नई दिल्ली, 16 मई 2025, शुक्रवार। भारत के संवैधानिक ढांचे में एक नया और रोचक मोड़ तब आया, जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 गहन सवाल पूछकर विधेयकों की मंजूरी की समयसीमा और संवैधानिक प्रक्रियाओं पर औपचारिक राय मांगी। यह मामला तमिलनाडु सरकार की याचिका और सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से उपजा, जिसमें कोर्ट ने राष्ट्रपति को विधेयकों पर तीन महीने में निर्णय लेने का आदेश दिया था। लेकिन क्या अदालतें वाकई राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों पर समयसीमा थोप सकती हैं? राष्ट्रपति के सवालों ने इस बहस को और गहरा कर दिया है।
मामला क्या है?
तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर शिकायत की थी कि राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित रखा जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवाई करते हुए राष्ट्रपति को तीन महीने की समयसीमा में विधेयकों पर फैसला लेने का निर्देश दिया। इस फैसले ने न केवल केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर सवाल खड़े किए, बल्कि संवैधानिक शक्तियों के दायरे और न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाओं पर भी बहस छेड़ दी। जवाब में, राष्ट्रपति मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगी और 14 सवालों की सूची पेश की, जो संवैधानिक व्याख्या और शक्ति संतुलन के मूल में जाते हैं।
राष्ट्रपति के 14 सवाल: संवैधानिक गुत्थी का केंद्र
राष्ट्रपति के सवाल न केवल तकनीकी हैं, बल्कि भारत की संघीय व्यवस्था और शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत को गहराई से छूते हैं। आइए, इन सवालों को संक्षेप में समझें:
राज्यपाल के विकल्प: संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास विधेयकों पर क्या विकल्प हैं? क्या वे स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकते हैं?
मंत्रिपरिषद की सलाह: क्या राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह माननी पड़ती है?
न्यायिक समीक्षा: क्या राज्यपाल के फैसलों की अदालतें जांच कर सकती हैं?
अनुच्छेद 361 का संरक्षण: क्या यह अनुच्छेद राज्यपाल के फैसलों को न्यायिक समीक्षा से पूरी तरह बचाता है?
समयसीमा का सवाल: जब संविधान में कोई समयसीमा नहीं है, तो क्या अदालतें राज्यपाल के लिए समयसीमा तय कर सकती हैं?
राष्ट्रपति के फैसले: क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के फैसलों की समीक्षा हो सकती है?
राष्ट्रपति के लिए समयसीमा: क्या अदालतें राष्ट्रपति के फैसले की समयसीमा तय कर सकती हैं?
सुप्रीम कोर्ट की सलाह: अगर राज्यपाल विधेयक को लंबित रखते हैं, तो क्या सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 143 के तहत राय देनी चाहिए?
लागू होने से पहले सुनवाई: क्या अदालतें राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसलों को लागू होने से पहले रोक सकती हैं?
अनुच्छेद 142 की शक्ति: क्या सुप्रीम कोर्ट इस अनुच्छेद के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों में बदलाव कर सकता है?
राज्य सरकार की शक्ति: क्या राज्यपाल की मंजूरी के बिना राज्य सरकार कानून लागू कर सकती है?
पांच जजों की बेंच: क्या सुप्रीम कोर्ट की छोटी पीठ संवैधानिक व्याख्या के मामलों को बड़ी बेंच को भेजने का फैसला कर सकती है?
संविधान के बाहर आदेश: क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे निर्देश दे सकता है, जो संविधान या कानून से मेल न खाए?
केंद्र-राज्य विवाद: क्या अनुच्छेद 131 के तहत सुप्रीम कोर्ट ही केंद्र और राज्यों के विवाद सुलझा सकता है?
क्यों है यह मामला अहम?
राष्ट्रपति के ये सवाल न केवल कानूनी, बल्कि राजनीतिक और संघीय दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। भारत की संघीय व्यवस्था में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन हमेशा से संवेदनशील रहा है। राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका, जो संवैधानिक रूप से तटस्थ मानी जाती है, कई बार केंद्र-राज्य तनाव का कारण बनती है। सुप्रीम कोर्ट का हालिया आदेश, जिसमें विधेयकों पर समयसीमा तय की गई, ने यह सवाल खड़ा किया कि क्या न्यायपालिका कार्यपालिका की संवैधानिक शक्तियों में हस्तक्षेप कर सकती है।
राष्ट्रपति के सवाल इस बहस को और गहराते हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट समयसीमा तय करने का अधिकार रखता है, तो यह भविष्य में राष्ट्रपति और राज्यपाल की स्वायत्तता को प्रभावित कर सकता है। वहीं, अगर कोर्ट इन सवालों के जवाब में न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाएं तय करता है, तो यह केंद्र-राज्य संबंधों में नया संतुलन स्थापित कर सकता है।
अब सुप्रीम कोर्ट क्या करेगा?
सुप्रीम कोर्ट के सामने अब एक जटिल संवैधानिक चुनौती है। उसे न केवल राष्ट्रपति के सवालों का जवाब देना है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि उसका फैसला संविधान की मूल भावना और शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत को बनाए रखे। संभावना है कि कोर्ट इन सवालों पर सुनवाई के लिए पांच या सात जजों की संवैधानिक पीठ गठित करे, क्योंकि ये सवाल संविधान की व्याख्या से जुड़े हैं।
क्या कोर्ट समयसीमा तय करने के अपने पिछले फैसले पर कायम रहेगा, या वह संविधान में उल्लिखित शक्तियों की स्वायत्तता को प्राथमिकता देगा? क्या वह राज्यपाल और राष्ट्रपति के फैसलों की न्यायिक समीक्षा की सीमाएं स्पष्ट करेगा? इन सवालों के जवाब न केवल इस मामले को, बल्कि भारत की संवैधानिक व्यवस्था के भविष्य को भी आकार देंगे।
इंतजार एक ऐतिहासिक फैसले का
राष्ट्रपति मुर्मू के 14 सवालों ने भारत के संवैधानिक इतिहास में एक नया अध्याय खोल दिया है। यह मामला न केवल कानूनविदों, बल्कि हर उस नागरिक के लिए महत्वपूर्ण है, जो यह समझना चाहता है कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था कैसे काम करती है। सुप्रीम कोर्ट का जवाब न केवल इस विवाद को सुलझाएगा, बल्कि यह भी तय करेगा कि भविष्य में केंद्र, राज्य और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन कैसे बना रहेगा। सभी की निगाहें अब सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं, जहां से आने वाला फैसला इतिहास के पन्नों में दर्ज होगा।