N/A
Total Visitor
37.2 C
Delhi
Monday, June 23, 2025

हिंदू हिंसा पर वैश्विक सन्नाटा: दोहरे मापदंड की खुली पोल

विश्व भर में जब किसी समुदाय पर हिंसा होती है, अंतरराष्ट्रीय मीडिया, मानवाधिकार संगठन, राजनयिक मंच और डिजिटल अभियान तुरंत सक्रिय हो जाते हैं। लेकिन यह सक्रियता अक्सर एकपक्षीय दिखाई देती है। जब किसी मुस्लिम की हत्या होती है, वैश्विक मंचों पर हंगामा मच जाता है, सोशल मीडिया पर हैशटैग ट्रेंड करते हैं, और विश्व नेताओं की संवेदनाएं उमड़ पड़ती हैं। किंतु जब हिंदू समुदाय पर योजनाबद्ध हमले होते हैं, उन्हें “स्थानीय घटना” या “आपसी रंजिश” का नाम देकर नजरअंदाज कर दिया जाता है। यह दोहरा मापदंड केवल पत्रकारिता या सोशल मीडिया तक सीमित नहीं, बल्कि एक सुनियोजित भू-राजनीतिक रणनीति का हिस्सा बन चुका है।

उदाहरण के लिए, 2019 में न्यूजीलैंड की मस्जिद में हुई गोलीबारी एक दुखद घटना थी। इसकी वैश्विक निंदा हुई, नेताओं ने मुस्लिम परिधान पहनकर एकजुटता दिखाई, संसद में नमाज पढ़ी गई, और “We Are With Muslims” जैसे हैशटैग वायरल हुए। लेकिन क्या कभी 1990 के कश्मीरी हिंदू नरसंहार पर ऐसी वैश्विक संवेदना दिखी? क्या किसी देश की संसद ने “काफिरों, कश्मीर छोड़ो” के नारों की निंदा की? क्या किसी मानवाधिकार संगठन ने कश्मीरी हिंदुओं के पुनर्वास की मांग उठाई?

यह असमानता केवल कश्मीर तक सीमित नहीं है। बंगाल के मुर्शिदाबाद (2025) में हिंदुओं को निशाना बनाकर उनके घर जलाए गए, पानी के कनेक्शन काटे गए ताकि आग न बुझ सके। सैकड़ों हिंदुओं को घर छोड़ने को मजबूर किया गया। क्या इस पर कोई वैश्विक कैंडल मार्च हुआ? कश्मीर के पहलगाम (2025) में हिंदुओं की धार्मिक पहचान पूछकर, उनकी पैंट उतारकर खतना जांचा गया और हिंदू होने की पुष्टि के बाद उनकी हत्या की गई। क्या इस क्रूरता पर किसी इस्लामिक संगठन ने फतवा जारी किया?

इसी तरह, बांग्लादेश में 2016 के ढाका कैफे हमले में कुरान की आयतें न जानने वालों को गोली मार दी गई। पाकिस्तान में हर साल 10,000 से अधिक हिंदू लड़कियों का अपहरण, धर्मांतरण और जबरन विवाह कराया जाता है। क्या इन घटनाओं पर कोई वैश्विक आंदोलन हुआ? 2002 में गोधरा में रामभक्तों की ट्रेन बोगी को बाहर से बंद कर जिंदा जला दिया गया, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने केवल गुजरात दंगों को उछाला, न कि इस नरसंहार के कारणों की पड़ताल की।

नाइजीरिया में बोको हरम ने हजारों निर्दोषों की हत्या की, सैकड़ों स्कूली छात्राओं का अपहरण, बलात्कार और यातना की, लेकिन विश्व मंचों पर सन्नाटा रहा। सीरिया-इराक में यजीदी महिलाओं के साथ अमानवीय अत्याचार हुए, पर कोई इस्लामिक संस्था आगे नहीं आई। केन्या (2013) में 400 गैर-मुस्लिमों को चुन-चुनकर मारा गया, फिर भी कोई वैश्विक हंगामा नहीं हुआ।

जब हिंदू आत्मरक्षा में खड़ा होता है, उसे “उग्रवादी”, “हिंदुत्ववादी” या “फासीवादी” करार दिया जाता है। लेकिन उसी समय, इस्लामी आतंकी संगठनों को “दबी हुई आवाज” कहकर बचाया जाता है। यह दोहरा मापदंड न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि खतरनाक भी है। यदि वैश्विक मंच हिंदू-विरोधी हिंसा पर चुप्पी साधे रखेंगे और केवल एक समुदाय को सहानुभूति का एकाधिकार देंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब अन्य समुदाय भी अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए कठोर कदम उठाएंगे।

न्याय तभी संभव है, जब विश्व व्यवस्था सभी पीड़ितों के प्रति समान संवेदना दिखाए। हिंदुओं की पीड़ा को नजरअंदाज करना न केवल अनैतिक है, बल्कि यह वैश्विक शांति और सामंजस्य के लिए भी खतरा है। विश्व समुदाय को इस दोहरे मापदंड पर आत्ममंथन करना होगा, वरना इतिहास इसे कभी माफ नहीं करेगा।

Advertisement

spot_img

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

2,300FansLike
9,694FollowersFollow
19,500SubscribersSubscribe

Advertisement Section

- Advertisement -spot_imgspot_imgspot_img

Latest Articles

Translate »