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Friday, May 16, 2025

हंसमुख उवाच; राजनीति और सर्कस

✍️ वंशीधर चतुर्वेदी ‘हसमुख’ (हास्य कवि, व्यंग्यकार)
एल-2, 1506, शास्त्री नगर, मेरठ।

राजनीति और सर्कस, इनमें काफी समानता है, थोड़ा सा फर्क यह है कि सर्कस में कलाकार जो करतब दिखाता है उसमें जान का जोखिम होता है, लेकिन राजनीति का जो कलाकार नेता होता है वह जान जोखिम का केवल नाटक करता है। सर्कस का कलाकार सीढ़ियां चढ़ता है, राजनीति में भी सीढ़ियां होती हैं जिनसे राजनीति का कलाकार ऊँचाईयों पर पहुँचता है, सर्कस का कलाकार सीढ़ी से ऊँचाईयों पर कलाबाजी, दिखाता है, और राजनीति का कलकार नेता सीढ़ियों से ऊँचाईयों पर पहुंचकर सीढ़ी को ही ऊपर खींच लेता है ताकि कोई दूसरा सीढ़ी से ऊपर न आ जाए।

सर्कस में सांप नहीं होते केवल सीढ़ियां होती है, परन्तु राजनीति में सांप भी होते हैं और सीढ़ियां भी होती हैं, इसलिए राजनीति को सांप-सीढ़ी का खेल भी कहा जाता है। राजनीति रूपी सांप सीढ़ी के खेल में सांप की भूमिका होती है कि जो भी ऊँचाई पर पहुंच जाता है, उसे सांप डसकर वहीं भेज देता है जहाँ से वो चला था, राजनीति और सर्कस दोनों में ही प्रदर्शन है परन्तु दर्शन नहीं है। सर्कस में दर्शक होते है और राजनीति में भी इन दर्शकों को जनता कहा जाता है, यही जनता राजनीति के कलाकार नेताओं का करतब रोजाना देखा करती है। लेकिन सर्कस के करतब देखने का टिकट लगता है परन्तु राजनीति के कलाकार का करतब जनता जनार्दन रोजाना बिना टिकट मुफ्त में देखा करती है।

इसके अतिरिक्त, सर्कस में जोकर होते है, राजनीति में भी जोकर होते हैं। दोनों ही हंसा हंसा कर जनता का मनोरंजन करते है, बस फर्क इतना है कि सर्कस का जोकर मासूम होता है और राजनीति का जोकर बहुत खतरनाक होता है। सर्कस के जोकर का लक्ष्य जनता को हंसाकर उनका मनोरंजन करना होता है जबकि राजनीति के जोकर का लक्ष्य कुर्सी होता है। इसलिए काफी समानताएं होते हुए भी राजनीति और सर्कस एक दूसरे का पर्यायवाची नहीं कहला सकते।

एक समानता राजनीति और सर्कस में यह भी है कि दोनों में ही पशु भी होते हैं। अन्तर सिर्फ यह है कि राजनीति का पशु दो पैर का होता है और सर्कस का पशु चार पैर का। राजनीति का पशु आदमी जैसा दिखता है लेकिन सर्कस का पशु जो है वही दिखता है। राजनीति का पशु अपनी मौलिकता खो चुका होता है। अपनी पहचान भी खो चुका होता है, लेकिन सर्कस का पशु दिखने में अपनी पहचान और अपनी मौलिकता नहीं खोता। सर्कस का पशु वही दिखता है जो वह होता है। सर्कस का पशु अपने परिश्रम से अपना गुजारा करता है घोटालों से नहीं। सर्कस के पशु का तालमेल अपने रिंगमास्टर से होता है, वह जो सर्कस के पशु को सिखाता है सर्कस का पशु उसका भरपूर पालन करता है। लेकिन राजनीति के पशु को जो भी सिखाता हैं वह उसी के लिए भस्मासुर बन जाता है।

राजनीति के पशुओं को बंगला, भत्ता, गाड़ी सब मिलता है लेकिन सर्कस का पशु बड़ा सन्तोषी जीवन जीता है उसकी दुनिया तो बस उसका कटघरा ही होता है। जो भी मिल जाता है उसे प्रसन्नता के साथ खा लेता है। राजनीति का पशु अपने लिए विशेषाधिकारों की अपेक्षा करता है। लेकिन सर्कस का पशु बब्बर शेर अपने रिंग मास्टर से कभी मांग नहीं करता कि मैं जंगल का राजा कहलाता हूँ मुझे विशेष सुविधाएँ मिलनी चाहिए। सर्कस का वह पशु बब्बर शेर सर्कस वालों से तालमेल के बाद वंशवाद के सिद्धान्त का त्याग कर चुका होता है। वह सर्कस की सत्ता को अपना पैदाइशी अधिकार नहीं मानता है बल्कि सेवक बनकर जीवन जीता है।

सर्कस के पशु का शिकार राजनीति का पशु कभी नहीं हुआ लेकिन राजनीति के पशुओं का शिकार सर्कस के पशु अवश्य हुए हैं। सर्कस में काम करने वाले पशु उस समय को अवश्य याद करते है। जब वे सब जंगल में रहा करते थे, वहाँ रहकर वह सब खुशहाली में थे उन्होंने कभी शहरों को नहीं उजाड़ा, लेकिन राजनीति के पशुओं ने सर्कस के पशुओं की वह दुनिया उजाड़ दी जिसको जंगल कहते है। सर्कस में शरण लेकर सर्कस के पशु अपनी मासूमियत को नहीं छोड़ पाए, लेकिन राजनीति के पशुओं ने अपने खतरनाक इरादों को कभी नहीं छोडा।

राजनीति और सर्कस में कुछ प्रमुख असमानताएं भी नजर आती है। राजनीति में चुनाव होते हैं चयन नहीं होता। सर्कस में चयन होता है चुनाव नहीं होते। सर्कस में बिना किसी योग्यता और दक्षता के चाहे वह पशु हो या आदमी, स्त्री हो या पुरुष उसे रिंग में नहीं उतारा जाता है। जबकि राजनीति में योग्यता हो या न हो, दक्षता हो या न हो उसे राजनीति में उतारा जा सकता है। सर्कस का शो केवल तीन घण्टे का होता है लेकिन राजनीति चौबीस घण्टे की होती है। सर्कस में जरा भी भूल होने पर मौत हो जाती है, लेकिन राजनीति में भूल करने वाला इतिहास पुरूष बनकर अमर हो जाता है। सर्कस में चाहे कोई स्त्री-पुरूष कलाकार हो, चाहे करतब दिखाने वाले पशु, उन्हें एकाग्रता और संतुलन बनाकर रखना पड़ता है, परन्तु राजनीति में एकाग्रता और संतुलन को भंग करने का खेल चलता है। सर्कस में क्लेश और हाहाकार नहीं होता लेकिन राजनीति में छाती पीट-पीटकर हाहाकार मचाया जाता है।

सर्कस में स्त्री-पुरूष तथा पशु सभी मिल-जुलकर काम करते हैं उनमें भाषा, प्रान्त, क्षेत्र, तथा अधिकारों को लेकर कभी झगड़ा नहीं होता लेकिन राजनीति का अस्तित्व ही झगड़े पर टिका है। अगर झगड़े न हों तो राजनीति का मतलब क्या? वह अर्थहीन है। सर्कस की बकरी तार पर चलती हैं लेकिन राजनीति का बकरा मतलब बलि का बकरा, वह हमेशा तलवार पर चलता है। सर्कस की बकरी को अपने पर पूरा विश्वास होता है लेकिन राजनीति के बकरे को जरा भी विश्वास नहीं होता। उसे तो तलवार पर चलने के लिए विवश किया जाता है।

अस्तित्व और मूंछ ! राजनीति के ये दोनों महत्वपूर्ण तत्व है। राजनीति में दलों का संयोग-वियोग इसी से शुरू होता है और इसी पर समाप्त हो जाता है, चुनाव के दिनों में इनकी प्रबलता चरम पर होती है। अस्तित्व और मूंछ की तरह राजनीति की एक और महत्वपूर्ण वस्तु है। अस्तित्व तो उसका होता है पर वह मूंछ से ऊपर होती है। इसलिए राजनीति में प्रायः मूछ और नाक की समस्या खड़ी हो जाती है।

परन्तु सर्कस की इस विषय में स्थिति राजनीति से भिन्न है। सर्कस में कलाकार युवतियों के मूंछ होती ही नहीं इसलिए मूंछ के विवाद उठने का प्रश्न ही नहीं उठता। वैसे भी सर्कस में चुनाव नहीं चयन होता है, रही बात नाक की तो वहाँ नाक सभी के होती है, नाक तो सर्कस में अप्रसांगिक ही रहती है।

समानता और असमानता के बावजूद राजनीति का स्वरूप सर्कस की तरह है। राजनीति में कलाबाजियों का दौर जारी रहता है शायद आगे भी जारी रहे, कहा कुछ नहीं जा सकता।

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