मांग भी थी कि सरकार को न्यायपालिका में भ्रष्टाचार रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए। यह एक ऐसा मुद्दा है, जो लंबे समय से बहस का केंद्र रहा है। क्या पुलिस जांच या सरकारी हस्तक्षेप से न्यायिक स्वतंत्रता पर आंच आएगी? या फिर पारदर्शिता के नाम पर यह जोखिम उठाना जरूरी है?
आगे की राह
फिलहाल यह मामला CJI की इंक्वायरी रिपोर्ट पर टिका हुआ है। रिपोर्ट के नतीजे न केवल जस्टिस यशवंत वर्मा के भविष्य को तय करेंगे, बल्कि यह भी निर्धारित करेंगे कि इस तरह के मामलों में भविष्य में क्या प्रक्रिया अपनाई जाएगी। अगर रिपोर्ट में गंभीर अनियमितताएं सामने आती हैं, तो यह सवाल फिर उठेगा कि क्या पुलिस जांच जरूरी है। वहीं, अगर रिपोर्ट आरोपों को खारिज करती है, तो याचिकाकर्ता और उनके समर्थकों के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल होगा कि न्यायिक प्रक्रिया ने अपना काम पूरा किया।
दिल्ली हाई कोर्ट का यह फैसला एक अधूरी कहानी का अस्थायी अंत है। यह न तो आरोपों की पुष्टि करता है और न ही उन्हें पूरी तरह खारिज करता है। लेकिन यह जरूर दर्शाता है कि न्यायिक प्रक्रिया में धैर्य और संयम की जरूरत होती है। आम जनता के सवालों का जवाब देना और न्यायपालिका में विश्वास बनाए रखना अब CJI और सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है। इस मामले का अगला अध्याय क्या होगा, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन यह साफ है कि यह कहानी अभी खत्म नहीं हुई है।