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Saturday, January 18, 2025

मुगल बादशाहों की क्रूरता के बावजूद जीवित रहा अक्षय वट: औरंगजेब ने जलाया, जहांगीर ने कटवाया, अकबर ने घेरा लेकिन वह फिर भी हरा-भरा है!

महाकुंभनगर, 18 जनवरी 2025, शनिवार। प्रयागराज की पुण्य भूमि पर छिपा है एक प्राचीन रहस्य ‘अक्षय वट’, जो इतिहास से भी अधिक पुराना है और अभी भी जीवित है! महाकुंभ-2025 की धूम के बीच, प्रयागराज के संगमतट पर एक और प्राचीन तीर्थ छिपा हुआ है, जो इस स्थान के महत्व को और भी अधिक सार्थक कर देता है। यमुना नदी के किनारे स्थित एक ऐतिहासिक किले की भीतरी दीवार में मौजूद है अक्षय वट, मान्यता है कि यह वटवृक्ष अविनाशी है। वर्तमान में, यह अक्षय वट पातालपुरी मंदिर के भीतर अपनी फैली हुई जड़ों के साथ विराजमान है। इस वृक्ष का ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ पौराणिक महत्व भी है, जो इसे एक अद्वितीय और आकर्षक स्थल बनाता है।
अक्षय वट: वह पवित्र वृक्ष जो भगवान राम की कृपा से अमर हो गया!
इतिहास के पन्नों में छिपी एक अद्भुत कथा है, जो अक्षय वट वृक्ष की अमरता की गवाही देती है। भगवान श्रीराम, सीता माता और लक्ष्मण जी ने अपने वनवास के दौरान इस वृक्ष के नीचे विश्राम किया था। श्रीराम ने यहां शूल टंकेश्वर महादेव का जलाभिषेक किया था, जिनके जल की धारा अक्षयवट की जड़ों तक पहुंचती है और संगम में विलीन हो जाती है। मान्यता है कि अदृश्य सरस्वती नदी भी अक्षयवट के नीचे से बहती है और त्रिवेणी संगम में मिलती है। इस पवित्र वृक्ष को मुस्लिम आक्रमणकारियों से लेकर मुगल सम्राट जहांगीर तक ने नष्ट करने का प्रयास किया, लेकिन हर बार यह वृक्ष अपनी राख से पुनः उत्पन्न हो गया। यह अक्षय वट वृक्ष आज भी प्रयागराज के संगमतट पर स्थित है, जो भगवान राम की कृपा और अमरता का प्रतीक है।
अक्षयवट: वह पवित्र वृक्ष जो सृष्टि के आरंभ से ही मौजूद है और महाप्रलय का साक्षी है!
पुराण कथाएं बताती हैं कि अक्षयवट वृक्ष सृष्टि के आरंभ के साथ ही उत्पन्न हुआ था। यह वृक्ष हर बार होने वाली महाप्रलय का साक्षी भी है। पद्म पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है। प्रयाग में स्थित पाताल पुरी मंदिर में अक्षयवट वृक्ष मौजूद है। यह मंदिर ‘असिमाधव’ के नाम से भी जाना जाता है। वटवृक्ष के पास होने के कारण यह स्थान भगवान विष्णु और शिव का भी वास माना जाता है। पद्मपुराण में वर्णित प्रयाग माहात्म्य शताध्यायी के अनुसार, पाताल लोक के नाग और नागिनियां शेषनाग के साथ भगवान हरि और हर दोनों का एक साथ दर्शन करने के लिए इसी स्थान पर आए और यहीं उनके सचिव बनकर निवास करने लगे। यह अक्षयवट वृक्ष आज भी प्रयागराज के संगमतट पर स्थित है, जो सृष्टि के आरंभ से ही मौजूद है और महाप्रलय का साक्षी है।
अक्षयवट: ज्ञान का प्रतीक और सृष्टि की आधारशिला!
अखंड भारत की अद्भुत धरोहरों में अक्षयवट और प्राचीन पातालपुरी मंदिर का एक विशेष स्थान है। अक्षयवट का अर्थ है ‘अविनाशी वट वृक्ष’, जो संस्कृत के शब्दों ‘अक्षय’ (अविनाशी) और ‘वट’ (बरगद) से बना है। पद्म पुराणों के अनुसार, महाप्रलय के समय जब सृष्टि जलमग्न हो जाती है और जीवन का कोई चिह्न नहीं होता, तब भी एक वट वृक्ष बच जाता है, जो जीवन को फिर से शुरू करने में सहायक होता है। यह वट वृक्ष सृष्टि की आधारशिला और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, मार्कंडेय ऋषि को भगवान कृष्ण ने बाल मुकुंद के रूप में वट वृक्ष के पत्ते पर ही दर्शन दिए थे। यह अक्षयवट वृक्ष आज भी प्रयागराज के संगमतट पर स्थित है, जो ज्ञान का प्रतीक और सृष्टि की आधारशिला है।
अक्षयवट: माता सीता का वरदान और प्रयागराज का सबसे पवित्र स्थल!
एक पौराणिक कथा के अनुसार, राजा दशरथ के निधन के बाद श्रीराम पिंडदान के लिए सामग्री लेने गए थे। उस दौरान राजा दशरथ अक्षयवट पर प्रकट हुए और सीता माता से भोजन मांगा। माता सीता ने अक्षयवट के नीचे से रेत उठाकर पिंड बनाकर राजा दशरथ को अर्पित किया। जब श्रीराम आए और पिंडदान करने लगे तब सीताजी ने कहा कि आपकी अनुपस्थिति में मैंने पिंडदान कर दिया है। श्रीराम ने यह बात वटवृक्ष से पूछी तो उसने भी अपनी पत्तों की सरसराहट के जरिए हामी भरी की राजा दशरथ का पिंडदान हो चुका है। तब सीता माता ने इस वट वृक्ष को हमेशा ही जीवित रहने का वरदान दिया। उनके स्पर्श और आशीर्वाद ने अक्षयवट को प्रयागराज का सबसे पवित्र स्थल बना दिया। संगम में स्नान कर अक्षयवट के दर्शन करने से वंशवृद्धि और मानसिक व शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है।
पातालपुरी मंदिर और अक्षय वट: प्राचीनता का गौरव और आध्यात्मिक महत्व!
पातालपुरी मंदिर एक भूमिगत मंदिर है, जो वैदिक काल से अस्तित्व में है और अखंड भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है। मंदिर का निर्माण एक प्राचीन कला का परिचय देता है, जो 84 फीट लंबा और 49 फीट चौड़ा है। मंदिर में लगभग 100 स्तंभ हैं, जो 6 फीट ऊंचे हैं। मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में है, जो धर्मराज, गणेश जी, काली माता, भगवान विष्णु, शिवलिंग, हनुमान जी, लक्ष्मण जी, सीता माता सहित अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियों के दर्शन का अवसर प्रदान करता है। यह मंदिर प्राचीनता का गौरव और आध्यात्मिक महत्व का प्रतीक है, जो प्रयागराज के संगमतट पर स्थित है।
अक्षयवट: आक्रांताओं के हमलों का शिकार, लेकिन अभी भी जीवित!
पातालपुरी मंदिर के भीतर मौजूद अक्षयवट वृक्ष आक्रांताओं के हमलों का भी शिकार हुआ। सन् 1575 में मुगल बादशाह अकबर प्रयाग पहुंचा और यहां की दोआबा (गंगा-यमुना से सिंचित जमीन) को बहुत पसंद आया। अकबर ने यहां आकर आत्मिक खुशी महसूस की और फिर उसने इस स्थान पर एक किला बनाने का विचार किया। यमुना नदी के किनारे किला बनाते हुए अकबर ने प्राचीन पातालपुरी मंदिर को भी किले के भीतर ही समेट लिया और इस तरह अक्षय वट भी इसके भीतरी हद में आ गया। अकबर ने किला निर्माण करते हुए इस वट वृक्ष के बड़े हिस्से को नुकसान पहुंचाया। ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि अकबर ने 1583-84 में इस किले को बनवाया था और तब ही इस वट वृक्ष की फैले विस्तृत स्थल पर किले का कब्जा हो गया। इससे पहले इस वट वृक्ष के चारों तरफ इसकी छाया में 1000 लोग आराम से बैठ सकते थे।
जहांगीर की क्रूरता: अक्षयवट को जलवाया और कटवाया!
जहांगीर ने अकबर के बाद किले पर अपना अधिकार स्थापित किया और इसका विस्तार करने के लिए पातालपुरी मंदिर के पास एक वट वृक्ष के स्थान पर निर्माण करना चाहा। यह वट वृक्ष एक प्राचीन बरगद का पेड़ था, जिसकी जड़ें बहुत दूर तक फैली हुई थीं और पातालपुरी मंदिर को भी अपने में जकड़े हुए थी। जहांगीर को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि लोग इस पेड़ से कूदकर गंगा में अपने प्राण त्याग करते थे। यह ‘करवत कासी’ नामक एक प्रथा का हिस्सा था, जिसमें माना जाता था कि काशी या गंगा में प्राण त्यागने से मरने के बाद स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होता है। संत कबीर ने अपनी ‘साखी’ में इस प्रथा की आलोचना की थी और इसीलिए वह अपने अंत समय में मगहर चले गए थे।
अलबरूनी का अक्षयवट पर विवरण: एक विद्वान की दृष्टि में आत्महत्या की प्रथा!
फारसी विद्वान अलबरूनी ने 1017 ईस्वी में भारत की यात्रा के दौरान अक्षयवट को देखा और इसके बारे में अपने दस्तावेजों में लिखा। अलबरूनी ने लिखा कि संगम के पास एक विशाल वट वृक्ष है, जिसे अक्षयवट कहा जाता है। इस वृक्ष पर चढ़कर ब्राह्मण और क्षत्रिय गंगा में कूदते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं। अलबरूनी के अनुसार, इस वृक्ष के आसपास मानव कंकाल और हड्डियों के अवशेष दिखते हैं। कुछ लोग तो खुद को गंगा में डुबोने के लिए एक व्यक्ति को साथ लेकर जाते हैं, जो उन्हें गंगा में डुबोए रखता है जब तक प्राण न निकल जाए। अलबरूनी का यह विवरण उनकी पुस्तक ‘तारीख-अल-हिंद’ में पाया जाता है।
ह्वेनसांग का अक्षयवट पर विवरण: एक चौंकाने वाला सच!
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अक्षयवट के बारे में अपने यात्रा विवरण में एक चौंकाने वाला सच लिखा है। वह बताता है कि प्रयाग में संगम तट पर स्थित मंदिर के आंगन में एक विशाल वृक्ष (अक्षयवट) है, जिसकी शाखाएं और पत्तियां बहुत दूर तक फैली हुई हैं। ह्वेनसांग लिखता है कि इस वृक्ष की सघन छाया में दाहिने और बाएं अस्थियों के ढेर लगे हुए हैं। ये उन यात्रियों की हड्डियां हैं, जिन्होंने स्वर्ग की लालसा में इस वृक्ष से गिरकर अपने प्राण दिए हैं। यह विवरण ह्वेनसांग की यात्रा के दौरान लिखा गया था, जो अक्षयवट के महत्व और उसके आसपास की प्रथाओं को दर्शाता है।
अक्षयवट: जहांगीर की क्रूरता के बावजूद राख से पनप आया!
हकीम शम्स उल्ला कादरी की किताब तारीख-ए-हिंद के अनुसार, जहांगीर ने अक्षयवट को कटवा दिया था और उसकी जगह को लोहे की मोटी चादर से ढंकवा दिया था। लेकिन इसके बावजूद, अक्षयवट की कोंपलें पनप गईं। जहांगीर ने इसे पूरी तरह से नष्ट करने के लिए इसके मूल में गरम तवा रखवाकर और जड़ों में आग लगवाकर भी कोशिश की, लेकिन अक्षयवट अपनी राख से भी निकल आया। कई बार कटवाने के बावजूद, इसमें कोंपले पनप गईं थीं। जहांगीर ने पातालपुरी मंदिर और वटवृक्ष तक पहुंचने वाले रास्तों को भी बंद करवा दिया था।
औरंगजेब की क्रूरता: अक्षयवट के दर्शन-पूजन पर रोक लगा दी गई!
औरंगजेब ने अक्षयवट के दर्शन-पूजन पर रोक लगा दी थी। यह वटवृक्ष श्रद्धालुओं की पहुंच से दूर था और औरंगजेब ने इसे किले में ही कैद रखा था। लेकिन बाद में मुगल बादशाह बहादुर शाह रंगीला के समय में बाजीराव पेशवा ने बादशाह के साथ समझौता किया और लोगों ने इस वटवृक्ष और पातालपुरी के दर्शन किए। बाजीराव पेशवा की माता ने 1735 में इस मंदिर को फिर से स्थापित करने की पहल की थी। हालांकि, बाद में अंग्रेजों ने फिर से दर्शन पर रोक लगा दी, जो आजादी के कई सालों तक जारी रही।
अक्षयवट का पुनर्जन्म: 2019 में आम जनता के लिए खुला यह पवित्र स्थल!
अक्षय वट पातालपुरी मंदिर और अक्षयवट को आम जनता के लिए 2019 में खोला गया था। इससे पहले, यह लंबे समय तक भारतीय सेना के अधीन था और जनता के लिए बंद था। 2018 में, दिवंगत सीडीएस जनरल बिपिन रावत और तत्कालीन रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने यहां का निरीक्षण किया। इसके बाद, मंदिर के पुनरुद्धार कार्य को तेजी से किया गया। पेयजल, प्रकाश व्यवस्था, और परिक्रमा मार्ग को सुधारने के कार्य पूरे किए गए। अंततः, 10 जनवरी 2019 को अक्षयवट को जनता के दर्शन के लिए खोल दिया गया।

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