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Friday, June 27, 2025

मैंने तीन सदियाँ देखी हैं (13)

एक भूला बिसरा राजनेता गुलज़ारीलाल नंदा

वरिष्ठ पत्रकार- त्रिलोक दीप

आज राजनीतिक और आम लोग भी जिस राजनेता को भूल से गये हैं या कम याद करते हैं उनका नाम है गुलज़ारीलाल नंदा ।सरल,सहज और उजली छवि वाला यह कोई आम नेता नहीं बल्कि दो बार देश का कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहा है और तीन प्रधानमंत्रियों पंडित जवाहरलाल नेहरू,लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारों में गृहमंत्री ।यह भी ऐतिहासिक सच्चाई है । उन्हें लोग प्रेम और आदर से नंदा जी कहकर संबोधित किया करते थे ।
नंदा जी स्वाधीनता संग्राम में खासे सक्रिय रहे ।1921
में उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया तथा 1932 में सत्याग्रह आंदोलन और 1942-44 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय उन्हें जेल भी जाना पड़ा । 1937 से 1939 तथा 1947 से 1950 तक वह बॉम्बे की विधनसभा में विधायक रहे ।1947 में इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन की स्थापना का श्रेय नंदा जी को ही जाता है ।वह योजना आयोग के पहले उपाध्यक्ष थे ।1950-51,1952-53 और 1960 से 1963 तक वह इसी पद पर रहे।उन्होंने योजना आयोग के सदस्य तरलोक सिंह,आईसीएस के सहयोग से पंचवर्षीय योजना बनायी । दरअसल वह पंडित नेहरू की सरकार में 24 सितम्बर, 1951 से लेकर 13 मई, 1952 तक योजना मंत्री रहे जबकि 13 मई,1952 से 6 जून,1952 तक योजना आयोग के साथ नदी घाटी योजना जुड़ गया और 6 जून, 1952 से 17 अप्रैल, 1957 तक सिंचाई और बिजली मंत्री का ज़िम्मा भी ।17 अप्रैल, 1957 से 10 अप्रैल, 1962 तक वह श्रम,रोज़गार और योजना मंत्री रहे और 10 अप्रैल, 1962 से 24 जनवरी, 1964 तक श्रम और रोज़गार मंत्री ।
1 सितम्बर,1963 से 27 मई, 1964, 9 जून, 1964 से 11 जनवरी,1966 और फिर 24 जनवरी, 1966 से 9 सितम्बर, 1966 तक वह गृहमंत्री रहे अर्थात पंडित नेहरू,लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारों में ।मई, 1964 तथा 11 जनवरी,1966 में जब वह कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे तो उनके पास गृह मंत्रालय के साथ साथ परमाणु ऊर्जा मंत्रालय भी था ।पंडित नेहरू के निधन के बाद तो विदेश मंत्रालय का काम भी उन्हीं के जिम्मे था क्योंकि पंडित नेहरू ने कोई विदेशमंत्री नहीं रखा था,केवल लक्ष्मी मेनन राज्य विदेशमंत्री थीं ।18 फरवरी,1970 से 18 मार्च, 1971 तक वह रेल मंत्री भी रहे और दोनों सालों का रेल बजट उन्होंने ही पेश किया था ।तब सामान्य और रेल बजट अलग-अलग पेश हुआ करते थे ।इसके बाद नंदा जी ने राजनीति से यह कहते हुए रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था कि उन्हें उस दौर की राजनीति पसंद नहीं थी । यह भी संभव है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के समय नंदा जी को जो अहमियत मिला करती थी वैसी इंदिरा गांधी से न मिली हो ।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच नौकरशाही का बंटवारा हो गया ।ये सभी बड़े नौकरशाह आईसीएस अर्थात इम्पीरियल सिविल सर्विस के अधिकारी हुआ करते थे, भारत की अपनी केंद्रीय सेवाओं का गठन तो 1950 में एक अधिनियम के अनुसार हुआ ।इसके मुताबिक आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा),आईएफएस, (भारतीय विदेश सेवा) तथा आईपीएस (भारतीय पुलिस सेवा) के साथ साथ कुछ सम्बद्ध सेवाओं के लिए भर्ती का प्रवधान रखा गया । जब तक इस अधिनियम के तहत भर्ती होती विरासत में मिले इन आईसीएस अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया गया ।योजना आयोग का सदस्य बनने से पहले तरलोक सिंह ने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के पहले निजी सचिव की जिम्मेदारी का निर्वाहन किया।वह पंजाब में पुनर्वास महानिदेशक भी रहे जो शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए जिम्मेदार थे ।उन्होंने भारत की पहली पंचवर्षीय योजना भी लिखी थी योजनामंत्री गुलज़ारीलाल नंदा के निर्देशन में ।
अन्य जिन प्रमुख आईसीएस अधिकारियों के नाम याद पड़ते हैं वे इस प्रकर हैं: चंदूलाल माधव लाल त्रिवेदी, पंजाब के राज्यपाल, सी डी देशमुख(सर चिंतामणि द्वारका नाथ देशमुख) भारतीय रिज़र्व बैंक के प्रथम भारतीय गवर्नर (1943-1949) तथा भारत के वित्तमंत्री(1950-1956) बने जॉन मथाई के स्थान पर, 1955 में तो कई छोटे बैंकों के साथ इम्पीरियल बैंक के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से स्टेट बैंक का गठन किया तथा बीमा कंपनियों का एकजुट कर उन्होंने ही भारतीय जीवन निगम का गठन किया ।सी डी देशमुख विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष रहे (1956-61), राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के संस्थापक अध्यक्ष थे,दिल्ली विश्वविद्यालय के दसवें कुलपति (1962-67) 1969 में उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव भी लड़ा लेकिन पराजित हो गये ।दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के संस्थापक भी सी डी देशमुख ही थे । सुकुमार सेन,भारत के मुख्य
चुनाव आयुक्त,केपीएस मेनन, भारत के प्रथम विदेश
सचिव,एन आर पिल्लई,भारत के प्रथम कैबिनेट
सचिव,गिरिजा शंकर बाजपेयी,महाराष्ट्र के राज्यपाल, सुबिमल दत्त,विदेश सचिव, धर्म वीर, कैबिनेट सचिव,पश्चिम बंगाल, पंजाब,हरियाणा और कर्नाटक के राज्यपाल, भैरव दत्त पांडे,पश्चिम बंगाल के राज्यपाल , लल्लन प्रसाद सिंह,असम के राज्यपाल,लक्ष्मीकांत झा,अमेरिका में भारतीय राजदूत (1970-73), रिज़र्व बैंक के गवर्नर (1967-70) प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के सचिव (1964-66), जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल (1973-1981) तथा 7 जुलाई,1986 से 16 जनवरी,1988 तक राज्यसभा के सदस्य, हरिभाई एम पटेल (एच एम पटेल के नाम से प्रसिद्ध,)भारत के रक्षा सचिव (7 अक्टूबर,1947 से 20 जुलाई,1953), साबरकांठा से लोकसभा सदस्य और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की सरकार में गृह एवं वित्त मंत्री (1977-79), एम एस रंधावा,चंडीगढ़ के मुख्य आयुक्त, महाराज श्री नागेन्द्र सिंह,अंतररारष्ट्रीय न्यायालय हेग के अध्यक्ष,आदित्य नाथ झा,भारत सरकार में सचिव,उत्तरप्रदेश के मुख्य सचिव,दिल्ली के प्रथम उपराज्यपाल, के बी लाल,रक्षा सचिव,त्रिलोकी
नाथ कौल,राजदूत और विदेश सचिव, गोविंद नारायण
कर्नाटक के राज्यपाल,एस जगन्नाथन,रिज़र्व बैंक के गवर्नर,निर्मल कुमार मुकर्जी ,पंजाब के राज्यपाल, 8वें
गृह सचिव, 13वें कैबिनेट सचिव और भारत सरकार में अंतिम आईसीएस अधिकारी, भगवान सिंह,फिजी में भारतीय उच्चायुक्त,किशन चंद,दिल्ली के
उपराज्यपाल आदि ।कपूर सिंह पंजाब में आईसीएस का कार्यकाल पूरा करके शिरोमणि अकाली पार्टी में शामिल हो गये ।वह एक बार लोकसभा का सदस्य
(1962-67) और पंजाब विधानसभा के विधायक
1969 से 1972 तक रहे।वह सिख बुद्धिजीवी और
सिख धर्म और राजनीति के बारे में लिखते थे। उन्हें सिख ‘धर्म के प्रोफेसर’ के नाम से भी जाना जाता है । अंग्रेज़ी,पंजाबी,हिंदी,फारसी,अरबी और संस्कृत के विद्वान सरदार कपूर सिंह ने 1973 में अकाली दल के आनंदपुर साहब प्रस्ताव को लिखा था जिसमें पंजाब और सिख समुदाय के अधिकारों की मांग की गयी थी।
तरलोक सिंह की योजना आयोग में भूमिका के चलते इतने प्रमुख आईसीएस अधिकारियों के बारे में लेखाजोखा देने की एक वजह थी ।एक बार मैंने गुलज़ारीलाल नंदा से पूछा कि इन आईसीएस अफसरों के साथ काम करने में आपको दिक्कत पेश नहीं आती,क्योंकि इनकी सोच पर अंग्रेज़ी हुक्मरानों का असर होगा… मेरी बात काटते हुए नंदा जी ने बताया कि ‘ऐसा बिल्कुल नहीं ।स्वंतत्र भारत में आज जिस शिद्दत के साथ ये अधिकारी काम कर रहे हैं आप उसकी कल्पना नहीं कर सकते ।जहां तक तरलोक सिंह की बात है इनका पंजाब में पुनर्वास महानिदेशक के तौर पर काम देख चुका हूं और उन्हें तो मैं पंडित नेहरू के निजी सचिव के तौर से भी जानता हूं ।आपको सरकार से जुड़े इन अधिकारियों के अपने देश की बहबूदी के लिए समर्पण और लगन की भावना देखकर लगेगा कि ये अंग्रेज़ों के नहीं हमारे देश को मिली आजादी को पुख्ता करने के स्तंभ हैं ।’इस संदर्भ में मेरी तरलोक सिंह जी से बात हुई थी ।उन्होंने बताया कि नौकरशाही का काम सत्तारूढ़ सरकार की नीतियों को कार्यन्वित करना होता है जो हम सभी अधिकारी बड़ी ही ईमानदारी के साथ कर रहे हैं ।पाकिस्तान से जितनी तादाद में उजड़ कर शरणार्थियों का सैलाब आया था उससे निपटना कोई आसान काम नहीं था,हम सभी अधिकारियों ने दिनरात एक करके इनके पुनर्वास का काम किया ।देश के उत्थान की दिशा में जिस पंचवर्षीय योजना की कल्पना प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की सरकार ने की थी उसका पहला प्रारूप मैंने सरकार को सौंप दिया है,मुझे खुशी है कि उसे स्वीकृति मिल गयी है ।
कई आईसीएस अधिकारियों से मिलने के मुझे अवसर मिले ।कुछ से लोकसभा सचिवालय (1956-65) में काम करते हुए और कुछ से ‘दिनमान'(1965-89) में रहते हुए ।लोकसभा और राज्यसभा सचिवालय उन दिनों गोल वाली बिल्डिंग में था ।यहीं उन दिनों सुप्रीम कोर्ट भी था और संसदीय कार्य मंत्रालय भी ।लोक सभा सचिवालय में उन दिनों कुछ चुनिंदा और विशेष शाखायें थीं और कर्मचारियों की संख्या भी सीमित थी ।कर्मचारियों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं हुआ करता था। जिन प्रमुख शाखाओं का सांसदों और मंत्रियों से मिलना जुलना रहता था वह प्रमुखतया तीन शाखाएं थीं: टेबल ऑफ़िस, लेजिस्लेटिव ब्रांच और क्वशन ब्रांच ।मैं लेजिस्लेटिव ब्रांच में काम करता था जहां सरकारी और गैरसरकारी दोनों के कामों की कार्यसूची बनती थी-गैरसरकारी का तात्पर्य सांसदों के विधेयकों और संकल्पों पर कार्य ।सांसदों का
पीएनओ यानी पार्लियामेंटरी नोटिस ऑफ़िस में और पब्लिकेशन काउंटर पर आना जाना रहा करता था ।एक बार किन्हीं कागजों पर दस्तखत लेने के लिए मुझे वित्तमंत्री सी डी देशमुख के पास भेजा गया ।बहुत ।ज़हीन व्यक्ति थे कागज़ों को देखकर जब उन्होंने हस्ताक्षर कर दिये तो मैंने सहमते हुए उनसे कहा कि क्या मैं आपसे एक सवाल पूछ सकता हूं ।उन्होंने हामी भरते हुए कहा ‘हां,पूछिये।’ मैंने पूछा कि बैंकों और बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करने के विरोध में आप पर दबाव नहीं पड़ा था ।उन्होंने एकबारगी मुझे गौर से देखा,’बिल्कुल पड़ा था।मुझ पर ही क्यों प्रधानमंत्री पंडित नेहरू पर भी लेकिन हम लोग अपने फैसले पर वैसे ही अडिग रहे जैसे सरदार वल्लभभाई पटेल देसी रियासतों का भारत में विलय करते समय ।हमारा काम देश भर में छितरी वित्तीय संस्थाओं को एकजुट करना था जो आसान काम नहीं था लेकिन हम लोगों ने इसे देशहित में ज़रूरी माना ।’ फिर मुझे घूरते हुए बोले,आप तो लोकसभा में काम करते हैं,फिर यह पत्रकारों जैसा शौक क्यों ।मैंने साहस बटोरते हुए उत्तर दिया था,’लिखने पढ़ने का कुछ शौक है इसीलिए ।मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा था कि मेरी धृष्टता के लिए मुझे माफ कर दीजियेगा।’ उन्होंने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा ‘नहीं, मेरा तो आपको आशीर्वाद है ।अपने इस शौक को जारी रखिये ।मैं कहीं भी होऊँ आप मुझे मिलने के लिए आ सकते हैं ‘।यह बात है 1956 की ।
ऐसे ही जिन दिनों लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे तो उनसे मिलने जाने के लिए मुझे लक्ष्मीकांत झा से मिलकर जाना होता था ।एक बार उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया कि ‘आप शास्त्री जी को कैसे जानते हैं ‘।मैंने कहा कि लोकसभा सचिवालय में काम करते हुए ।
इसी प्रकार कपूर सिंह से भी लोकसभा में मुलाकात हुई थी ।अपनी बहुत बड़ी पगड़ी से वह पहचाने जा सकते थे ।उन्होंने सिखों के साथ ज़्यादतियों की बात करते हुए बताया था कि इसका मुझे खामियाज़ा भी भुगतना पड़ा ।लेकिन मेरी मुहिम जारी रहेगी ।उन्होंने बताया कि एक बार कैम्ब्रिज में कुछ मुसलमान छात्र यह प्रचार करते घूम रहे थे कि पूरा पंजाब पाकिस्तान को मिलना चाहिये तो मैंने सिख अस्मिता की बात की थी ।मोहम्मद अली जिन्ना से भी मेरे सौहार्दपूर्ण संबंध थे ।उन्होंने कहा था कि ऐसी कोई बात नहीं है ।1933
के आईसीएस कपूर सिंह ने विभिन्न प्रशासनिक पदों पर काम किया था । कुछ लोगों ने कपूर सिंह पर मुसलमानों के साथ भेदभाव का आरोप लगाया था ।इसे मुद्दा बनाकर उस समय के पंजाब के राज्यपाल चंदूलाल त्रिवेदी ने पंडित नेहरू से शिकायत की जिसके चलते उन्हें सिविल सेवा से निलंबित कर दिया गया जिसे कपूर सिंह राज्यपाल त्रिवेदी की पुरानी रंजिश मानते हैं आईसीएस के दिनों की ।त्रिवेदी भी आईसीएस थे ।कपूर सिंह को कभी बहाल नहीं किया गया ।उन्होंने सिखों के बारे में अपनी एक पुस्तक मुझे भेंट की थी जिसे मैंने एक लाइब्रेरी को डोनेट कर दिया ।
दिल्ली के उपराज्यपाल किशन चंद से राज निवास पर दो बार लंच के लिए गया था ।तब मैं ‘दिनमान’ में काम करता था ।मेरे साथ मेरे एक सहयोगी महेश्वर दयालु
गंगवार भी थे ।आईसीएस अधिकारी की तरह लंच से पहले जिन टॉनिक पेश किया गया ।राज्यपाल के निजी सचिव आईएएस नवीन चावला थे (बाद में मुख्य चुनाव आयुक्त)। उनसे भी मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी थी ।उन्होंने मदर टेरेसा के साथ बहुत काम किया था ।उन पर लिखी एक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में मुझे भी बुलाया गया ।मदर टेरेसा से यह मेरी पहली भेंट थी ।किशन चंद जी बहुत अच्छे मेजबान थे और उनसे अच्छी ‘कॉपी’ मिलती थी ।बाद में उनका संदिग्ध अवस्था में निधन हो गया ।
धर्म वीर से भी मेरी मुलाकात थी ।पहली नवंबर,1966 में वह हरियाणा राज्य के पहले राज्यपाल थे । उन्हें दो मुख्यमंत्रियों के साथ काम करना पड़ा-पंडित भागवत दयाल शर्मा और राव वीरेंद्र सिंह ।क्योंकि हरियाणा बिना मांगे तश्तरी में रखकर मिल गया था अपने अनुभव के ज़रिये धर्म वीर ने इन दोनों मुख्यमंत्रियों की नये मिले राज्य में अनौपचारिक तौर पर प्रशासन चलाने में मदद की ।क्योंकि वह पंजाब के भी राज्यपाल थे जहां उन्होंने तीन मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया-राम किशन,गुरमुख सिंह मुसाफिर और जस्टिस गुरनाम सिंह ।पहले दो कांग्रेसी थे जबकि गुरनाम सिंह अकाली पार्टी के थे और उनकी साझा सरकार थी ।राम किशन संभवतः दूसरे गैर सिख मुख्यमंत्री थे भीमसेन सच्चर के बाद। इन दो राज्यों में धर्म वीर की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी जिसके बारे में उनसे कई बार चर्चाएं हुआ करती थीं । दिलचस्प बात यह है कि ज़्यादातर आईसीएस अधिकारी उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध जन्मा थे ।
गुलज़ारीलाल नंदा भारत सेवक समाज के संस्थापक थे जिसके चलते उन्होंने मिलावट और भ्रष्टाचार के विरुद्ध न केवल आवाज़ उठायी बल्कि लोकपाल के लिए लोकायुक्त गठन के माध्यम से रास्ता भी बनाया ।भारत सेवक समाज के अतिरिक्त नंदा जी ने
भारत साधु समाज की नींव रखी ।उन्होंने मानवीय मूल्यों से जुड़ी कई धार्मिक और आध्यात्मिक संस्थाओं का गठन किया ।प्रमुख हैं:सनातन महावीर दल, राष्ट्रीय लोक सेना,कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड,नव जीवन संघ,मानव धर्म सम्मेलन आदि ।श्रमिकों और औद्योगिक क्षेत्रों में दो दर्जन से अधिक संस्थाएं स्थापित कीं ।उन्होंने कुरुक्षेत्र विकास मंडल को महाभारत से जुड़े तीर्थों के कायाकल्प के लिए योजना बना कर उसे पंजीकृत कराया ।वह श्रम और रोज़गार मंत्री भी रहे ।उनमें राजनेताओं जैसी ठसक नहीं थी ।वह सीधे-साधे और सामान्य व्यक्ति थे लेकिन राजनीति की बारीकियां और इंसानी फितरत से वाकिफ थे पर बोलते कुछ नहीं थे ।गुलज़ारीलाल नंदा को पहले पद्म विभूषण से नवाजा गया और 1997 में देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया ।
4 जुलाई, 1898 में अविभाजित भारत के सियालकोट (अब पाकिस्तान) में जन्मे गुलज़ारीलाल
नंदा की प्राथमिक शिक्षा सियालकोट में ही हुई जबकि उन्होंने लाहौर के फ़ोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज तथा
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन किया।उन्होंने कला संकाय में स्नातकोत्तर और कानून की स्नातक की उपाधि प्राप्त की ।सियालकोट जम्मू के करीब स्थित है जिसे आज पाकिस्तान के व्यवसायों और उद्योगों का केंद्र माना जाता है । सियालकोट को फुटबाल निर्माण का मसीहा माना जाता है ।दुनिया भर के देशों में सबसे अधिक 70 प्रतिशत फुटबाल अकेले सियालकोट में बनते हैं ।इस नगर को खेलकूद का सामान बनाने वाले पाकिस्तान के प्रमुख नगरों में माना जाता है ।
मुझे भारत पाकिस्तान से जुड़े बॉर्डर देखने की तीव्र इच्छा रहती है शायद अपने अतीत के चलते ।वाघा बॉर्डर मैंने दोनों तरफ से देखा है भारत की तरफ से भी और 1990 में अपनी पाकिस्तान की यात्रा के दौरान लाहौर की ओर से भी ।मैंने इछोगिल नहर भी देखी है जिसे 1965 में भारतीय सेना ने लाँघ कर पाकिस्तान में प्रवेश कर लिया था और लाहौर शहर से महज़ दस किलोमीटर दूर रह गयी थी कि युद्धविराम हो गया ।फिरोजपुर के करीब हुसैनीवाला बॉर्डर भी देखा है और वह राष्ट्रीय शहीद स्मारक भी जहां 23 मार्च,1931 को भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु का अंतिम संस्कार किया गया था ।राजस्थान में मैं गदरा रोड तक गया हूं जो 1965 में भारत के कब्ज़े में अ गया था ।जम्मू मेरा अक्सर जाना होता था ।एक दिन ‘संडे मेल’ के विशेष संवाददाता अश्वनी कुमार मुझे जम्मू-सियालकोट बॉर्डर दिखाने के लिए ले गये ।पाकिस्तान वाले भाग में मैं कुछ दूर तक चला गया पाकिस्तानी सैनिकों की इज़ाजत से ।वहां खड़े खड़े मैं अतीत में खो गया ।साथ खड़े अश्वनी कुमार ने मुझे झकझोरते हुए कहा कि ‘सर, आपको रावलपिंडी याद हो आयी क्या!’ मैंने कहा,हां,बचपन की यादें जो जुड़ी हुई हैं ।’
जम्मू में कुछ लोगों को अभी तक याद है कि सियालकोट से कितनी बड़ी संख्या में श्रद्धालु वैष्णो देवी माता के दर्शन करने के लिए यहां से होकर जाया करते थे। गुलज़ारीलाल नंदा भी अपने परिवार के साथ गये थे। जम्मू में ही एक व्यक्ति ने सियालकोट के पाकिस्तान में जाने को लेकर एक दर्दनाक कहानी सुनाते हुए कहा कि यदि हमारे पुरखे आपस में बंटे न होते तो आज सियालकोट जैसा समृद्ध ज़िला भारत का भाग होता ।उनका कहना है कि विभाजन के समय सियालकोट में मुस्लिम तथा हिंदू और सिखों की जनसंख्या का आंकड़ा लगभग समान था जिससे अंग्रेज शासकों के लिए यह तय करना मुश्किल हो रहा था कि इसे किस देश में मिलाया जाये ।1946 में हिंदुओं-सिखों की आबादी करीब ढाई लाख थी और मुस्लिम भी इसी के आसपास थे । लिहाजा यहां जनमत संग्रह की प्रणाली अपनाई गयी ।हिंदुओं और मुसलमानों में से एक-एक नेता चुना गया और लोगों से अपनी राय बताने को कहा गया कि उन्हें इनमें से कौन पसंद है ।जिस समुदाय के नेता को ज़्यादा वोट मिलेंगे सियालकोट उसी देश को सौंपा जायेगा ।काफी प्रचार हुआ ।हिंदू आश्वस्त थे कि आबादी के लिहाज़ से फैसला हमारे हक़ में होगा और सियालकोट भारत का
भाग बनेगा लेकिन हुआ इसके उलट ।बहुत से हिंदुओं ने मुसलमान नेता के पक्ष में मत दे पासा ही पलट दिया जिसका खामियाज़ा 15 अगस्त, 1947 के दिन विभाजन के समय उन्हें अपनी जान-माल-इज़्ज़त गंवा कर चुकाना पड़ा ।बताया जाता है सियालकोट में भयंकर कत्लेआम हुआ और जिन हिंदुओं ने
मुसलमान नेता के पक्ष में मतदान किया वही सब न केवल अपनी जान से हाथ धो बैठे बल्कि अपना जमा जमाया कारोबार भी गंवा बैठे ।उस समय खेल कूद के सामान पर हिंदुओं का एकाधिक हुआ करता था ।
गुलज़ारीलाल नंदा के साथ की मुझे कई मुलाकातें याद हैं ।जब मैंने पंजाबी में बोलते हुए इस प्रसंग के बारे में पूछा तो उन्होंने हिंदी में जवाब देते हुए कहा,’सुना तो मैंने भी है ।क्योंकि मैं सियालकोट से बाहर रहता था इसकी मुझे विस्तृत जानकारी नहीं ।1921 में महात्मा गांधी से जब मेरी मुलाकात हुई तो उन्होंने मुझसे गुजरात बस जाने का अनुरोध किया था ।तब से मैं गुजरात में ही हूं और सियालकोट से मेरा राब्ता नहीं के बराबर है ।’आप तो पंजाबी हैं फिर वह भाषा बोलते क्यों नहीं ।जवाब दिया क्योंकि अब मैं पंजाब से बाहर रहता हूं इसलिए आदत नहीं रही,समझ लेता हूं ।इस पर मैंने उन्हें रवींद्रनाथ टैगोर का प्रसंग सुनाया ।बलराज साहनी शांतिनिकेतन में अंग्रेज़ी पढ़ाते थे और लिखते भी उसी भाषा में थे ।एक दिन टैगोर ने उनसे पूछा कि आपकी मातृभाषा क्या है ।बलराज ने कहा कि पंजाबी ।इस पर टैगोर ने उन्हें बताया कि अंग्रेज़ी मैं भी जानता हूं लेकिन लिखता मैं बंगला में हूं वह इसलिए क्योंक अपनी मातृभाषा में अपने विचारों की अभिवक्ति सही ढंग से कर सकता है,हो सकता बंगला में जो शब्द और मनोभाव हैं वैसे अंग्रेज़ी में न हों।
यही बात टैगोर ने जब सच्चिदानंद हीरानंद वत्स्यायन
अज्ञेय से पूछी तो उनका उत्तर था कि पैदा तो मैं कुशीनगर, उत्तरप्रदेश में हुआ हूं लेकिन मेरी मातृभाषा पंजाबी है जिसे मैं लिख-पढ़-बोल सकता हूं लेकिन हिंदी के साथ साथ मैं बंगला में अधिक सहज हूं। उसमें न केवल लिखता हूं बल्कि बहुत से क्लासिक बंगला साहित्य का अनुवाद हिन्दी में भी किया है ।टैगोर उनके उत्तर से संतुष्ट हो गये । इस पर मैंने नंदा जी से पूछा,क्या आप टैगोर से मिले हैं ।उन्होंने हामी भरते हुए बताया कि उन्होंने मुझ से मातृभाषा का सवाल पूछा था ।यह सुनकर कि मैं पंजाबी हूं तो उनका सुझाव था कि इस बात को सदा याद रखना और इसका मान भी रखना । दूसरी-तीसरी मुलाकात में नंदा जी ने मुझे बताया कि पंजाबी भाषी लोगों से वह पंजाबी में ही बात करते हैं । फिर मुझ से क्यों नहीं। नंदा जी हंसे और बोले, ‘ऐसे ही ।’
मतलब यह कि पंजाबी के साथ आप गुजराती भी बोलने लगे थे,अंग्रेज़ी तो आप जानते ही थे ।अब उनके टोकने की बारी थी।नहीं मैं हरियाणवी भी बोल लेता हूं ।वहां मैंने बहुत से सामाजिक और आध्यात्मिक कार्य किए हैं ।इसीलिए शुरू शुरू में तो आप गुजरात के साबरकांठा से चुनाव लड़ते थे बाद में हरियाणा के कैथल में पहुंच गये । वह शायद इसलिये क्योंकि हरियाणा से मेरे कई सामाजिक सरोकार जुड़े हुए हैं ।1967 और 1971 का लोकसभा चुनाव मैंने कैथल से लड़ा और जीता । इसके बाद मैं फिर से सामाजिक कार्यों से जुड़ गया, राजनीति से तौबा कर ली । हम गांधी के बताये रास्ते पर चलने वाले सिद्धांतवादी लोग हैं ।
स्वाधीनता संग्राम के दिनों में कांग्रेस ही अग्रणी पार्टी थी फिर क्या कारण है कि 1957 में केरल के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला और वहां पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ।नंदा जी ने बताया था कि हालांकि उस समय मैं गृहमंत्री नहीं था,गोविंदवल्लभ पंत जी थे,इसलिए सरकार का अंग होने के कारण मैं इसे कांग्रेस की हार नहीं मतदाताओं की अभिव्यक्ति मानता हूं । केरल के मुख्यमंत्री रहे ईएमएस नम्बूदरिपाद जो केरल के दो बार (1957-59 और 1967-69) मुख्यमंत्री रहे भारतीय कम्युनिस्ट और राजनीतिक सिद्धांतकार थे और वह भारतीय गणराज्य के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने ।1964 में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के एक गुट का नेतृत्व किया जिसने अलग होकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया और जिसके वह 14 बरस तक महासचिव रहे । ईएमएस से मेरी मुलाकात मार्क्सवादी पार्टी के महासचिव हरकिशन सुरजीत ने दिल्ली में करवाई थी। यह वही हरकिशन सुरजीत हैं जिनके प्रयासों से पहले 1996-97 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के पतन के बाद एच डी देवगौड़ा और इंदरकुमर गुजराल की संयुक्त मोर्चे की सरकारें बनीं और 2004 के लोक सभा चुनाव के परिणामस्वरूप वह संयुक्त
प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार बनाने में प्रमुख सहायक रहे और अपनी पार्टी के सोमनाथ चट्टर्जी को लोकसभा का अध्यक्ष पद स्वीकार करने के लिए राज़ी किया ।मुझे ईएमएस बड़े ही तपाक से मिले ।जब मैंने 1957 में केरल में पहली कम्युनिस्ट सरकार के गठन के बारे पूछा तो उन्होंने इसे मतदाताओं का ऐतिहासिक फैसला बताते हुए कहा कि उन्हें कहीं कांग्रेस के बजाय हम पर ज़्यादा भरोसा था ।हमने बेशक उन्हें निराश नहीं किया ।हमने क्रांतिकारी भूमि और शैक्षिक सुधारों का जो बीड़ा उठाया था उसे पूरा किया। रहा सहा काम हमारी 1967-69 की दूसरी सप्त पार्टियों (सप्तकाक्षी मुन्नानी) की गठबंधन सरकार ने पूरा किया ।इसीलिए आज केरल में शत प्रतिशत साक्षरता है ।वह 11 बरस तक विधानसभा में विपक्ष के नेता भी रहे और उन्होंने सत्ता और संसाधनों के विकेंद्रीकरण और साक्षरता आंदोलन चलाया ।
इतिहास के पन्ने पलट कर देखिए तो पता चलेगा कि दक्षिण में पहले मद्रास प्रेसिडेंसी का निर्माण
हुआ जिसके अधीन मद्रास के साथ साथ केरल,आंध्रप्रदेश और मैसूर के बहुत से हिस्से जुड़े हुए थे ।उस समय मुख्यमंत्री (10 अप्रैल,1952 से 13 अप्रैल,1954) थे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (1878-1972),जो राजाजी और ‘सीआर’ के नाम से भी प्रसिद्ध थे ।लॉर्ड माउंटबेटन की विदाई के बाद वही पहले गवर्नर जनरल (1948-26 जनवरी,1950) बनाये गये थे ।1 नवंबर,1956 में राज्य
पुनर्गठन कानून के तहत मद्रास प्रेसिडेंसी का विघटन हो गया जिस में से मद्रास (बाद में तमिलनाडु), मैसूर
(बाद में कर्नाटक), केरल और आंध्रप्रदेश अलग प्रदेश बने ।आप यह क्यों भूलते हैं कि मद्रास में के. कामराज आंध्र में नीलम संजीव रेड्डी और मैसूर में एस.
निजलिंगप्पा की कांग्रेस की सरकारें बनीं ।इसी प्रकार बॉम्बे प्रेसिडेंसी के विघटन के बाद जो राज्य अस्तित्व में आये वहां भी सभी जगह कांग्रेस की सरकारें बनीं ।
गुलज़ारी लाल नंदा भारतीय राजनीति के विरल नेताओं में थे ।पूर्व कार्यवाहक प्रधानमंत्री,तीन सरकारों में गृहमंत्री, पहली पंचवर्षीय योजना बनाने वाले नंदा जी के पास न अपना घर था और संपत्ति के नाम पर ज़ीरो थे।उनका जीवन सेवा,समर्पण,त्याग और ईमानदारी से भरपूर था ।न उन्होंने स्वयं अपने पद का लाभ उठाया और न ही अपने बच्चों और सगे संबंधियों को उठाने दिया ।अपने सिद्धांतों और मूल्यों के वह पक्के थे ।नहीं तो क्या बात है ऐसे वरिष्ठ राजनेता के लिए केंद्र या राज्य सरकार उनके निवास की व्यवस्था नहीं कर सकती थी ।1971 में राजनीति से सन्यास लेने के बाद वह अपने अनेक सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहे लेकिन रहते वह दिल्ली में एक छोटे से किराये के मकान में थे ।उन्हें अक्सर कनाट प्लेस में पैदल चलते हुए देखा जा सकता था ।नंदा जी को बसों की कतारों में खड़ा हुआ देखा गया जहां से वह बस ले अपने किराए के मकान फ्रेंड्स कॉलोनी जाते थे ।
मैंने गुलज़ारीलाल नंदा के अलावा ज्ञानी ज़ैल सिंह,इंदर कुमार गुजराल,डॉ राम मनोहर लोहिया जैसे तमाम राजनेताओं को कनाट प्लेस में चहलकदमी करते हुए देखा है ।इंदर गुजराल समेत बहुत से राजनेता शाम को टेंट कॉफ़ी हाउस में भी देखे जा सकते थे जहां उनकी महफ़िलें जमाकरती थीं ।लेकिन नंदा जी को हमने कभी भी ऐसी महफ़िलों में नहीं देखा और न ही कॉफ़ी पीते हुए ।उनकी अपनी एक दुनिया थी सेवा कार्यों की ।उनकी हालत यह थी कि न तो उन्हें सांसद,मंत्री पद का कुछ लाभ मिलता था और न ही भारत रत्न होने का ।स्वाधीनता सेनानी होने की उन्हें जो पांच सौ रुपए पेंशन मिलती थी वह भी नहीं लिया करते थे ।उनके किसी शुभचिंतक ने उन्हें मशवरा दिया कि अगर पेंशन नहीं लेंगे तो मकान का किराया कहां से भरेंगे।
इस गलती को नंदा जी ने तब महसूस किया जब एक दिन उनके मकान मालिक ने किराया न दे सकने की वजह से सामान बाहर फेंक दिया ।जब वह अपना सामान बटोर रहे थे तो उधर से एक फोटोग्राफर निकला जो किसी अखबार से जुड़ा था ।उसने अखबार की मानवीय स्टोरी को ध्यान में रखते हुए उनके फोटो खींचे थे ।ऑफ़िस पहुंचने पर संपादक ने जब वे फोटो देखे तो वह देखता ही रह गया ।उसने फोटोग्राफर को बताया कि ये हमारे पेपर के लिए नायाब निधि है । ये फोटो भारत के पूर्व प्रधानमंत्री के हैं जो इस तरह की बदहाली में जी रहा है ।अगले दिन के पेपर के मुख्य पृष्ठ पर जब गुलज़ारीलाल नंदा के वे फोटो छपे तो केंद्र और राज्य की सरकारों के हाथ पांव फूल गये और मकान मालिक तो शर्मिंदग से गढ़ा जा रहा था ।
अखबार में छ्पी गुलज़ारीलाल नंदा की इन फोटोओं
ने केंद्र सरकार के साथ साथ गुजरात और हरियाणा की सरकारों को भी आड़े हाथों लिया ।नंदा जी गुजरात और हरियाणा दोनों राज्यों का लोक सभा में प्रतिनिधित्व कर चुके थे ।विदेशी पेपरों में भी इस खबर को कई कोणों से छापा गया।खबर छपते ही केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों की नंदा जी के घर कतार लग गयी ।सभी लोग अपनी गलतियों के लिए माफी मांग रहे थे ।नंदा जी के कुछ पुराने साथी यह कहते हुए सुने गये कि हमें तो बताया गया होता ।नंदा जी हंसकर जवाब देते ‘क्या बताता, ऐसी जिंदगी मैंने खुद चुनी है मानव सेवा की,उसी पर चलने का प्रयास कर रहा हूं ।मुझे किसी से कोई गिला शिकवा नहीं है ।मैं पेंशन के पैसों का इंतज़ार कर रहा था । आने पर तुरंत किराये का भुगतान कर देता।’ मकान मालिक के आंसू नहीं रुक पा रहे थे ।वह बोला,मुझसे आपको पहचानने में कैसे गलती हो गयी ।नंदा जी ने उसे ढाँढस बंधाया ।
खैर नंदा जी ने बड़ी विनम्रता से सभी का आथित्य
अस्वीकार करते हुए अहमदाबाद में अपनी बेटी के पास जाने की इच्छा जताई ।उसके बाद वह अपनी बेटी पुष्पा नाइक के घर ही रहे जहां 15 जनवरी,1998 में 99 (सौ साल से छह माह कम) सालकी आयु में उनका निधन हो गया ।उनके दो पुत्र भी हैं महाराज कृशन मेहता और नरिंदर नंदा ।नंदा जी का समाधिस्थल नारायण घाट अहमदाबाद में है ।ऐसे समर्पित और सिद्धांतवादी नेताओं को लोग अक्सर भूल जाया करते हैं ।ऐसे भूले बिसरे राजनेताओं में एक गुलज़ारीलाल नंदा भी थे ।
(अगली बार लाल बहादुर शास्त्री)

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