वाराणसी, 22 मार्च 2025, शनिवार। वाराणसी के प्राचीन दशाश्वमेध घाट के समीप स्थित बड़ी शीतला माता मंदिर में शीतलाष्टमी के पावन अवसर पर भक्ति का अनुपम संगम देखने को मिला। भोर की पहली किरण के साथ ही मंदिर परिसर श्रद्धालुओं की आस्था से सराबोर हो उठा। विशेष रूप से महिलाओं की भारी भीड़ माता के दर्शन और पूजन के लिए उमड़ पड़ी। माता रानी का भव्य श्रृंगार और सुबह की आरती का दृश्य ऐसा था कि हर भक्त का मन श्रद्धा और उल्लास से भर उठा। मंदिर की घंटियों की मधुर ध्वनि और “जय माता शीतला” के जयकारों से पूरा वातावरण गूंजता रहा। जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, दर्शन के लिए श्रद्धालुओं की कतार और लंबी होती गई।
शीतलाष्टमी का यह पर्व माता शीतला के प्रति अगाध विश्वास का प्रतीक है। भक्तजन माता से विभिन्न रोगों और कष्टों से मुक्ति की प्रार्थना करते नजर आए। मंदिर के महंत के नेतृत्व में माता की मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराया गया, फिर नए वस्त्र और आभूषणों से सजाया गया। फूलों की मालाओं से उनका श्रृंगार और भी मनमोहक हो उठा। पुजारियों का कहना है कि ऋतु परिवर्तन के साथ आने वाली बीमारियों से बचाव के लिए माता शीतला की आराधना की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है।
डॉ. मृदुल मिश्र बताते हैं कि शीतलाष्टमी पर माता को बासी भोजन का भोग लगाने की अनूठी परंपरा है, जो शास्त्रों में भी उल्लिखित है। यह भोजन सप्तमी की शाम को तैयार किया जाता है, जिसमें चावल-गुड़ या गन्ने के रस के साथ बनी मिठास और मीठी रोटियां शामिल होती हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, मां शीतला देवी दुर्गा का ही एक स्वरूप हैं और प्रकृति की चिकित्सा शक्ति का प्रतीक मानी जाती हैं। उनका रूप कल्याणकारी है। माता का वाहन गधा है, और उनके हाथों में झाड़ू, कलश, सूप व नीम की पत्तियां शोभायमान रहती हैं। भक्तजन माता से अपने बच्चों और परिवार को चेचक व छोटी माता जैसे रोगों से सुरक्षा की कामना करते हैं। यह पर्व न केवल आस्था का उत्सव है, बल्कि स्वास्थ्य और समृद्धि की आकांक्षा का भी प्रतीक है।