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Saturday, June 28, 2025

निःसन्तान दंपत्तियों ने काशी के लोलार्क कुंड में लगाई ‘कामना की डुबकी’

वाराणसी। लोलार्क कुंड जाने वाला हर मार्ग आस्था की कतारों से पटा रहा। प्रत्येक मार्ग पर करीब डेढ़ किमी लंबी कतार रही। लोलार्क षष्ठी का स्नान सोमवार प्रातः लोलार्केश्वर महादेव की आरती के बाद से शुरू हो गया। संतान प्राप्ति की कामना से देश के विभिन्न भागों से पहुंचे दंपतियों ने कुंड में ‘कामना की डुबकी’ लगा लोलार्केश्वर महादेव व भगवान सूर्य की आराधना कर प्रसाद ग्रहण किया। वहीं कुंड में अपने वस्त्र, एक फल व एक सब्जी छोड़ आजीवन उनके त्याग का संकल्प लिया।

बता दें, सूर्य षष्ठी का व्रत को लोलार्क षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है। ये पर्व भगवान सूर्यदेव की आराधना से संबंध रखता है। 9 सितंबर से 16 दिनों तक काशी के लोलार्क कुंड में स्नान करने का महत्व बताया गया है। इस दिन संतान की प्राप्ति के लिये या संतान की खुशी के लिये सूर्य भगवान के निमित्त व्रत किया जाता है, उनकी पूजा की जाती है और उनके मंत्रों का जाप किया जाता है। इस दिन जो व्यक्ति भक्ति भाव और विधिवत तरीके से सूर्य भगवान की आराधना करते हैं, उन्हें अच्छी संतान और संतान की खुशहाली के साथ ही आरोग्य और धन की प्राप्ति भी होती है। इसके अलावा परिवार में किसी प्रकार की परेशानी नहीं आती और परिवार के लोगों की सुख-समृद्धि बनी रहती है।

लोलार्क षष्ठी से जुड़ी एक पौराणिक कथा है, जिसमें बताया जाता है कि एक बार सूर्य देव ने विद्युन्माली नामक के एक राक्षस का वध कर दिया। वह बड़ा ही शिव भक्त था। उसके वध से भगवान शिव क्रोधित हो गए और सूर्य देव को मारने के लिए त्रिशूल उठा लिया। भगवान शिव के उग्र रूप को देखकर सूर्य देव डर गए और वे भागने लगे। वे शिव की नगरी काशी में आकर रुके, जहां पर उनके रथ का एक पहिया गिर गया। काशी में उनको शिव जी के क्रोध से राहत मिली। जिस स्थान पर सूर्य देव के रथ का पहिया गिरा था, उस स्थान का नाम लोलार्क पड़ गया। यहां पर सूर्य देव को भय से मुक्ति मिली थी, इसलिए हर साल लोलार्क षष्ठी पर लोग यहां स्नान करके अपने रोग और दोष से मुक्ति प्राप्त करते हैं।

काशी खंड के अनुसार भगवान सूर्य ने लोलार्क कुंड पर सैकड़ों वर्ष तक भगवान शिव की आराधना की थी। उन्होंने जो शिवलिंग यहां स्थापित किया उसे लोलार्केश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। स्कंद पुराण के काशी खंड के 32वें अध्याय में उल्लेख है कि माता पार्वती ने स्वयं इस कुंड परिसर में स्थित मंदिर में शिवलिंग की पूजा की थी। आज भी उदय होने वाले सूर्य की पहली किरण इस कुंड में पड़ती है और यहां स्नान मात्र से चर्म रोग दूर होते हैं और संतान कामना पूरी होती है।

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