हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार माने गए राजेश खन्ना की फिल्म ‘दाग’ से शुरू हुआ यश राज फिल्म्स का सफर बीते महीने रिलीज फिल्म ‘पठान’ तक आ चुका है। यश राज फिल्म्स की स्थापना के 50 साल पूरे होने का जश्न भी इसी एक फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर मनाया नहीं तो इस कंपनी ने फिल्म ‘चांदनी’ से पहले जो जमाना देखा है, वही ये कंपनी फिर से दोहराती दिख रही है। बीते पांच दशकों में इस कंपनी ने जो कुछ हिंदी सिनेमा के दर्शकों को दिया, वह पूरी कहानी नेटफ्लिक्स पर वैलेंटाइंस डे पर रिलीज हुई डॉक्यूमेंट्री सीरीज ‘द रोमैंटिक्स’ अंग्रेजी में सुनाती है। कोई 35 सितारे हैं। दर्जनों कहानियां हैं लेकिन ज्यादातर पहले से सुनी हुई। जालंधर के लड़के के मुंबई के दिग्गज फिल्मकार बनने की कहानी इन सितारों की जुबानी है। कऱण जौहर को दिए एक इंटरव्यू के जरिये यश चोपड़ा खुद भी इस बारे में बातें करते दिखते हैं। ऋषि कपूर के आखिरी इंटरव्यू से लेकर आदित्य चोपड़ा के पहले इंटरव्यू तक की तमाम बातें लोगों तक सीरीज की रिलीज के पहले ही पहुंच चुकी हैं, जो बात नहीं पहुंची है वह ये कि चार एपिसोड की ये सीरीज चार घंटे का ऐसा तमाशा है जिसमें पहला घंटा बचपन, दूसरा जवानी और तीसरा बुढ़ापा तो है पर साथ में एक घंटा भरपूर पीआर का भी है। डॉक्यूमेंट्री बनाने का जो असल मकसद होता है, उस गहराई में न जाकर ये सीरीज बस चमक, दमक और गमक में खोई रहती है।
सतह पर ही तैरती ‘यश गाथा’
यश चोपड़ा से ज्यादा ये सीरीज आदित्य चोपड़ा की ब्रांडिंग एक्सरसाइज है। अच्छा लगता है जब आदित्य चोपड़ा कैमरे के सामने स्वीकारते हैं कि उनको हकलाने की दिक्कत रही है। ये स्वीकारोक्ति उनकी शख्सियत को और मजबूत भी करती है। लेकिन, बिरले ही लोग जानते हैं कि यश राज फिल्म्स की स्थापना उस समय तक पांच फिल्में निर्देशित कर चुके यश चोपड़ा ने राजेश खन्ना के साथ मिलकर की थी। राज नाम इस कंपनी का राजेश खन्ना से ही आया। यश राज फिल्म्स के पहले कर्मचारी माहेन वकील भी इस बात का जिक्र नहीं करते। शादी के बाद अपने भाई की छत्रछाया से निकलकर एक कमरे के दफ्तर से अपनी कंपनी शुरू करने वाले यश चोपड़ा को निर्माता गुलशन राय से मिली बेशर्त आर्थिक मदद का जिक्र तो ये डॉक्यूमेंट्री करती है लेकिन ये सीरीज उन दर्शकों से यश चोपड़ा की बात तक नहीं करती जिन्होंने इस कंपनी की ढेरों फिल्में अपनी मेहनत की कमाई से देखीं और आदित्य चोपड़ा को ये विचार दिया कि उनका अपना स्टूडियो होना चाहिए। एक कलाकार भारतीय संस्कृति को चार हजार साल पुराना बताता है, दूसरे ही इंटरव्यू में ये अंतराल 10 हजार साल का हो जाता है, कहानी लिखने वालों को ये कोई नहीं बताता कि भारतीय संस्कृति सिर्फ रामायण और महाभारत काल से ही शुरू नहीं होती। बताए भी तो कोई कैसे, हिंदी सिनेमा की सबसे दिग्गज कंपनी की कहानी कहने के लिए कैमरे पर लाए गए पत्रकारों में से एक भी हिंदी का जो नहीं है। यश चोपड़ा का सिनेमा सही है कि स्कूल ऑफ सिनेमा है। लेकिन, इस स्कूल के विद्यार्थियों ने देश की संस्कृति पर बीते पांच दशकों में जो असर डाला, उसकी बात तभी हो सकती थी जब इसके असर में आए लोग भी इस डॉक्यूमेंट्री का हिस्सा होते।
समसामयिक परिदृश्य का छलावा‘
द रोमैंटिक्स’ बताती है कि यश चोपड़ा के स्कूल ऑफ सिनेमा ने फिल्म ‘वक्त’ के जरिये मल्टीस्टारर फिल्मों और नयनाभिराम दृश्यों वाले सिनेमा की शुरुआत की। लेकिन फिल्म ‘धूल का फूल’ में जब परदे पर मनमोहन कृष्ण गाते दिखते हैं कि ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा’ तो इस पर लंबी बात होनी बनती है। यही नहीं फिल्म ‘धर्मपुत्र’ के जिक्र में धर्म की कट्टरता पर बात भी बहुत सामयिक हो सकती थी, लेकिन ‘द रोमैंटिक्स’ का ज्यादा जोर ये बताने पर है कि यश चोपड़ा ने अपनी हीरोइनों को एक नई आभा बख्शी। उनको बर्फ से ढकी वादियों में भी शिफॉन की साड़ियां पहनाकर ऊंचाई से लुढ़काया। ‘द रोमैटिंक्स’ गुजरे जमाने के एक दिग्गज निर्माता निर्देशक का प्रशस्ति गान है और अच्छा प्रशस्ति गान है लेकिन एक डॉक्यूमेंट्री के पैमाने पर ये ‘यश गाथा’ सौ फीसदी खरी नहीं उतरती। इसमें सिर्फ उतना ही बताया गया है जितना यश राज फिल्म्स देश के दर्शकों को बताने में यकीन रखती है। शाहरुख खान जब फिल्म ‘डर’ की तारीफ करते हुए कहते हैं कि तमाम लड़कों ने उस दौर में अपने सीने पर अपनी प्रेमिकाओं के नाम लिख डाले थे, तो किसी मनोवैज्ञानिक को बताना चाहिए था कि ऐसी फिल्मों का समाज पर असर क्या होता है?
सातवें इंसान की फिक्र ही नहीं
डॉक्यूमेंट्री देखते समय अमिताभ बच्चन की इस डॉक्यूमेंट्री में कही ये बात दिमाग में अटक जाती है कि दुनिया का हर सातवां इंसान भारतीय है। फिर ये डॉक्यूमेंट्री इस सातवें इंसान की भाषा छोड़ पहले के छह इंसानों के हिसाब से क्यों है, इसका जवाब शायद ही यश राज फिल्म्स में किसी के पास हो। भला हो आदित्य चोपड़ा का जो ये बात कहने में नहीं हिचकिचाते कि स्टूडियो कितना भी बड़ा क्यों न हो, वह किसी को पूरी कोशिश करके भी ‘स्टार’ नहीं बना सकता। संदर्भ उनके छोटे भाई उदय चोपड़ा का है जो डॉक्यूमेंट्री की शुरुआत में ही बताते दिखते हैं कि वह अपनी बात कहने का लहजा ब्रिटिश एक्सेंट से लेकर कुछ भी रख सकते हैं। बस किसी हिंदुस्तानी भाषा का ‘एक्सेंट’ इस डॉक्यूमेंट्री में नहीं है। सितारे भी सारे यश राज फिल्म्स के ‘एक्सेंट’ वाले हैं। अनिल कपूर, आमिर खान, सलमान खान, सैफ अली खान, माधुरी दीक्षित, जूही चावला, काजोल, रानी मुखर्जी, रणवीर सिंह, अनुष्का शर्मा, भूमि पेडनेकर आदि इत्यादि। यानी कि वे सारे सितारे जो इस कंपनी की फिल्मों में काम कर चुके हैं। और, जैसे ही आप इस डॉक्यूमेंट्री को हिंदी में देखने की कोशिश करेंगे, हैरानी इस बात की होगी कि इन सारे हिंदी सिनेमा के सितारों की आवाज हिंदी में किसी और ने डब की है!
सिनेमाई दस्तावेज बनाने से चूकीं स्मृति
यशराज फिल्म्स से बाहर की हिंदी सिनेमा की दुनिया इस कंपनी को कैसे देखती रही, ये बताने के लिए कभी सूरज बड़जात्या परदे पर नमूदार होते हैं तो कभी कोई और। आदित्य चोपड़ा बचपन से ही फिल्मों को लेकर किस तरह की रिसर्च करते रहे, वह देखना रोचक है। सीरीज का दूसरा एपिसोड फिल्म स्कूलों में दिखाए जाने लायक है, ये समझने के लिए सिनेमा और समाज में जो पुल होता है, वह एक निर्देशक कैसे बनाता है। यश चोपड़ा को जब लगता कि आदित्य उनकी बजाय सूरज की बात ज्यादा मानते हैं तो वे उन्हें आगे कर देते यानी कि यहां भी आभा मंडल यश राज फिल्म्स का ही है। अच्छा होता अगर इसमें यश चोपड़ा के समकालीन कुछ दूसरे फिल्मकारों, कथाकारों और फिल्म समीक्षकों को भी शामिल किया जाता। लेकिन, डॉक्यूमेंट्री देखकर लगता यही है कि स्मृति मूंदड़ा को जिन लोगों का इंटरव्यू करना है उनकी लिस्ट भी यश राज फिल्म्स से ही मिली होगी। और, बस इसी चक्कर में हिंदी सिनेमा का दस्तावेजी इतिहास लिखने का एक शानदार मौका उनके हाथ से निकल गया है। ‘द रोमैंटिक्स’ यशराज फिल्म्स की अगली पीढ़ी से लेकर इसकी विरासत की बात करती एक ऐसी डॉक्यूमेंट्री है जिसमें पूरी की पूरी कहानी बस एक ही नजरिये से दिखाई गई है और वह है फिल्में बनाने वालों का नजरिया, फिल्में देखने वालों का नजरिया इसमें और शामिल होता तो वाक़ई ये एक कालजयी डॉक्यूमेंट्री सीरीज हो सकती थी, लेकिन फिल्म देखने वाले बस ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ कितनी बार देखी, ये बताने भर को ही आते हैं। काश कि इस डॉक्यूमेंट्री को शोध करके बनाया गया होता! काश कि ये सीरीज आम दर्शकों के नजरिये से बनी होती! काश!