सजा पूरी, रिहाई अधूरी: सुखदेव पहलवान और न्यायिक प्रक्रिया की उलझन
नई दिल्ली, 28 मार्च 2025, शुक्रवार। नितीश कटारा हत्याकांड, जो भारतीय न्याय व्यवस्था के इतिहास में एक चर्चित और संवेदनशील मामला रहा है, एक बार फिर सुर्खियों में है। इस बार मुद्दा दोषी सुखदेव पहलवान की रिहाई की मांग से जुड़ा है, जिसने अपनी 20 साल की सजा पूरी कर ली है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर दिल्ली सरकार तक, इस मामले में निर्णय लेने की प्रक्रिया में देरी और जटिलताओं ने कई सवाल खड़े किए हैं। आखिर क्यों एक दोषी की रिहाई का फैसला इतना पेचीदा हो गया है? क्या यह न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था की खामियों को उजागर करता है?
मामले की पृष्ठभूमि
साल 2002 में हुए नितीश कटारा हत्याकांड ने पूरे देश को झकझोर दिया था। नितीश कटारा की हत्या के लिए विकास यादव और सुखदेव पहलवान को दोषी ठहराया गया था। विकास यादव को 25 साल की सजा सुनाई गई, जबकि सुखदेव पहलवान को 20 साल की सजा मिली। सुखदेव ने 10 मार्च 2025 को अपनी सजा पूरी कर ली और इसके बाद उनकी रिहाई की मांग उठी। लेकिन यह मांग अब तक अधूरी है, क्योंकि दिल्ली सरकार और न्यायिक प्रक्रिया के बीच तालमेल की कमी साफ नजर आ रही है।
सुप्रीम कोर्ट का रुख और दिल्ली सरकार की देरी
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दिल्ली सरकार को कई बार समयसीमा दी। पिछली सुनवाई में कोर्ट ने 27 मार्च 2025 तक रिहाई पर फैसला लेने का निर्देश दिया था। इसके बावजूद, दिल्ली सरकार ने प्रक्रिया पूरी नहीं की। सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के अनुसार, रिहाई से पहले याचिकाकर्ता और शिकायतकर्ता दोनों को नोटिस जारी कर उनका पक्ष सुना जाना जरूरी है। यह प्रक्रिया अभी चल रही है, जिसके चलते कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सका।
जस्टिस अभय एस ओक की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस पर कड़ी टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि सरकार का रवैया ज्यादातर मामलों में ऐसा ही रहता है—आश्वासन तो दे दिए जाते हैं, लेकिन उनका पालन नहीं होता। कोर्ट ने यह भी मौखिक रूप से टिप्पणी की कि दिल्ली में सरकार बदलने के बावजूद हालात में कोई सुधार नहीं आया है। अब सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार को 22 अप्रैल 2025 तक इस मामले में अंतिम निर्णय लेने का निर्देश दिया है।
प्रक्रिया में देरी के कारण
दिल्ली सरकार ने सफाई दी कि 3 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में दिया गया आश्वासन पूरा नहीं हो सका, क्योंकि हाई कोर्ट के निर्देशों का पालन करना जरूरी था। नोटिस जारी करने और पक्ष सुनने की प्रक्रिया में समय लग रहा है। लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या यह प्रक्रिया पहले शुरू नहीं की जा सकती थी? सुखदेव की सजा पूरी होने की तारीख पहले से तय थी, फिर भी सरकार ने समय पर कदम क्यों नहीं उठाए? यह देरी न केवल प्रशासनिक सुस्ती को दर्शाती है, बल्कि पीड़ित पक्ष के लिए भी अनिश्चितता का कारण बन रही है।
क्या कहता है यह मामला?
नितीश कटारा हत्याकांड और सुखदेव पहलवान की रिहाई का यह प्रकरण भारतीय न्याय व्यवस्था और प्रशासन के बीच समन्वय की कमी को उजागर करता है। एक ओर जहां सजा पूरी कर चुके दोषी को रिहाई का अधिकार है, वहीं दूसरी ओर पीड़ित पक्ष को भी यह भरोसा चाहिए कि उनकी आवाज सुनी जाएगी। इस मामले में देरी से न केवल कानूनी प्रक्रिया पर सवाल उठते हैं, बल्कि यह भी बहस छिड़ती है कि क्या दोषियों की रिहाई के लिए एक स्पष्ट और समयबद्ध नीति की जरूरत है?
आगे की राह
सुप्रीम कोर्ट का 22 अप्रैल तक का अल्टीमेटम इस मामले में निर्णायक साबित हो सकता है। लेकिन यह भी जरूरी है कि दिल्ली सरकार इस बार समयसीमा का पालन करे और पारदर्शी तरीके से फैसला ले। नितीश कटारा के परिवार के लिए यह मामला सिर्फ कानूनी नहीं, बल्कि भावनात्मक भी है। वहीं, सुखदेव पहलवान की रिहाई का इंतजार भी एक मानवीय पहलू को सामने लाता है।
न्याय का तकाजा यही है कि दोनों पक्षों को सुना जाए और फैसला समय पर हो। यह मामला न केवल नितीश कटारा हत्याकांड के दोषियों के भविष्य को तय करेगा, बल्कि यह भी दिखाएगा कि भारत की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था कितनी प्रभावी ढंग से काम कर सकती है। क्या 22 अप्रैल तक इस गुत्थी का हल निकलेगा? यह समय ही बताएगा।