नई दिल्ली, 4 जून 2025, बुधवार: यह कोई साधारण तस्वीर नहीं, यह भारत की आत्मा का जश्न है। यह केवल एक दृश्य नहीं, बल्कि एक ऐसे राष्ट्र का उद्घोष है जो अपने गुमनाम नायकों को गले लगाकर उनकी महानता को सलाम करता है। जब किसी देश के सच्चे सपूतों को भुला दिया जाता है, तब उसकी आत्मा कराहती है। लेकिन जब उन्हें सम्मान के शिखर पर बुलाया जाता है, तो वह आत्मा गर्व से खिल उठती है।
भीमाव्वा डोड्डाबलप्पा शिलेक्याथारा—96 वर्ष की एक ऐसी तपस्विनी, जिन्होंने कठपुतलियों के ज़रिए रामायण और महाभारत की कहानियों को जीवंत रखा। न तो वे कभी सुर्खियों में रहीं, न ही बौद्धिक मंचों की शोभा बनीं। फिर भी, उनकी उंगलियों ने भारत की सांस्कृतिक धड़कनों को थामे रखा। आज, एक नए भारत में, उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा गया है—यह सम्मान सिर्फ़ एक पुरस्कार नहीं, बल्कि दशकों की अनदेखी को पूर्णता देने वाला क्षण है।
क्या आपने 2014 से पहले ऐसी कहानियाँ सुनी थीं? एक झुकी कमर को सहारा देकर राष्ट्रपति भवन तक ले जाना—यह सिर्फ़ सम्मान नहीं, यह भारत माता के ज़ख्मों पर मरहम है। पहले के दौर में पुरस्कार अक्सर चमकते चेहरों और मीडिया के चहेतों तक सिमट जाते थे। लेकिन अब, यह नया भारत उन गुमनाम नायकों को सामने लाता है, जो अपनी कला और तप से संस्कृति की धरोहर को जीवित रखते हैं।
भीमाव्वा आज सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि भारत की उस आत्मा की प्रतीक हैं, जो अपनी जड़ों को गर्व से सहेजती है। यह तस्वीर, यह सम्मान, यह क्षण—यह सब उस भारत की कहानी है, जो अपने सच्चे रक्षकों को कभी नहीं भूलता।