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Wednesday, June 18, 2025

शक्ति और भक्ति के समन्वयक विजय के उत्सव का नाम -विजयदशमी

वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति शौर्य और वीरता की उपासक रही है। चाहे वो दैवीय वैदिक युग हो सतयुग , त्रेता या द्वापर युग भारत की सनातन संस्कृति ने अपने शौर्य से हमेशा अधर्म पर विजयी प्राप्त की है और समाज में धर्म को स्थापित किया हैं‌। हर युग में अधर्म के नाश के लिए दैव शक्ति किसी न किसी रूप में भारत भू पर अवश्य अवतरित हुए हैं । यही हमारी शुद्ध भक्ति भावना है जो हमें शक्ति के साथ युक्त होकर विजय मार्ग पर प्रशस्त करती है।
दैव लोक में भी जब महिषासुर के रूप में आसुरी शक्ति बलशाली हो उठी तो उससे मुक्ति पाने के देवों ने शक्ति के रूप में देवी दुर्गा का आह्वान किया । ब्रह्म ने चिर निद्रा के रूप में भगवान विष्णु के नयन में बेस देवी योगनिद्रा की आराधना की । माँ शक्ति देवी योगमाया के रूप में अवतरित हुईं । सभी देवों की प्रार्थना से देवी योगमाया ने अपने शरीर से शेरों पे सवार शक्ति स्वरूपा माँ दुर्गा का अवतरण हुआ जिन्होंने असुरी शक्ति को ख़त्म कर धर्म और देवी शक्ति की स्थापना के लिए लगातार नौ रात्रि एवं 10 दिन तक युद्ध किया जिसके उपरांत सभी आसुरी शक्ति सहित महिषासुर पर विजय की प्राप्ति हुई ।
महिषासुर मर्दिनी देवी की विजय आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को होने के कारण इस विजय के उपलक्ष में नवरात्रि के दसवें दिन अधर्म पर धर्म की विजयी दिवस विजयदशमी का पर्व मनाते हैं । माता दुर्गा की ये शक्ति अपराजिता है । यही वजह है कि दशानन रावण के साथ युद्ध करने से पहले भगवान श्री राम ने भी दशमी के दिन देवी की उपासना कर विजय का आशीर्वाद लिया था ।
भारतीय परंपरा के अनुसार विजयदशमी का पर्व अध्यशक्ति देवी के आशीर्वाद से भगवान श्री राम की अधर्मी लंका अधिपति रावण पर धर्म की विजय के प्रतीक के रूप में मनायी जाती है ।
विजयादशमी का पर्व असत्य पर सत्य की और अधर्म पर धर्म के विजय का पर्व है । भारतवर्ष में युगों युगों से हर वर्ष विजयदशमी पर अधर्म के प्रतीक रावण के साथ उसके भाई कुंभकरण और पुत्र मेघनाथ का दहन किया जाता हैं । लेकिन वर्तमान में विचारणीय यह भी है कि क्या हम अपने भीतर के रावण ,जो हम में काम,क्रोध,लोभ,मोह ,मत्सर,अहंकार ,आलस्य, हिंसा और चोरी के रूप में मौजूद है उसका नाश करने का प्रयत्न करते हैं?
हम विजयादशमी के पर्व पर शस्त्रों पूजन करते है । समाज में वीरता और पराक्रम भाव को जागृत करने के लिए शस्त्र पूजन का विशेष महत्व है। पर महत्वपूर्ण यह भी है कि शस्त्र पूजन में हमारे भाव शुद्ध रहें ।हमारे शस्त्र, निर्बल की रक्षा करने और आतंक जैसी आसुरी शक्तियों के विनाश के लिए उठें । वर्तमान में सनातन समाज ने शास्त्र ज्ञान की सभ्यता के चरम की प्राप्त कर लिया है । लेकिन वर्तमान में वैश्विक विध्वंश से रक्षा के लिए शस्त्र के महत्व को पुनः रेखांकित करने की आवश्यकता है और विजयदशमी पर आत्मावलोकन की आवश्यकता है । मौजूदा परिवेश में ज़रूरी है कि सनातन शक्ति को आपने अंदर समाहित कर पुनः स्थापित किया जाये और शास्त्र और शस्त्र से अभिमंत्रित हो कर विश्व गुरु बनने की राह पर अग्रसर हुआ जाये ।

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