✍️ स्वामी अभेद प्रकाशानंद
मनुष्य का जीवन प्रारब्ध और पुरुषार्थ के बीच संतुलन की एक अद्भुत यात्रा है। प्रारब्ध वह है जो हमारे पूर्व कर्मों का परिणाम है, जिसे टालना हमारे वश में नहीं होता, जबकि पुरुषार्थ वह शक्ति है जिससे हम परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने जीवन की दिशा तय करते हैं। यही जीवन की परीक्षा है, जहाँ समत्व भाव—अर्थात् सुख-दुःख, सम्मान-अपमान, लाभ-हानि में समान रहना—वास्तविक साधना बन जाता है। प्रस्तुत प्रसंग में एक साधु और राजा की घटना के माध्यम से यह गूढ़ सत्य बड़ी सहजता से प्रकट होता है।
एक साधु रात्रि में ठहरने के लिए स्थान खोज रहा था। उसी समय एक राजा का काफिला वहाँ से गुज़रा। राजा ने साधु को प्रणाम कर अपने महल में आमंत्रित किया और उसे अत्यंत मान-सम्मान प्रदान किया। किंतु कुछ ही दिनों बाद वही राजा उस साधु पर चोरी का झूठा आरोप लगाकर उसे कारागार में बंद करवा देता है। साधु न तो अपराध करता है, न ही प्रतिवाद; वह मौन रहकर सब कुछ सहजता से स्वीकार कर लेता है। एक सप्ताह के भीतर सत्य प्रकट हो जाता है—राजा को ज्ञात होता है कि हिरा का हार तो उसी खूँटी पर टँगा था, जो अब दिखाई देने लगा है। अपराधबोध से व्याकुल होकर राजा स्वयं जेल जाता है, साधु से क्षमा याचना करता है और पुनः राजकीय ससम्मान के साथ विदा करता है।
यह प्रसंग जितना सरल प्रतीत होता है, उतना ही गहरा जीवन-दर्शन अपने भीतर समेटे हुए है। साधु न तो सम्मान पाकर अहंकार करता है, न ही अपमान और सजा पाकर रोष करता है। राजा के प्रश्न पर साधु उत्तर देता है—”यह मेरा प्रारब्ध था, किंतु मैंने इन दोनों स्थितियों का सामना समत्व भाव से किया। यही पुरुषार्थ है।”
यह उत्तर मानव जीवन के मूल स्तंभों में से एक को उद्घाटित करता है। जीवन में सुख और दुःख का आना-जाना प्रारब्ध के अधीन हो सकता है, लेकिन उन परिस्थितियों में हमारा मन कैसा रहता है, यह हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। यदि हम हर स्थिति को समभाव से स्वीकार कर लें, तो न तो सुख हमें मदांध करता है और न ही दुःख हमें तोड़ पाता है।
समत्व भाव गीता का एक केंद्रीय उपदेश है—”समत्वं योग उच्यते” अर्थात् समत्व ही योग है। यही भाव साधक को कर्म के बंधन से मुक्त करता है। साधु ने अपने जीवन से यह सिखाया कि न प्रशंसा में मन फूले, न अपमान में विचलित हो—यही सच्चा संतत्व है।
राजा की भूमिका भी शिक्षाप्रद है। वह शक्तिशाली है, फिर भी जब सत्य उसके सम्मुख आता है, तो वह अहंकार त्याग कर विनम्रता से अपनी भूल स्वीकार करता है। यह भी पुरुषार्थ का ही एक रूप है—सत्य के सम्मुख झुक जाना।
निष्कर्षतः, यह प्रसंग हमें जीवन का एक मूलभूत पाठ सिखाता है: प्रारब्ध से हम बच नहीं सकते, लेकिन पुरुषार्थ से हम उसे कैसे स्वीकारें और सहें, यह निश्चित कर सकते हैं। और जब यह पुरुषार्थ समत्व भाव से युक्त होता है, तो वह साधारण को भी साधु बना देता है और राजा को भी शिष्य बना देता है। यही मानव जीवन की सच्ची साधना है।