नई दिल्ली, 23 जून 2025: “जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है!” यह गगनभेदी नारा आज भी हर राष्ट्रभक्त के रोंगटे खड़े कर देता है। यह नारा उस अमर हुतात्मा डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का है, जिन्होंने कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। आज उनकी पुण्यतिथि पर देश उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है, लेकिन उनके बलिदान का रहस्य आज भी अनसुलझा है।
6 जुलाई 1901 को कोलकाता के एक प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे डॉ. मुखर्जी ने कम उम्र में ही अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। मात्र 33 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने, जो उस समय विश्व का सबसे युवा कुलपति होने का गौरव था। नेहरू सरकार में उद्योग मंत्री रहते हुए उन्होंने 1950 के नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना की, जो आज भारतीय जनता पार्टी के रूप में देश की राजनीति का आधार है।
डॉ. मुखर्जी का सपना था एक अखंड भारत, जहां “दो विधान, दो निशान, दो प्रधान” का कोई स्थान न हो। अनुच्छेद 370 के खिलाफ उनकी जंग तब शुरू हुई, जब जम्मू-कश्मीर में बिना परमिट प्रवेश पर रोक थी। उन्होंने बिना परमिट कश्मीर कूच का ऐलान किया। 1953 में कश्मीर पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में उनकी तबीयत बिगड़ी, और इलाज के दौरान कथित तौर पर उन्हें पेनिसिलिन का इंजेक्शन दिया गया, जिससे उन्हें एलर्जी थी। 23 जून 1953 को इस वीर सपूत ने अंतिम सांस ली। उनकी मां ने हत्या का आरोप लगाया, लेकिन जांच की मांग को अनसुना कर दिया गया।
आज भी सवाल वही है—क्या यह महज संयोग था या साजिश? डॉ. मुखर्जी का बलिदान बेकार नहीं गया। 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके सपने को साकार किया। उनके बलिदान की गाथा हर भारतीय के दिल में अमर है। न्यूज अड्डा इंडिया परिवार इस अवसर पर उन्हें नमन करता है और उनकी विरासत को जीवित रखने का संकल्प लेता है।
क्या कभी खुलेगा उनके बलिदान का रहस्य? यह सवाल आज भी गूंज रहा है।