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Saturday, March 15, 2025

काशी की परंपरा में बसा ‘बुढ़वा मंगल’ का जश्न

वाराणसी, 15 मार्च 2025, शनिवार। होली की खुमारी अब भी छाई हुई है, लेकिन शिवनगरी काशी में रंगोत्सव का समापन भी खास अंदाज में होता है। फूलों-लड़ियों से सजी नावें-बजड़े, उस पर बिछी चांदनी-मसनद, शमादान, झंडियां, गलीचे बिछाकर गंगा की लहरों के बीच संगीत की महफिलें, बनारसियों ने इसे नाम दिया है ‘बुढ़वा मंगल’! होली के बाद पड़ने वाले पहले मंगलवार को ही काशीवासियों ने ये नाम दिया है। उस दिन काशी में गीत, गुलाल, और खुशियों के साथ अनोखा जश्न मनाया जाता है। यह दिन काशी की संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है, जब लोग अपने घरों से निकलकर बनारस के गंगा घाटों पर उतरते हैं और बजड़े पर सजी संगीत की महफ़िल में रंग,अबीर-गुलाल के साथ खुशियों का जश्न मनाते हैं। इस दिन काशी के गंगा घाटों पर गुलाल और अबीर की बारिश होती है, और लोग एक दूसरे को रंग लगाकर खुशियों का इज़हार करते हैं। यह दिन काशी की संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है, जब लोग अपने घरों से निकलकर गंगा घाटों पर उतरते हैं और रंगों के साथ खुशियों का जश्न मनाते हैं।
काशी के रहने वाले 78 वर्षीय वयोवृद्ध बच्चेलाल ने बताया कि होली के बाद काशी के लोगों में एक अनोखी खुमारी छाई रहती है, जो मंगलवार को ‘बुढ़वा मंगल’ के साथ समाप्त होती है। यह परंपरा सालों पुरानी है और बनारस आज भी इसे संजोए हुए है। उन्होंने आगे बताया कि वाराणसी में इस त्योहार को लोग होली के समापन के रूप में भी मनाते हैं। होली के बाद पड़ने वाले मंगलवार को बनारस के कई घाटों पर इस परंपरा का निर्वहन होता है। दशाश्वमेध घाट से अस्सी घाट तक बुढ़वा मंगल की खुमारी में लोग डूबते उतराते दिखते हैं। गंगा नदी में खड़े बजड़े में लोकगायक अपनी प्रस्तुति देते हैं। इसमें बनारस आस पास के जिलों के कई लोकगायक कलाकार शामिल होते हैं। बनारसी घराने की होरी, चैती, ठुमरी से शाम सुरीली हो उठती है। होली की मस्ती के बाद, बनारसी जोश के साथ लोग अपने पुराने काम के ढर्रे पर लौट जाते हैं।
काशी के गंगा घाटों पर होली के बाद का जश्न ‘बुढ़वा मंगल’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन गंगा घाटों पर सजी संगीत की महफिल में कलाकारों के कमाल की प्रस्तुति को देखने के लिए आम जन बड़ी संख्या में जुटते हैं। देश-विदेश से सैलानी भी बनारस की इस परंपरा का लुत्फ उठाते नजर आते हैं। बुढ़वा मंगल केवल गीत संगीत ही नहीं, बल्कि खान-पान, गुलाल, और पहनावे का भी जश्न है। इस दिन बनारसी नए सफेद रंग के परिधान पहनकर पहुंचते हैं और कुल्हड़ में ठंडाई और बनारसी मिठाई का स्वाद उठाते हैं।
वर्षों से इस रंगारंग कार्यक्रम के गवाह बनते आ रहे मंगरू यादव ने बताया, होली के बाद तो हम लोगों को बुढ़वा मंगल का इंतजार रहता है। इस दिन घरों में भी पकवान बनता है और दोस्तों-परिवार में होली मिलने जाने का अंतिम दिन होता है। इस दिन के बाद घरों से गुलाल-अबीर को अगले साल होली आने तक के लिए रोक दिया जाता है और घाट पर जाकर लोकगीत त्योहार के रंग को सेलिब्रेट किया जाता है।

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