नई दिल्ली, 05 अगस्त 2025: सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस प्रशांत कुमार के एक फैसले को रद्द करते हुए उनकी कार्यशैली पर तीखी टिप्पणी की और उन्हें आपराधिक मामलों से हटाने की सिफारिश की। कोर्ट ने कहा कि जिस जज की सोच इस तरह की हो, उसे आपराधिक मामलों की सुनवाई से तुरंत हटा देना चाहिए।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की सुप्रीम कोर्ट बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को निर्देश दिया कि जस्टिस प्रशांत कुमार को अब कोई भी आपराधिक मामला आवंटित न किया जाए। उन्हें किसी वरिष्ठ जज के साथ डिवीजन बेंच में बैठाया जाए या एकल पीठ में केवल दीवानी और गैर-आपराधिक मामलों की सुनवाई दी जाए।
क्या था मामला?
ललिता टेक्सटाइल्स नामक एक छोटी फर्म ने अपीलकर्ता पर ₹7,23,711/- की निर्माण सामग्री (धागा) की आपूर्ति के बाद भुगतान न करने का आरोप लगाया था। भुगतान न होने पर कंपनी ने आपराधिक मामला दर्ज कराया। अपीलकर्ता ने इसे दीवानी मामला बताकर मुकदमा खारिज करने की मांग की, लेकिन जस्टिस प्रशांत कुमार ने आपराधिक मुकदमा जारी रखने का आदेश दिया। उनका तर्क था कि छोटी कंपनी के लिए दीवानी मुकदमा लंबा और महंगा होगा, इसलिए आपराधिक मुकदमा चलना न्यायोचित है।
सुप्रीम कोर्ट की तीखी प्रतिक्रिया
सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को “चौंकाने वाला” और “न्याय की मूल भावना के विपरीत” करार दिया। कोर्ट ने कहा, “अगर आरोपी दोषी ठहराया गया, तो क्या ट्रायल कोर्ट उसे पैसा दिला देगा? ऐसी सोच बेहद चिंताजनक है और न्यायिक प्रक्रिया को मज़ाक बना सकती है।” कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए मामले को दोबारा सुनवाई के लिए दूसरे जज को सौंपने का आदेश दिया।
न्यायपालिका के लिए सख्त संदेश
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में दो टूक कहा, “दीवानी और आपराधिक कानून का घालमेल करना न्याय का अपमान है।” कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि इस आदेश की प्रति तत्काल इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेजी जाए। यह फैसला न्यायाधीशों के लिए एक कड़ी चेतावनी है कि कानून की प्रकृति और सीमाओं की स्पष्ट समझ अनिवार्य है।
इस मामले ने न्यायिक प्रक्रिया में सावधानी और कानूनी स्पष्टता के महत्व को एक बार फिर रेखांकित किया है।