हसमुख उवाच
अब भारतीय समाज में संकीर्णता और स्वार्थ की जीवंत प्रतिमांए अवतरित हो रही है, संकीर्णता और स्वार्थ की एक से एक प्रतिभाएं देश विदेश में अपने इस दुर्गुण का प्रदर्शन करके शरमिंदा नही होतीं वरन गर्व महसूस करती स्वयं को वह बुद्धि मानी का अवतार समझती हैं क्योंकि इस ब्रांड की प्रतिभा को भारत की सत्ता प्राप्त करनी है, इनका ध्येय वाक्य एक ही है _”अपना काम बन जाए बस! ” इसी ध्येय वाक्य को अपना जीवन सूत्र बनाने वालों की पैदाइश भी देश में मक्खी मच्छरों की तरह हो रही है, ऐसे लोग उस रीछ की तरह होते हैं जो अपने बाल किसी को नहीं देते,इसके विपरीत बेचारी भेड़ अपने बाल दे देती है जिसके स्वेटर और कंबल बनते हैं और लोगों को सर्दी से बचाते हैं, इसी कारण प्रकृति का भेड़ को वरदान है कि बाल कटने पर उसके शरीर पर फिर से नये बाल उग आते हैं, जब कि रीछ के बाल यदि एक बार उतर जाएं तो नये बाल नहीं आते!
हमारे परिचय में भी एक व्यक्ति हैं मुन्नादास !बहुत ही प्रेकटिकल आदमी हैं, इतने प्रेकटिकल हैँ कि उनकी जिंदगी में सिध्दांत नाम की कोई चीज़ नहीं रह गयी है, न तो उनमे कोई शर्म है न मर्यादा, दो रुपये का नोट भी यदि उन्हें नाली में पड़ा दिख जाए तो जमीन पर लेट कर मुंह के जरिए नाली में पड़ा नोट निकाल लेते हैं, चेहरे और वाणी का रूखापन उनका स्थाई स्वभाव है यदि कोई बात करते भी हों तो वाणी में खुरदरा पन हर किसी को महसूस हो ही जाएगा, मुस्करा कर बात न करने की उन्होंने मानो कसम ही खा रखी है, उनके भी जीवन का सूत्र यही है ” अपना काम बन जाए बस “
मुन्नादास का अनुभव हमें उस दिन हुआ जब एक दिन हम बिजली का बिल जमा करने विभाग के दफ्तर गए, बिल जमा करने वालों की लंबी लाइन लगी थी, हम भी लाइन में लगे, डेढ़ घंटे बाद हम काउन्टर से दो कदम की दूरी पर पंहुच गए थे, दो लोगों के बाद हमारा नंबर आना था, ठीक उसी समय मुन्नादास हमारे आसपास मंडराने लगे, ,उस दिन वो बड़े प्यार से हमारी ओर देखे जा रहे थे, उस दिन उनकी मुस्कराहट के तो क्या कहने, निकट आकर उन्होंने हमें बाहो में भरते हुए पूछा “कैसे है आप? ” सच,यकीन ही नहीं आ रहा था कि ये मुन्नादास ही हैं, वाणी तो मानो चाशनी में डूबी हुई थी,इसके बाद अपना बिल और पैसे हमें थमाते हुए बोले “प्लीज,तुम्हारा नंबर तो आ ही रहा है, मेरा भी जमा कर देना “
मुन्नादास की चाशनी से सनी वाणी ने हमें मोहित कर दिया, हम सोचने लगे कि मुन्नादास चाहे ऊपर से देखने में कुछ भी हो पर भीतर से साफ दिल के हैँ, इस धारणा के कारण उनका बिल जमा करने को हम तैयार हो गये, बिल जमा कर दिया, उनके बिल की रसीद भी ले ली, आकर हमने मुन्नादास को रसीद और बाकी पैसे भी दे दिये, जिन्हें मुन्नादास ने तुंरत लपका और पलट कर चल दिए, मुंह से धन्यवाद तक नहीं निकला, बाद में वह जब भी मिलते थे तब भी हम पर उचटती निगाह डालते हुए आगे बढ़ जाते थे, न राम राम न श्याम श्याम! तब हमने जाना कि मुन्नादास भी इसी तंगदिली के सूत्र का पालन कर रहे हैँ कि “अपना काम बन जाए बस “
आज समाज में प्यार, अपना पन, सहयोग इसी प्रवृत्ति के कारण गायब होते जा रहे हैँ, परंतु समाज की इस विडंबना को समझने किसी के पास समय नहीं है, एक लड़की के पिता को लड़के के पिता के सामने भिखारी की तरह पेश होना पड़ता है, ,वो कहता है कि मेरे पास लड़की के सिवा कुछ भी नहीं है, उसका मतलब उस समय यही होता है कि किसी तरह उसकी बेटी की शादी हो जाये, यानी “अपना काम बन जाए बस ” लेकिन जब वह अपने लड़के की शादी करता है तो स्वयं को महाराजा से कम नही समझता,उसके घर में लड़की के कभी रूप पर नुक्ताचीनी होती हैं तो कभी रंग पर! आंख, कान, नाक आदि सभी का मुआयना होता है। स्वार्थ के कीटाणु यह सोचने ही नहीं देते कि अपनी बेटी की तरह वह भी किसी की बेटी है, बरात भी लड़के की ऐसी निकाली जाती है कि लड़का घोडे पर पगड़ी पहने और तलवार कमर पर लगाए बारातियों संग ऐसा प्रतीत होता है मानो रिश्ता करने नही वरन किसी शत्रु देश पर चढ़ाई करने जा रहा हो!
इस समय स्वार्थ का रंग सभी पर चढ़ा हुआ है। स्वार्थ के अलावा कोई भी बात किसी की बुध्दि में नहीं घुस पाती, अपना काम बनाने की धुन में जो जितना गिरता है उसे उतना ही बुद्धि मान और व्यावहारिक व्यक्ति माना जाता है, मुन्नादास जैसे लोग धर्म ,राजनीति ,कला,दर्शन आदि सभी क्षेत्रों में उपस्थित हैं, जिनका एक ही सूत्र है कि “अपना काम बन जाए बस “, इसी लिये आज कल ऐसी कहावतों का भी अविष्कार हो चुका है ” अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता ‘ “न खाता न बही, जो नेता जी कहें वो सही “
अपसंस्कृति के दौर में देश सास्कृतिंक स्वयंत्रता और पुनरुथान की बाट जोह रहा है, हम भी प्रतीक्षा में हैं, क्योंकि हमारा बस इतना ही काम है, इसलिए हम भी चाहते हैं कि “अपना काम बन जाए बस ” लेकिन हमारी यह सोच स्वार्थ नहीं परमार्थ है!