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Monday, July 7, 2025

वरुणा नदी: काशी की जीवनरेखा या गंदगी का पर्याय?

वाराणसी, 21 मार्च 2025, शुक्रवार। काशी की पावन धरती पर गंगा के साथ-साथ वरुणा और अस्सी नदियाँ भी जीवन की धारा रही हैं। जहाँ गंगा को काशी की प्रथम जीवनरेखा कहा जाता है, वहीं वरुणा और अस्सी को दूसरी धमनी माना जाता है। लेकिन आज वरुणा नदी अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही है। कभी जीवनदायिनी रही यह नदी अब गंदगी और उपेक्षा का पर्याय बन चुकी है। इसका जलस्तर घट रहा है, किनारे सिल्ट से भर गए हैं, और हवा में दुर्गंध ऐसी कि आसपास रहना मुश्किल हो गया है।
वरुणा का इतिहास गौरवशाली रहा है। प्रयागराज की मैलहन झील से निकलकर वाराणसी के आदिकेशव घाट तक बहने वाली यह नदी कभी किसानों के लिए वरदान थी। इसके किनारे हरी-भरी सब्जियाँ लहलहाती थीं, जो काशी की थाली का हिस्सा बनती थीं। मगर आज हालात ऐसे हैं कि नदी का पानी न सिर्फ आचमन के लायक नहीं बचा, बल्कि उसे छूना भी जोखिम भरा हो गया है। काला और मटमैला पानी, जगह-जगह जलकुंभी का ढेर, और सीवर-ड्रेनेज का मलजल—वरुणा अब नदी कम, नाला ज्यादा नजर आती है। खुले में बहने वाले फैक्ट्रियों के केमिकल और होटलों का कचरा इसके सीने पर बोझ बनकर जमा हो रहा है।
स्थानीय लोग बताते हैं कि अभी गर्मी की शुरुआत भी नहीं हुई और वरुणा ने घाट छोड़ दिए। जलस्तर दो फीट से ज्यादा गिर चुका है। चौकाघाट के पास जलकुंभी की सफाई के लिए पार्षदों ने आवाज उठाई, मेयर अशोक तिवारी ने ड्रोन से एंटी-लार्वा अभियान शुरू किया, लेकिन ये प्रयास नाकाफी साबित हुए। महाकुंभ से पहले वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री अरुण सक्सेना ने दावा किया था कि गंगा और उसकी सहायक नदियाँ स्वच्छ हो जाएँगी। लेकिन वरुणा की मौजूदा हालत उनके वादों की पोल खोल रही है।
वरुणा के उद्धार की कहानी भी राजनीति की भेंट चढ़ गई। 2016 में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने गोमती रिवर फ्रंट की तर्ज पर 201 करोड़ की लागत से वरुणा कॉरिडोर की नींव रखी थी। 11 किलोमीटर के इस प्रोजेक्ट में नदी के दोनों किनारों पर रेलिंग और पाथवे बनने शुरू हुए। मगर गोमती रिवर फ्रंट घोटाले के बाद यह योजना ठंडे बस्ते में चली गई। सपा का आरोप है कि योगी सरकार ने इसे जानबूझकर रोका, क्योंकि यह अखिलेश का ड्रीम प्रोजेक्ट था। दूसरी ओर, योगी सरकार के समय डेनमार्क की एक टीम वरुणा को कचरा-मुक्त करने आई थी, लेकिन वह भी प्रोजेक्ट छोड़कर चली गई।
आज वरुणा नदी काशी के लिए एक चुनौती बन गई है। यह न सिर्फ पर्यावरण का सवाल है, बल्कि उस सांस्कृतिक धरोहर का भी, जो काशी की पहचान है। अगर इसे बचाना है, तो केवल वादों और प्रोजेक्ट्स की घोषणा से काम नहीं चलेगा। जरूरत है ठोस इच्छाशक्ति और सामूहिक प्रयास की, वरना यह जीवनदायिनी नदी इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जाएगी।

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