वाराणसी, 26 जुलाई 2025: कारगिल युद्ध में अपनी वीरता से इतिहास रचने वाले नत्थूपुर गांव के शहीद रामसमुझ यादव की शहादत को आज भी यह गांव नमन करता है। महज 22 साल की उम्र में 30 अगस्त 1999 को मातृभूमि की रक्षा करते हुए उन्होंने प्राणों का बलिदान दे दिया। संयोग से यह वही तारीख थी, जब 1977 में उनका जन्म हुआ था।
आर्थिक तंगी में भी देशसेवा का जज्बा
साधारण किसान परिवार में जन्मे रामसमुझ के पिता राजनाथ यादव और माता प्रतापी देवी ने आर्थिक तंगी के बावजूद बेटे को पढ़ाया। प्राथमिक शिक्षा तुरकौली झंझवा से, हाईस्कूल और इंटरमीडिएट मौलाना आजाद इंटर कॉलेज अंजान शहीद से, और स्नातक श्री गांधी पीजी कॉलेज मालटारी से पूरी करने के बाद उन्होंने 1997 में भारतीय सेना में भर्ती होकर देशसेवा का रास्ता चुना। 13 कुमाऊं रेजीमेंट में नियुक्ति के बाद उनकी पहली पोस्टिंग सियाचिन ग्लेशियर में हुई।
कारगिल युद्ध में वीरता का परचम
9 माह की कठिन ड्यूटी के बाद छुट्टी पर घर लौटने की तैयारी में थे, लेकिन कारगिल युद्ध शुरू होने पर उनकी छुट्टी रद्द कर दी गई। उन्हें पहाड़ी पर दुश्मनों को खदेड़ने का मिशन सौंपा गया। 30 अगस्त 1999 को सुबह 5 बजे उनकी रेजीमेंट ने 21 पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराकर पोस्ट पर कब्जा किया, लेकिन इस दौरान रामसमुझ सहित 8 जवान शहीद हो गए।
राखी के साथ पहुंचा शव, छलक पड़ीं आंखें
31 अगस्त को जब तिरंगे में लिपटी उनकी पार्थिव देह गांव पहुंची, तो शोक की लहर दौड़ गई। उसी दिन उनकी बहन की भेजी राखी और पत्र भी घर पहुंचा, जिसने परिजनों का दिल तोड़ दिया। उनकी मां आज भी उनकी तस्वीर या शहीद पार्क नहीं देख पातीं, क्योंकि आंसुओं का सैलाब थमता नहीं।
शहीद मेला: वीरता की अमर गाथा
रामसमुझ की स्मृति में गांव में शहीद पार्क बनाया गया है, जहां हर साल 30 अगस्त को शहीद मेला आयोजित होता है। हजारों लोग इस मेले में शामिल होकर वीर सपूत को श्रद्धांजलि देते हैं। उनके छोटे भाई प्रमोद यादव बताते हैं कि रामसमुझ की डायरी और निजी सामान आज भी परिवार ने सहेजकर रखा है, ताकि आने वाली पीढ़ियां उनकी वीरता को याद रखें।
सरकारी वादे अधूरे
सरकार ने परिवार को गैस एजेंसी और कुछ जमीन दी, लेकिन कई वादे अब तक पूरे नहीं हुए। फिर भी, गांववासियों के दिलों में रामसमुझ की शहादत की गाथा अमर है।