नई दिल्ली, 17 मई 2025: टोक्यो की चमचमाती बुलेट ट्रेन और वॉकमैन की गूंज के साथ 1980 का जापान दुनिया के लिए प्रेरणा था। आर्थिक चमत्कार, तकनीकी क्रांति और महत्वाकांक्षा की मिसाल। लेकिन आज, वही जापान एक खामोश संकट से जूझ रहा है, जिसे रणनीतिकार केनिची ओहमे ने ‘लो डिज़ायर सोसाइटी’ का नाम दिया। यह सिर्फ जापान की कहानी नहीं, बल्कि भारत के लिए भी एक चेतावनी है, जहां शहरी युवा धीरे-धीरे भावनात्मक थकावट की चपेट में आ रहे हैं।
क्या है ‘लो डिज़ायर सोसाइटी’?
यह कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक भूकंप है। जापान में युवा अब न सपनों का पीछा करते हैं, न रिश्तों में दिलचस्पी दिखाते हैं। विवाह, डेटिंग, करियर में जोखिम, या सामाजिक मेलजोल—सब कुछ उनके लिए बोझ बन गया है। वे ‘सर्वाइवल मोड’ में जी रहे हैं, जहां जिंदगी बस गुजर रही है, बिना किसी बड़े उद्देश्य के। यह हार नहीं, बल्कि व्यवस्था से पूरी तरह कट जाने का नतीजा है।
जापान का पतन: एक सबक
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान ने राख से उठकर दुनिया को हैरान किया। लेकिन 1991 की आर्थिक मंदी ने सब बदल दिया। मेहनत से बनाई संपत्ति चंद पलों में धूल में मिली। नतीजा? एक ऐसी पीढ़ी उभरी, जिसने जोखिम और भावनात्मक लगाव से मुंह मोड़ लिया। आज जापान में युवा नौकरियां छोड़ रहे हैं, अकेलेपन को गले लगा रहे हैं, और भविष्य के प्रति उदासीन हो चुके हैं।
भारत पर मंडराता खतरा
भारत के महानगरों में भी यही लक्षण दिखने लगे हैं। लगातार काम का दबाव, सोशल मीडिया की चकाचौंध, और असुरक्षा की भावना ने युवाओं को थका दिया है। कई अब नौकरी, रिश्ते या सपनों को लेकर उत्साह खो रहे हैं। अगर समय रहते इस भावनात्मक थकावट पर काबू न पाया गया, तो भारत भी जापान की राह पर चल सकता है।
रास्ता क्या है?
यह संकट चेतावनी है, लेकिन उम्मीद भी है। सामाजिक जुड़ाव, मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान, और सपनों को फिर से जीवंत करने की जरूरत है। भारत के युवा अगर आज सजग हो जाएं, तो वे न सिर्फ अपना भविष्य बचा सकते हैं, बल्कि दुनिया को एक नई राह दिखा सकते हैं। क्या हम तैयार हैं?