31.1 C
Delhi
Friday, March 21, 2025

प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था / ३

  • प्रशांत पोळ
प्राचीन भारत के न्याय व्यवस्था की चर्चा करते हुए पिछले भाग में हमने कुछ ‘स्मृतियों’ की चर्चा की। कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति जैसे ग्रंथ अपने प्राचीन न्याय व्यवस्था के आधार स्तंभ थे।
मात्र इन दो – ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रंथों के आधार पर भारत में न्याय होता था, यह कहना पूर्ण सही नहीं है। भारतीयों की, अर्थात हिंदुओं की, विशेषता है कि वह देश – काल – परिस्थिति अनुसार अपने व्यवस्थाओं और नियमों को युगानुकूल परिष्कृत करते जाते हैं। ‘जो पुराना है, प्राचीन है, वही सब अच्छा है’ यह कुएं के मेंढकों की मानसिकता अपनी (हिंदुओं की) नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारे देश में ‘भाष्य’ यह समयानुसार, लिखे गए वेदों को / उपनिषदों को / स्मृतियों को परिष्कृत करने की एक सर्वमान्य पध्दति थी।
इसी कारण धर्मशास्त्र पर (अर्थात न्याय प्रणाली पर) लिखे गए लगभग सभी ग्रथोंपर, समय-समय पर भाष्य लिखा गया। इस्लामी आक्रांता भारत में आने तक यह परंपरा कायम थी। आगे चलकर वह कम होती चली गई।
याज्ञवल्क्य स्मृति पर मिथिला नगर के वाचस्पती मिश्र ने भाष्य लिखा। सन 900 से 980 यह उनका कार्यकाल था। उनके अनेक ग्रथोंमें से ‘न्याय सूचि निबंध’ और ‘न्याय वर्तिका तात्पर्य टीका’, यह दो ग्रंथ न्याय व्यवस्था पर है। इनमें से पहला ग्रंथ अर्थात, ‘न्यायसूचि निबंध’ यह, अक्षय पद गौतम के ‘न्याय सूत्र’ इस ग्रंथ पर प्रमुखता से भाष्य करता है। अक्षयपद गौतम का कालखंड यह ईसा पूर्व 200 वर्ष का था। इसी ‘न्याय सूत्र’ पर, आगे चलकर उद्योतकर, भविविक्त, अविधा कर्ण, जयंत भट आदी अनेक विद्वानों ने भाष्य लिखे हैं।
ग्यारहवी सदी मे, दक्षिण मे चालुक्योंके राज्य मे, ‘विज्ञानेश्वर’ नाम के न्यायाधीश ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर भाष्य लिखा है। यह भाष्य ‘मिताक्षरा’ नाम से प्रसिद्ध है। इस ‘मिताक्षरा’ ग्रंथ में अन्य विषयों के साथ ही, ‘जन्म के साथ मिलने वाला उत्तराधिकार’ (Inheritance by birth) इस विषय पर विस्तृत विवेचन है।
विज्ञानेश्वर ने लिखे हुए इस ग्रंथ के लगभग 100 वर्षों के बाद, बंगाल के ‘जीमूतवाहन’ इस परिभद्र कुल के व्यक्ति ने ‘दायभाग’ यह ग्रंथ ‘उत्तराधिकार’ इसी विषय पर लिखा।
अगले 800 वर्ष, बृहद बंगाल (आज के बांग्लादेश सहित) और असम प्रांत में, उत्तराधिकारी संबंधित सभी न्याय दान में ‘दायभाग’ यह ग्रंथ प्रमाण माना गया है। लेकिन शेष भारत के उत्तराधिकार संबंधित मामलों में, ‘मिताक्षरा’ इस ग्रंथ के आधार पर न्याय दिया जाने लगा। आगे चलकर पन्द्रहवीं सदी में, चैतन्य महाप्रभु के सहपाठी रह चुके, बंगाल के ही रघुनंदन भट्टाचार्य ने ‘दायभाग’ पर भाष्य लिखा। कई स्थानों पर यह भाष्य प्रमाण माना जाता था। अंग्रेजों के शासन के प्रारंभिक काल खंड में, न्याय देते समय हिंदू विधि का उपयोग किया जाता था। अंग्रेजों की पहली सत्ता बंगाल में स्थापन होने के कारण देश का पहला हाई कोर्ट, वर्ष 1862 में कोलकाता में स्थापना हुआ। इस कोलकाता उच्च न्यायालय ने, उत्तराधिकार इस विषय में रघुनंदन भट्टाचार्य के ‘दायभाग’ पर लिखा गया भाष्य प्रमाण माना था।
‘मिताक्षरा’ यह शेष भारत में सर्वमान्य संदर्भ ग्रंथ माना जाता था, लेकिन उसके पांच अलग-अलग प्रकार (variants) थे।
काशी 2. मिथिला 3. मद्रास 4. मुंबई 5. पंजाब
सन 2005 में न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने ‘मिताक्षरा का आज के संदर्भ में महत्व’ इस विषय पर एक दीर्घ लेख लिखा। इसमें वह कहते हैं कि, ‘पचास के दशक में भारतीय संसद ने सब पुराने हिंदू कानून रद्द करके नए कानून तैयार किये। इसलिए दैनंदिन न्याय प्रणाली में मिताक्षरा के संदर्भ समाप्त हुए। फिर भी, भारतीय न्यायालय व्यवस्था समझने के लिए मिताक्षरा आज भी उपयुक्त है।’
अर्थात इन स्मृतियाओ॔ का, या उन पर लिखे गए भाष्य का, विचार किया तो साधारणतः ढाई से तीन हजार वर्ष पहले के ग्रंथो से हमें सुव्यवस्थित न्याय व्यवस्था का विस्तृत विवरण मिलता है। यह न्याय व्यवस्था केवल कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, मिताक्षरा, दायभाग ऐसे ग्रंथो तक सीमित नहीं थी, तो प्रत्यक्ष समाज में इसका उपयोग होता था। इस्लामी आक्रांताओं ने जो विध्वंस किया, उसके कारण हमारे पास पुराने आलेख, पुराने कागजात उपलब्ध नहीं है। लेकिन जो मिले हैं, जो शिलालेख, ताम्रपट मिलते हैं, उनसे यह स्पष्ट होता है कि, भारत में एक परिपूर्ण सुव्यवस्थित न्याय व्यवस्था थी। सत्ता किसी की भी हो, राजा कोई भी हो, परंतु धर्मशास्त्र ने दी हुई यह न्याय व्यवस्था सर्वमान्य थी और सबके लिए बंधनकारक थी।
विजयनगर साम्राज्य (वर्ष 1336 -1646) के बाद छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य में और आगे चलकर, पेशवा के राज्य में भी, न्याय व्यवस्था अच्छी थी। विजयनगर साम्राज्य की जो पांडुलिपियां मिली है, उनसे उस समय की समाज व्यवस्था, न्याय पद्धति, दंड शासन आदि बातों का स्पष्ट चित्र हमारे सामने आता है। विजयनगर साम्राज्य के आदि गुरु विद्यारण्य अर्थात माधवाचार्य ने पाराशर स्मृति पर ‘प्रसार माधवीय’ ग्रंथ लिखा है। इस ग्रंथ के ‘व्यवहार कांड’ प्रकरण में न्याय व्यवस्था के यम – नियम विस्तार से दिए हैं। मंगलौर के भास्कर आनंद सालटोर की, विजयनगर साम्राज्य की न्याय व्यवस्था के संदर्भ में एक अच्छी पुस्तक उपलब्ध है, – ‘Justice System of Vijaynagara’। इसमें उन्होंने विजयनगर साम्राज्य के न्याय व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया है। साथ ही विजयनगर साम्राज्य में घटित अनेक महत्वपूर्ण न्याय दानों की, अर्थात, कानूनी मामलों के निर्णयोंकी, जानकारी भी दी है।
(क्रमशः)
  • प्रशांत पोळ
    (आगामी प्रकाशित ‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग २’ के अंश)

Advertisement

spot_img

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

2,300FansLike
9,694FollowersFollow
19,500SubscribersSubscribe

Advertisement Section

- Advertisement -spot_imgspot_imgspot_img

Latest Articles

Translate »