31.1 C
Delhi
Thursday, March 13, 2025

नवरात्र स्पेशल

दुर्गा सप्तशती का अगर कर रहे हैं पाठ तो मत भूलें इस स्तोत्र का जप करना जिससे देवी होतीं हैं प्रसन्न।
श्रीदुर्गा सप्तशती का पाठ कुंजिका स्तोत्र के बिना पूरा नहीं माना जाता है। अब ये कुंजिका स्तोत्र कौन किसे बता रहा है? इसका उत्तर इसके अंत में है, जहाँ “इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वती संवादे” लिखा है। अगर स्त्रियों के लिए यह पाठ वर्जित होता, तो भगवान शिव खुद ही अपनी पत्नी पार्वती को इसे क्यों बताते?
जहाँ तक पाठ की विधि का प्रश्न है, तो चिदम्बर संहिता में पहले अर्गला फिर कीलक और अंत में कवच पढ़ने का विधान है। योगरत्नावाली में पाठ का क्रम बदल जाता है और वहां पहले कवच (बीज), फिर अर्गला (शक्ति) और अंत में कीलक पढ़ने का विधान है। गीता प्रेस वाली श्रीदुर्गा सप्तशती में ध्यान से देखने पर ये मिल जायेगा।
इसके अलावा पाठ विधि के अंतर देखेंगे तो मेरु तंत्र, कटक तंत्र, मरिचिकल्प आदि में भी थोड़े बहुत अंतर मिल जायेंगे। श्रीदुर्गा सप्तशती के लिए कई विधियाँ तंत्रों में हैं और लगभग उतनी ही वैदिक रीतियों में भी हैं। कोई दिन में एक चरित्र पढ़े, कोई केवल एक अध्याय, कोई पूरी ही हर दिन पाठ करे, ये सभी संभव है।
सकाम और निष्काम के पक्ष से देखें तो सुरथ और समाधि नाम के दो लोगों पर इसकी कथा शुरू होती है। राजा सुरथ को इस जन्म में राज्य और आगे सावर्णिक (जिनके नाम से मन्वन्तर है) ऐसे राजा होने का वरदान मिला। समाधि ने अहंकार आदि से मुक्ति मांगी तो उन्हें ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति हुई। इसलिए अलग-अलग फल भी संभव हैं।
जैसे स्कूल में गणित (मैथ्स) के शिक्षक से हिंदी व्याकरण के सवाल पूछने नहीं पहुँच जाते थे, वैसे ही हर ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे से सलाह मत लें। पूछना ही हो तो किसी विद्वान पंडित से पूछें। घर से निकलकर कुर्सी छोड़कर ढूंढना मुश्किल लगे तो फिर अपने मन की करें।
अपराध क्षमा पाठ के अंत में “एवं ज्ञात्वा महादेवी यथायोग्यं तथा कुरु” लिखा होता है। इसका अर्थ है कि हे महादेवी, यह जानकर जैसा यथोचित हो वैसा कल्याण करें।
श्रीदुर्गा सप्तशती को पूरा पढ़ना बिल्कुल कठिन नहीं है। इसमें सात सौ श्लोक हैं। आरंभ में उच्चारण मुश्किल लग सकता है, लेकिन ये अभ्यास की बात है। एक-दो बार के अभ्यास में होने लगेगा। गलती हो जाने का डर और पाप लगेगा जैसा कुछ सोच रहे हैं तो बता दें कि सप्तशती के अंत में अपराध क्षमा का एक स्त्रोत पढ़ा जाता है। वह श्रंगेरी मठ के शंकराचार्य श्री विद्यारण्य यति कृत है जिसमें वह कहते हैं कि मुझे सही पूजा विधियाँ नहीं आतीं, इसलिए पाठ करने में यदि गलतियाँ-त्रुटियां हुई हों तो क्षमा करें। इसलिए गलतियों की परवाह मत करें, पाप नहीं लगता। फिर जिस पर स्वयं शंकराचार्य जी आश्वस्त ना हों, उस पर सौ प्रतिशत सही होने का दावा कौन करेगा?
भगवान के पास कोई आतंकियों जैसा हिसाब नहीं चलता कि एक वाक्य सही-सही सुना नहीं पाए तो गोली मार दी जायेगी। केवल आपका प्रयास, आपकी शुभेक्षा देखी जायेगी, गलतियाँ क्षम्य ही नहीं, सीधे अनदेखी हो जायेंगी। पाठ की सही विधि मालूम नहीं, जैसे बहाने भी बेकार हैं। ये किताबों में सही क्रम में ही लिखा होता है, पहले पन्ने से शुरू करके अंत तक पढ़ डालना होता है बस। प्रश्न केवल इतना है कि धर्माचरण के लिए किसने क्या किया और क्या नहीं-की बहसों के बदले आप में स्वयं कुछ करने का साहस है या नहीं?
श्रीदुर्गा सप्तशती की पुस्तक आसानी से उपलब्ध है। कुछ लोगों को इसका पंडालों में वितरण करने पर भी विचार करना चाहिए।
वैसे तो कई हिन्दू अपने आपको स्वामी विवेकानंद से अधिक ज्ञानी मानते हैं, मगर स्वामी विवेकानंद से अधिक ज्ञानी और कम ज्ञानी दोनों ने ही भगिनी निवेदिता का नाम सुन रखा होता है। वह लम्बे समय तक स्वामी विवेकानंद के साथ रही थीं। जो स्वामी विवेकानंद से अधिक ज्ञानी हैं, उनके लिए इस बात का कोई विशेष अर्थ नहीं लेकिन दूसरे लोग शायद भगिनी निवेदिता की किताब “द मास्टर ऐज आई सॉ हिम” का नाम भी जानते होंगे। इसका ग्यारहवां अध्याय है- “द स्वामी एंड मदर-वर्शिप” जिसमें स्वामी विवेकानंद पशु-बलि के बारे में कहते हैं, चित्र पूरा करने में थोड़ा रक्त भी लग जाए तो क्या हर्ज है?
शाक्त मत के अनुसार साधना क्षेत्र में तीन भावों तथा सात आचारों की विशिष्ट स्थिति होती है। पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव, इन तीनों भावों के संकेत हैं। तीनों भावों से जुड़े सात आचार हैं – वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धांताचार और कौलाचार। इनमें दिव्यभाव के साधक का संबंध कौलाचार से है। आजकल राजनैतिक कारणों से लोग जिस “नाथ पंथ” का नाम जानने लगे हैं, वह भी कौलाचार से संबंधित है। गंधर्वतंत्र, तारातंत्र, रुद्रयामल और विष्णुयामल जैसे तंत्र के ग्रंथों के हिसाब से इसका प्रचार महाचीन (तिब्बत) से लाकर वसिष्ठ ने कामरूप (कामख्या-असम) में किया।
इसी कालिका के क्षेत्र कामख्या के आसपास लिखे गए कालिका पुराण में एक पूरा अध्याय ही “रुधिराध्याय” (अर्थात रक्त का अध्याय) कहलाता है। तंत्र की उपासना में जब साधक “द्वैत” भाव को पूरी तरह नकार देता है और अपने उपास्य में स्वयं को होम कर देता है, तब वह मानसिक स्थिति “दिव्य भाव” कहलाती है। कौलाचार पूर्ण अद्वैत वाले, दिव्यभाव के साधक के लिए सुगम होता है, इसलिए इसे तांत्रिक आचारों में सर्वोत्तम भी माना जाता है। पंच मकार-मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन-जिनका नाम संभवतः तंत्र से जुड़ा सुना होगा, वह इसी उपासना के मुख्य साधन हैं।
कौल मत में बहिर्योग का प्रयोग होता है, और इसी से मिलते-जुलते समयमार्ग में अंतर्योग (हृदयस्थ उपासना) का महत्व है। समयमार्गी पंच मकार का प्रत्यक्ष प्रयोग न करके इनके प्रतिनिधि स्वरुप दूसरी वस्तुओं का प्रयोग करता है-जिन्हें “अनुकल्प” कहा जाता है। कौल सीधे पंच मकार का ही अपनी पूजा में उपयोग करता है। बड़े साधकों के नाम देखें तो शंकराचार्य समयाचार के अनुयायी थे और दूसरी तरफ अभिनवगुप्त या गौडीयशाक्त लोग कौलाचार का पालन करते थे। किसी काल में दोनों एक साथ न रहे हों, ऐसा कहना अधिक से अधिक अतिशयोक्ति हो सकती है, सत्य नहीं।
सौंदर्य लहरी के भाष्यकार लक्ष्मीधर ने 41वें श्लोक की व्याख्या में कौलों में भी दो भेद बताये हैं। बाहरी तौर पर देखें तो उत्तर कौल शिव और शक्ति दोनों की सत्ता मानते हैं। उनके अनुसार सृष्टि के सृजन काल में शक्ति प्रकट और शिव सुप्तावस्था में होते हैं, जबकि प्रलय काल में शिव जागृत और शक्ति सुप्तावस्था में होगी। उत्तर कौल शिव तत्व को नहीं, एकमात्र शक्ति को ही उपास्य मानते हैं। जैसे प्रकाश का न होना अँधेरा है, वैसे ही शक्ति के जागृत होने को सृष्टि और सुप्तावस्था में जाने को प्रलय भी माना जा सकता है। उत्तर कौल पद्दतियों पर ही महाचीन (तिब्बत) के तंत्र का अधिक प्रभाव दिखता है।
संभवतः उनकी उग्र उपासना पद्दतियों के कारण कौलाचारियों को आम लोगों और शासन का द्वेष भी झेलना पड़ा। ये बिल्कुल अभी के समय जैसा है जब तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सत्ता, संवैधानिक प्रावधानों को नकार कर सीधा मंदिरों में हस्तक्षेप करती नजर आती है। अब अगर वापस सौन्दर्यलहरी के 23वें श्लोक की व्याख्या में देखें तो वहां अर्धनारीश्वर की चर्चा है। आमतौर पर ये माना जाता है कि अर्धनारीश्वर रूप में शिव के शरीर का वाम भाग पार्वती का (नारी स्वरुप) हो जाता है। सौन्दर्यलहरी की व्याख्या थोड़ी उल्टी है, क्योंकि यहाँ साधक कहता है कि पार्वती ने ही जैसे शिव को सोख लिया हो! देवी का वर्ण लाल होने के कारण श्वेत शिव पर लालिमा दिखती है। त्रिनेत्र, अर्ध-चन्द्र और वक्ष आदि के कारण शिव का दाहिना भाग गौण और देवी का वाम पक्ष प्रबल है। ये कौलाचारियों के उस मत को बल देता है जो शक्ति को प्रधान और शिव तत्व को गौण मानते हैं।
मुगल काल के भक्तिरस वालों के समझने के लिए ये कुछ वैसा ही है जैसे श्रीकृष्ण का सौम्य रूप। आमतौर पर बांसुरी बजाते जिस सौम्य कन्हाई को देखने की आदत है, उनके विश्वरूप लेते ही कौरव पक्ष के सभी योद्धाओं की आंखे डरकर बंद हो जाती हैं। भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय (पैंतालिसवें श्लोक) में अर्जुन जैसा योद्धा जो कई युद्ध और संग्रामों में मृत्यु देख चुका है, वह कहता है कि मैं इस रूप से भयभीत हूँ! समेटिये इसे प्रभु ! अद्वैत मत के कौलाचारियों के लिए जो साधना पद्दतियां हैं, वह सब पर जबरन थोपी जाएँ, ऐसी कोई दूसरे छोटे मजहबों जैसी व्यवस्था हिन्दुओं में नहीं होती। इसका मतलब ये भी नहीं कि जिनके लिए स्वीकार्य हैं उन पर भी जबरदस्ती बल-प्रयोग करके प्रतिबन्ध लगाए जाएँ। बलि देखने आपको कोई बांधकर तो ले नहीं जाता न, अपनी नाक हर मामले में न घुसेड़ें तो बेहतर है।
बाकी आपकी भावना के आहत होने भर से माँ काली के हाथ से न खट्वांग गायब होगा, न उनकी लपलपाती जिह्वा अन्दर जायेगी, न उनके हाथ में पकड़े कटे सिरों से रुधिर बंद होता है, न उनकी मुंडमाला का लोप होता है। देवी उग्र ही रहेंगी। जिन्हें स्वीकार्य है, और जो बलि झेल नहीं पाते, दोनों को शक्तिपूजन के नवरात्र की शुभकामनाएँ !
सनातनी हिन्दुओं में “शैतान” जैसी कपोलकल्पना के लिए कोई स्थान नहीं। पाप की पराकाष्ठा भी आपको ईश्वर के पास पहुंचा देगी। जैसे देवी के नामों को देखेंगे तो जिस राक्षस के वध के लिए उन्हें जाना जाता है, उसका नाम लिए बिना आप देवी का नाम नहीं ले सकते। महिषासुर कहे बिना महिषासुरमर्दिनी नहीं कह सकते, शिव के नाम में भी गजन्तक, तमन्तक कहने में राक्षस का नाम आ जाता है। भगवान विष्णु के द्वारपालों, जय-विजय की कहानी इनमें से कई राक्षसों के जन्म के पीछे होती है, ये भी एक कारण है कि राक्षसों-असुरों को कभी सनातन धर्म में घृणित या निकृष्ट नहीं माना गया।
देवी का नाम दुर्गा होने के पीछे दुर्गमासुर कि कहानी होती है। ये रुरु का पुत्र हिरण्याक्ष (हिरण्यकश्यप-हिरण्याक्ष) के वंश का था और उसे एक बार वेदों के ज्ञान की अभिलाषा हुई। उसने कठिन तप से ब्रह्मा को प्रसन्न किया और वेदों के रचियिता ब्रह्माजी से सारे वेद ही वर स्वरुप मांग लिए। वेद मिलने पर उसने सारी जानकारी अपने लिए रखनी चाही, जिसका नतीजा ये हुआ कि ऋषि-मुनि वेद भूलने लगे। वेदों के ज्ञान के लोप से यज्ञ संभव नहीं रहे और होम ना होने से वर्षा भी रुक गई। लम्बे समय तक वर्षा ना होने से जब नदी-नाले सूखने लगे और पेड़-पौधे, कृषि भी समाप्त होने लगी तो कई प्राणी मरने लगे।
ऐसे ही समय में राक्षस ने स्वर्ग के देवताओं पर भी आक्रमण किया। यज्ञों के भाग से बरसों से वंचित देवता राक्षसों का सामना नहीं कर पाए और भागकर सुमेरु पर्वत की गुफाओं में जा छुपे। उधर ऋषि-मुनि भी कंदराओं में थे तो सबने मिलकर माहेश्वरी का आह्वान किया। पार्वती उनके तप से प्रसन्न होकर जब प्रकट हुईं तो देवताओं ने उन्हें पृथ्वी की दुर्दशा बताई। हजारों आँखों से इस अवस्था को देखती हुई देवी के आँखों से ऐसी हालत देखकर आंसू बहने लगे। लगातार नौ दिनों तक रोती देवी के आंसुओं से ही बरसात हुई। पानी नदियों और तालाबों, फिर उनसे समुद्र में भी भरने लगा।
अब देवी ने अपना स्वरुप बदला और वह आठ हाथों में धान्य, फल-सब्जियां, फूल और दूसरी वनस्पतियाँ लिए प्रकट हुई। शताक्षी (सैकड़ों नेत्रों वाली) देवी के इस स्वरुप को शाकम्भरी कहते हैं। वेदों को हड़पे बैठे असुर को वेद लौटाने को कहने के लिए उन्होंने दूत भी भेजा। दुर्गमासुर कई देवताओं को जीत चुका था और उस पर बातों का कोई असर तो होना नहीं था। नतीजा ये हुआ कि वह अपनी कई अक्षौहणी सेना लिए देवी पर आक्रमण करने आया। देवी ने अपना स्वरुप फिर बदला और इस बार वह अस्त्र-शस्त्रों के साथ प्रकट हुईं। उनकी ओर से युद्ध में पराशक्तियां काली, तारिणी, त्रिपुरसुन्दरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला इत्यादि भी उतरीं।
देवी के शरीर से ही नवदुर्गा, मातृकाएं, योगिनियाँ और अन्य शक्तियां भी प्रकट होकर युद्ध में सम्मिलित होने लगीं। थोड़े ही दिनों में दुर्गमासुर की सारी सेना समाप्त हो गई और ग्यारहवें दिन दुर्गमासुर रथ पर सवार स्वयं युद्ध में उतरा। देवी और राक्षस का युद्ध दो पहर चला और राक्षस मारा गया, राक्षस के देवी के शरीर में समाते ही विश्व की व्यवस्था फिर पहले जैसी हो चली।
राजस्थान के सांभर झील के बारे में मान्यता है कि वो शाकम्भरी देवी ने ही दिया था, उसके पास ही उनका मंदिर भी है। सीकर के पास भी उनका एक मंदिर है और कोलकाता में भी उनके कई मंदिर हैं। शिवालिक की पहाड़ियों में सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के पास का एक शक्ति पीठ भी उनका ही मंदिर माना जाता है। कट्टक उड़ीसा) के पास भी एक शाकम्भरी धाम है। बादामी और बंगलौर में शाकम्भरी देवी के मंदिर हैं। फल-फूलों, वनस्पतियों या कहिये सीधा प्रकृति से जुड़े धर्म के ऐसे उदाहरण कम ही सुनाई देते हैं। ऐसे कारणों से भी धर्म, कहीं ज्यादा बेहतर एक जीवन पद्दति हो जाती है जो किसी भी रिलिजन या मजहब में नहीं होता।
“नव” शब्द का एक अर्थ नया, नूतन, नवीन भी होता है। इस बार जब नवरात्रि बीत रही है तो अपने धर्म को एक नई दृष्टि से, किसी और के सिखाये-बताये अनुसार नहीं, बल्कि अपनी स्वयं की दृष्टि से देखिये।

Advertisement

spot_img

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

2,300FansLike
9,694FollowersFollow
19,500SubscribersSubscribe

Advertisement Section

- Advertisement -spot_imgspot_imgspot_img

Latest Articles

Translate »