वाराणसी, 8 जून 2025, रविवार: भारत का मध्यकालीन इतिहास, वह दौर जो वीरता, साहस और सांस्कृतिक वैभव की गाथाओं से भरा है, आज भी कुछ चुनिंदा नामों की छाया में सिमटता नजर आ रहा है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में नई शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत चार वर्षीय बीए-इतिहास के दूसरे सेमेस्टर का सिलेबस देखें, तो लगता है मानो इतिहास के पन्नों में सिर्फ तुगलक, खिलजी, बाबर और औरंगजेब ही चमक रहे हैं। लेकिन कहां हैं हमारे महाराणा प्रताप, राणा सांगा, और छत्रपति शिवाजी जैसे वीर? कहां हैं हल्दीघाटी की हुंकार और खानवा के रण? और दक्षिण भारत के उन शासकों की गौरव गाथाएं, जिन्होंने इतिहास को नई दिशा दी?
सिलेबस की कहानी: एक अधूरी तस्वीर
बीएचयू के इतिहास विभाग में मध्यकालीन भारत के पाठ्यक्रम को देखें, तो यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या भारत का इतिहास सिर्फ दिल्ली सल्तनत और मुगल साम्राज्य तक सीमित है? सिलेबस की चार यूनिट्स में तुर्कों का आगमन, तराईन का युद्ध, इल्तुतमिश, रजिया, बलबन, खिलजी क्रांति, अलाऊद्दीन की नीतियां, तुगलक वंश, बाबर का पानीपत युद्ध, अकबर का राजपूत प्रेम, और औरंगजेब का शासन छाया हुआ है। लेकिन एक शब्द—‘राजपूत’—के अलावा न तो राणा सांगा का खानवा युद्ध है, न महाराणा प्रताप की हल्दीघाटी की गूंज, और न ही शिवाजी के मराठा साम्राज्य की विजय पताका। दक्षिण भारत के शासकों का तो जिक्र ही न के बराबर है।

यह सिलेबस इतिहास की उस विशाल कैनवास को छोटा सा फ्रेम देता नजर आता है, जहां कई रंग, कई किरदार गायब हैं। विभाग के एक असिस्टेंट प्रोफेसर ने भी इस पर नाराजगी जताई है, और सवाल उठाया है कि आखिर क्यों मध्यकालीन भारत का इतिहास तुगलक और औरंगजेब के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है? यह मुद्दा अब यूजीसी और केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय तक पहुंच चुका है, और बहस छिड़ी है कि क्या नई शिक्षा नीति का वादा—भारतीय ज्ञान प्रणाली को पुनर्जनन—सिर्फ कागजों तक सीमित रह गया?
क्या है सिलेबस में?
आइए, एक नजर डालते हैं इस सिलेबस की रूपरेखा पर, जो मध्यकालीन भारत की कहानी को कुछ इस तरह बयां करता है:
यूनिट 1: तुर्कों के आगमन से पहले भारत का समाज और अर्थव्यवस्था, सामंतवाद, तराईन का युद्ध, और दिल्ली सल्तनत का उदय। इल्बारी तुर्कों की कहानी—इल्तुतमिश, रजिया, और बलबन।
यूनिट 2: खिलजी क्रांति का दौर—जलालुद्दीन, अलाऊद्दीन, शिहाबुद्दीन उमर, और मुबारक शाह। फिर तुगलक वंश—गयासुद्दीन, मुहम्मद बिन तुगलक, फिरोजशाह। इसके बाद सैय्यद और लोदी वंश के साथ दिल्ली सल्तनत का पतन।
यूनिट 3: पानीपत का पहला युद्ध, बाबर का उदय, हुमायूँ की उथल-पुथल, शेरशाह का शासन, और अकबर की राजपूत-धर्म नीतियां। जहांगीर और नूरजहां का जिक्र भी।
यूनिट 4: शाहजहां का स्वर्ण काल, औरंगजेब का राज, उत्तराधिकार की जंग, मनसब-जागीर व्यवस्था, मुगल स्थापत्य और चित्रकला, और अंत में मुगल साम्राज्य का पतन।
सिलेबस के अंत में कुछ किताबें सुझाई गई हैं, लेकिन सवाल वही—क्या यह पाठ्यक्रम मध्यकालीन भारत की पूरी तस्वीर पेश करता है?
विभाग का जवाब: बदलाव की हवा?
इतिहास विभाग के प्रमुख प्रो. घनश्याम का कहना है कि अभी तक दो सेमेस्टर का सिलेबस जारी हुआ है, और चार साल का टेंटेटिव सिलेबस तैयार है। जुलाई में बोर्ड ऑफ स्टडीज की बैठक में अगले साल का सिलेबस फाइनल होगा। दूसरी ओर, प्रो. राजीव श्रीवास्तव का आश्वासन है कि राजपूत, सिख, जाट, मराठा, और सतनामी जैसे समुदायों को मध्यकालीन इतिहास से जोड़ने की प्रक्रिया चल रही है, और जल्द ही इन्हें पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह बदलाव समय पर होगा, या इतिहास के विद्यार्थी पुराने सिलेबस की छाया में ही पढ़ते रहेंगे?
नई शिक्षा नीति: वादे और हकीकत
नई शिक्षा नीति ने भारतीय ज्ञान प्रणाली को पुनर्जनन करने का वादा किया था। लेकिन जब सिलेबस में हल्दीघाटी की गूंज, शिवाजी की वीरता, या दक्षिण भारत के शासकों की गाथाएं गायब हों, तो यह वादा अधूरा सा लगता है। दिल्ली विश्वविद्यालय में नई शिक्षा नीति के तहत चौथा सत्र शुरू हो चुका है, और वहां सिलेबस फाइनल हो गया है। लेकिन बीएचयू में बाकी सेमेस्टरों का सिलेबस अभी तक जारी नहीं हुआ है, जिससे विद्यार्थियों को प्रवेश से पहले पूरी तस्वीर देखने का मौका नहीं मिल रहा।
इतिहास को फिर से लिखने की जरूरत
मध्यकालीन भारत का इतिहास सिर्फ सल्तनतों और साम्राज्यों की कहानी नहीं है। यह उन वीरों की गाथा है, जिन्होंने अपनी माटी के लिए सब कुछ दांव पर लगाया। यह उन संस्कृतियों की कहानी है, जिन्होंने भारत को एक अनूठी पहचान दी। अगर हमारा सिलेबस इन कहानियों को जगह नहीं देता, तो हम अपने विद्यार्थियों को क्या सिखा रहे हैं?