नई दिल्ली, 12 जून 2025, गुरुवार: आज से ठीक पांच दशक पहले, 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले ने भारत की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। इस ऐतिहासिक फैसले ने न केवल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सत्ता को चुनौती दी, बल्कि देश में लोकतंत्र की दिशा और दशा को भी नए सिरे से परिभाषित किया।
उस समय केंद्र और अधिकांश राज्यों में कांग्रेस पार्टी का एकछत्र राज था। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने एक साहसिक फैसला सुनाते हुए इंदिरा गांधी के रायबरेली से 1971 के लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। इतना ही नहीं, उन्हें अगले छह वर्षों तक कोई भी चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराया गया। यह फैसला इंदिरा गांधी के खिलाफ समाजवादी नेता राज नारायण की याचिका पर आया, जिसमें चुनाव में अनुचित साधनों के इस्तेमाल का आरोप लगाया गया था।
इमरजेंसी: लोकतंत्र पर संकट
इस फैसले ने इंदिरा गांधी और कांग्रेस के लिए अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया। सत्ता को बचाने की कोशिश में इंदिरा ने 25-26 जून 1975 की मध्यरात्रि को देश में आपातकाल (इमरजेंसी) लागू कर दिया। इस कदम ने नागरिक अधिकारों, प्रेस की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक संस्थाओं को गहरी चोट पहुंचाई। विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया, प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गई और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचल दिया गया।
इमरजेंसी के 21 महीनों तक देश में तनावपूर्ण माहौल रहा। लेकिन जनता का गुस्सा बढ़ता गया, जो अंततः 1977 के लोकसभा चुनाव में फूट पड़ा। इंदिरा गांधी ने मार्च 1977 में इमरजेंसी हटाकर चुनाव कराने का फैसला किया, शायद यह सोचकर कि उनकी लोकप्रियता बरकरार थी। लेकिन जनता ने अपना फैसला सुना दिया। कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। इंदिरा गांधी स्वयं रायबरेली से और उनके बेटे संजय गांधी अमेठी से चुनाव हार गए।
जनता पार्टी का उदय और लोकतंत्र की वापसी
1977 का चुनाव भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ। पहली बार गैर-कांग्रेसी गठबंधन, जनता पार्टी, ने केंद्र में सरकार बनाई। मोरारजी देसाई देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। इसने भारतीय राजनीति में बहुदलीय व्यवस्था की नींव रखी और कांग्रेस के एकछत्र वर्चस्व को तोड़ा।
आज का संदर्भ
इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले की गूंज आज भी भारतीय राजनीति में सुनाई देती है। इसने न केवल लोकतंत्र की ताकत को रेखांकित किया, बल्कि यह भी दिखाया कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, कानून से ऊपर नहीं है। पांच दशक बाद भी यह घटना हमें याद दिलाती है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए सजगता और जवाबदेही कितनी जरूरी है।