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Monday, June 23, 2025

भानुमती का कुनबा

नरेन्द्र भदौरिया

महाभारत कालीन भारत में एक राज्य था कम्बोज। यह राज्य वर्तमान जम्मू-कश्मीर के चित्राल, बलूचिस्तान, बल्टीस्तान से लेकर एक ओर वर्तमान अफगानिस्तान के गान्धार से जुड़ा था तो दूसरी ओर हिन्दुकुश पर्वत तक बड़े क्षेत्र में विस्तार लिये हुए था। कम्बोज का राजा चन्द्रवर्मा बड़ा योद्धा था। कम्बोज समाज सनातन हिन्दु संस्कृति का कठोरता से पालन करता था। इस सम्पूर्ण क्षेत्र की नारियां आज भी संसार में अपने सौन्दर्य, शारीरिक सौष्ठव और वीरता के लिए जानी जाती हैं। चित्राल ऐसा क्षेत्र है जहाँ की नारियों को सर्वोत्तम सुन्दरी कहा जाता है। इसे काम देवता का प्रभाव क्षेत्र माना जाता था। यहाँ की नारियों और पुरुषों की आयु आज भी बहुत लम्बी होती है। पैसठ से 70 वर्ष आयु की नारियां 30 वर्ष से अधिक की नहीं प्रतीत होतीं।
इस कम्बोज राज्य की राजकुमारी थी भानुमती। वह अपने कालखण्ड में प्रचण्ड वीर होने के साथ अनुपमेय सौन्दर्य की धनी थीं। चन्द्रवर्मा की इस पुत्री के सन्दर्भ में किवदन्तियां प्रचलित है कि इन्द्र की सभा की अप्सराएं उसे देखकर सजना-संवरना सीखने आती थीं। चन्द्रवर्मा और उसके तीन सेनापतियों ने मिलकर भानुमती को सैन्य कौशल में प्रवीण किया था ताकि किसी संकट की स्थिति में वह अपनी रक्षा स्वयं कर सके। एक कथा है कि चन्द्रवर्मा इन्द्र से प्रभावित थे। वह चाहते थे कि भानुमती जब यौवन के शिखर पर हो तो इन्द्र के साथ उसका विवाह किया जाय।
भानुमती ने एक दिन देवराज इन्द्र द्वारा महान ऋषि गौतम की जीवन संगिनी अहिल्या के शील मर्दन की दुखद कथा सुनी। उसका मन इन्द्र के प्रति खिन्न हो गया। फिर माता-पिता के समझाने पर भानुमती ने इन्द्र लोक के वैभव की ओर ताकने से मना कर दिया। ऐसा नहीं कि इन्द्र को इस बात का पता नहीं चला। वस्तुत: चन्द्रवर्मा से एक अप्सरा से इस सन्दर्भ में चर्चा की थी। चन्द्रवर्मा की उत्सुकता के बारे में सुनकर इन्द्र के मन में भानुमती के लालित्य का आकर्षण बैठ गया था। पर कुछ दिनों में उन्होंने कम्बोज की इस राजकुमारी के सन्दर्भ में बातें करना बन्द कर दिया था।
कम्बोज के लिए वह अवसर उपस्थित हुआ जब श्रेष्ठ आचार्यों ने भानुमती के स्वयम्बर का मुहूर्त निकाला। उस कालखण्ड में इन्द्र के बाद यदि किसी के सौन्दर्य और वीरता की चर्चा होती थी तो वह नाम था- कुन्ती पुत्र अर्जुन का। स्वयम्बर के लिए सबसे पहला निमन्त्रण अर्जुन के नाम भेजा गया। चन्द्रवर्मा के विशेष दूत ने युधिष्ठिर से मिलकर इसे सौंपा। अर्जुन उस समय अश्वमेघ यज्ञ के निमित्त भारतवर्ष के हिमालय से जुड़े क्षेत्रों में राजाओं से मिलने और उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए गये थे। स्वयम्बर की तिथि तक उनको सूचना नहीं हो पायी। भानुमती के हृदय में अर्जुन के विशिष्ट गुणों की चर्चा बैठ चुकी थी। उसे तब बहुत कलेश पहुँचा जब स्वयम्बर में अर्जुन के नहीं आये।
चन्द्रवर्मा के मन्त्री ने जो कारण बताया उससे भानुमती अर्जुन के प्रति क्षोभ से भर गयी। यह क्षोभ आंसू बनकर बाहर हो जाता पर उसकी सखियों ने अर्जुन का नाम लेकर कहना शुरू किया कि अभिमान के कारण कुन्ती का तीसरा पुत्र यहाँ नहीं आया। स्वयम्बर के समय विभिन्न राज्यों के राजकुमार उपस्थित थे। हस्तिनापुर का घमण्डी उत्तराधिकारी दुर्योधन अपने कई भाइयों, शकुनि और कर्ण के साथ इस भाव से पहुँचा था कि येन-केन प्रकारेण वह भानुमती को अपनी भार्या बनाएगा।
जयमाल लेकर राजकुमारी जब सभा के मध्य पहुँची तब दुर्योधन से नहीं रहा गया। भानुमती के अवर्णनीय सौन्दर्य से सभा में उपस्थित सभी राजकुमारों और राजाओं की सांसें कुछ पल के लिए ठहर गयी थीं। भानुमती सभा के मध्य सभी के समक्ष जाने को तैयार थी। वह मध्य में खड़ी होकर सभी का आकलन कर रही थी। महामन्त्री को सखियों ने जाकर बताया कि उसे पाने के योग्य कोई राजा प्रतीत नहीं हो रहा। सौन्दर्य के शिखर को निहारते राज पुरुष आकुल हो रहे थे। तभी दुर्योधन ने कर्ण और दुस्साशन से मन्त्रणा की। कर्ण ने संकेतों की भाषा में अपने साथियों को अस्त्र सम्भालने का निर्देश दिया।
उतावले दुर्योधन ने पलक झपकते भानुमती को अपनी प्रबल बांह में जकड़ लिया। भानुमती ने तक्षण अपनी भुजाओं के बल से उसकी पकड़ को निरर्थक कर दिया। भानुमती ने कहा तुमने मेरा स्पर्श कर लिया है। मैं तुम्हारे साथ चलूंगी। पर ध्यान रहे यदि मार्ग में किसी ने अमर्यादित आचरण किया तो वह पल तुम्हारे और साथियों के लिए बहुत कठिन होगा। इस बीच वहाँ उपस्थित राजाओं और राजपुत्रों ने आक्रमण करके भानुमती को छुड़ाने का उपक्रम किया। पर कर्ण ने अपने तीक्ष्ण बाणों से बहुतों को घायल कर दिया।
चन्द्रवर्मा ने बेटी को विदा किया पर दुर्योधन को सचेत किया कि भानुमती की इच्छा के विरुद्ध कोई व्यवहार इसे प्रिय नहीं है। दुर्योधन ने इसका सदा ध्यान रखा। हस्तिनापुर में यह विवाह विराट उत्सव के रूप में आयोजित हुआ। कर्ण ने जब से भानुमती को देखा था उसका मानस विचलित था। पर मित्र की भार्या के प्रति अनादर नहीं करने का विचार उसे रोकता रहा। भानुमती उसके भावों को समझ गयी थी। वह प्राय: कर्ण से युद्ध कलाओं के बारे में चर्चा करती। चौसर का खेल उसे बहुत प्रिय था। शकुनि को देखते ही चिढ़ती थी। उसका कहना था कि इनके कारण चौसर जैसे खेल का अपमान हुआ है।
भरी सभा में द्रोपदी की मानहानि के कारण भानुमती ने काफी समय तक दुर्योधन और कर्ण से मिलना बन्द कर दिया था। गान्धारी ने हस्तक्षेप करके पति-पत्नी में समझौता कराया था। भानुमती प्राय: राजकाज से अपने को विरत रखती थी। उसे विदुर की पत्नी सुलभा (पारसंवी) से बहुत लगाव था। विदुरानी के सन्दर्भ में विख्यात था कि वह एक साध्वी थी जो पति की तरह श्रीकृष्ण की भक्त और धर्म की उच्चकोटि की ज्ञाता थीं। भानुमती ने एक पुत्र लक्ष्मण और एक पुत्री लक्ष्मणा को जन्म दिया। लक्ष्मण धनुर्धर था। वह पिता की तरह अत्यन्त महत्वाकांक्षी और माँ भानुमती की तरह अति सुन्दर था। जिस दिन सेनापति द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना करके युधिष्ठिर को बन्दी बनाकर युद्ध का समापन करने का मन्तव्य बनाया था। उस दिन उनकी कठिन व्यूह रचना में अभिमन्यु ने प्रवेश करके सबको चकित कर दिया था। इसी युद्ध में दुर्योधन पुत्र लक्ष्मण अभिमन्यु के हाथों मारा गया था। लक्ष्मण के बारे में कहा जाता है कि उसने अपनी माँ भानुमती से युद्ध विद्या सीखी थी। पर धीरज के अभाव में बल का घमण्ड उसकी विद्या पर भारी पड़ जाता था।
भानुमती से उसकी पुत्री लक्ष्मणा ने श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्ब से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की थी। भानुमती ने एक दिन श्रीकृष्ण को सन्देश भेजकर मिलने की इच्छा व्यक्त की। श्रीकृष्ण जिस दिन विदुर के घर अतिथि बने, उस दिन उन्होंने भानुमती को बातचीत करने का अवसर दिया। भानुमती ने उनसे मिलकर राजसभा में पति दुर्योधन की ओर से अभद्रता किये जाने की कोई चर्चा नहीं की। उसने अपनी पुत्री लक्ष्मणा के गुणों से अधिक शाम्ब के गुणों की प्रशंसा करते हुए कहा- यदि सौभाग्य के कोई भी पल मेरे पक्ष में हों तो शाम्ब को मेरा जामाता बनने का अवसर मिले यही प्रार्थना है। कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले यह विवाह नहीं हो सका। इसलिए दुर्योधन की अनुपस्थिति में इस विवाह का आयोजन हस्तिनापुर के नये राजा युधिष्ठिर की उपस्थिति में हुआ था।
महाभारत काल के रहस्यों में भानुमती से जुड़ा एक और रहस्य है। कुरुक्षेत्र के समर के उपरान्त भानुमती ने श्रीकृष्ण से अपने मन की व्यथा कही। उसने बताया कि दुर्योधन से उसका विवाह किस परिस्थिति में हुआ था। यह भी कहा कि किशोरावस्था से अर्जुन की वीरता के प्रसंग उसके मन में बैठ गये थे। उसका मानस अर्जुन को लेकर जीवन की कल्पनाओं में डूबा रहता था। श्रीकृष्ण ने भानुमती से पूछा- तुम्हारे जीवन का उत्तरार्ध असमय आ गया है। मुझे प्रतीत होता हे कि तुम अर्जुन को अपना नया जीवन साथी बनाने की इच्छुक हो। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बुलाकर सारी बात बतायी। इसकी जानकारी द्रोपदी को हुई तो उन्होंने अर्जुन और भानुमती को जीवन साथी बनने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार अर्जुन की आठवीं पत्नी के रूप में भानुमती ने पाण्डवों के बीच रह कर अपना शेष जीवन पूर्ण किया। कुछ कथाओं में वर्णन मिलता है कि पाण्डवों के स्वर्गारोहण से पूर्व भानुमती ने प्राण त्याग दिये थे।
हिन्दी में एक कहावत है- कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा। भानुमती ने कुनबा जोड़ा।। वस्तुत: यह कहावत भानुमती के जीवन के प्रसंगों के कारण गढ़ी गयी प्रतीत होती है। भानुमती जैसी वीरांगना और सौन्दर्य की महारानी कौरव-पाण्डवों के बीच दूसरी नहीं थी। उससे स्वर्ग की अप्साराएं सौन्दर्य की सीख लेती थीं। देवराज इन्द्र तक उसके सौन्दर्य और शौर्य की चर्चा पहुँच चुकी थी। चित्राल की लड़कियां और विवाहिता नारियां आज भी सौन्दर्य के साथ अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुण होती हैं। यह क्षेत्र पाकिस्तान के अधिकार में है। पर कोई आततायी उन पर झपट्टेबाजी नहीं करता। ऐसी भानुमती सिद्धान्तों से जुड़ी थी। महासमर की रचना के समय शाम्ब और लक्ष्मणा के विवाह की चर्चा उसने श्रीकृष्ण से की थी। इतना ही नहीं विवाह के उपरान्त अर्जुन की जीवन संगिनी बनकर अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया। पाण्डु पक्ष में सभी उसके व्यवहार और आचरण के प्रशंसक बने रहे। कर्ण से मैत्री तो की पर अपने सम्मान का ध्यान रखा।

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