वाराणसी, 13 मार्च 2025, गुरुवार। दुनिया तो चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होली मनाती है लेकिन काशी इससे 40 दिन पहले माघ शुक्ल पंचमी से ही इस त्योहार के इंद्रधनुषी रंगों में डूब जाता है। वसंत पंचमी पर एक ओर रेड़ गाड़ते हुए होलिका की स्थापना की जाती है तो वैष्णव भक्त होली का श्रीगणेश करते हैं। फागुन शुक्ल एकादशी पर रंगभरी एकादशी के मान-विधान अनुसार काशीवासी अपने पुराधिपति से होली खेलने की अनुमति पाते हैं। वसंत को सदा से नवजीवन का मौसम माना गया है। यह पतझड़ के बाद सर्जना की ऋतु है। इसके आगमन से ही बहुत कुछ बदल जाता है। सरसों के खेत पीले फूलों की चादर ओढ़ लेते हैं। ठूँठ हुए पेड़ वासंती ऊर्जा से पुनः छतरा जाते हैं, पूरी धरित्री विविध फूलों का शृंगार कर लेती है, तो आम्र-मंजरियों की सुगंध से बौराए कोयल की कूक किसी हिय में प्रेमास्पद के लिए हूक उठा देती है।
वसन्तोत्सव का रंगीला, मौजीला, मस्तमौला अनुष्ठान है होली। वसन्त का पूर्ण परिपाक है होली। वस्तुतः फाल्गुन आते ही चहुँओर स्त्री-पुरुष, पेड़-पौधों में एक नवीन स्पंदन, एक नूतन ऊर्जा का संचार दिखता है। यह ‘फगुनाहट’ पूर्णिमा के दिन उमंग एवं उल्लास के साथ ‘फाग’ गाकर एवं रंगों की बौछार के साथ होली मनाकर समाप्त होता है। भाषिक रूप से देखें, तो ‘होली’ शब्द ‘होलिका’ से व्युत्पन्न हुआ है। ‘होलिका’ के अर्थ की कई व्याख्याओं में एक के अनुसार यह विनाशिका शक्ति है। होलिका या विनाशिका शक्ति जब ‘प्रह्लाद’ या ‘विशिष्ट आह्लाद’ को अपने आग़ोश में लेती है, तो उसे समाप्त नहीं कर सकती, अपितु स्वयं समाप्त हो जाती है। मान्यता है कि हिरण्यकशिपु अपने पुत्र भक्त प्रह्लाद को मारना चाहता था। उसकी बहन होलिका प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रविष्ट हुई। होलिका जल गई, प्रह्लाद सुरक्षित रहे। ज्ञातव्य है कि प्रह्लाद ‘आह्लाद’ की विशेष अवस्था है जो ज्ञान की अग्नि में तप कर प्राप्त होती है। वस्तुतः, होलिका का इस तरह होम हो जाना और प्रह्लाद का अक्षुण्ण रह जाना होली का संदेश है। इस अर्थ में बुराई पर अच्छाई की जीत का त्योहार है होली। मन के मैल को, कालुष्य को दूर कर सबका स्वागत करने एवं नव-आरम्भ करने का त्योहार है होली।
विजया, ठंडई व चंद्रकला का जादू
काशी की होली में रंग के साथ ठंडाई-भंग और मिठाइयों का भी सतरंगा आयाम जुड़ा है। विजया इस पर्व का मुख्य तत्व है। यह शिवत्व की तरह उस दिन हर मिठाई और ठंडई में समाई रहती है। पूरे शहर में जगह-जगह ठंडई की व्यवस्था रहती है। मिठाइयां भी अलग ही रंगत में दिखती हैं। गुझिया तो अब हर घर में बनने लगी है लेकिन पक्के महाल में बनने वाली इसी की बहन चंद्रकला का स्वाद उस दिन सबके सिर चढ़कर बोलता है।
होलिकाओं का सदियों पुराना इतिहास
बहुत सी होलिकाओं का तो प्राचीन ग्रंथों तक में उल्लेख मिलता है। अनेक होलिकाएं 14वीं सदी से उसी स्थान पर जलती चली आ रही हैं। काशी की होलिका दहन परंपरा में एक और अनूठी चीज दिखती है, वह है होलिका व प्रहलाद की प्रतिमा। प्रत्येक होलिका दहन स्थलों पर बुआ होलिका की गोद में भगवद् भक्त प्रह्लाद की प्रतिमा विधिवत स्थापित की जाती है और दहन किया जाता है। कचौड़ी गली के नुक्कड़ पर जलने वाली होलिका का इतिहास 14वीं सदी से भी पुराना है। पुरनिए बताते हैं कि काशी में यहीं से होलिका में प्रह्लाद की प्रतिमा रखने की शुरुआत हुई थी।