16.1 C
Delhi
Friday, November 22, 2024

हिन्दुओं की आस्था खरीदने की कुचेष्टा

नरेन्द्र भदौरिया
हिन्दु धर्म को अक्षय धर्म की संज्ञा दी जाती है। सनातन संस्कृति का पर्याय शब्द है हिन्दु। हिन्दु समाज जब दुर्बल हुआ तब भारत में सनातन संस्कृति को नष्ट करने की कुचेष्टाएं बढ़ती रहीं। विदेशी विचारक इस बात को लेकर सदा चिन्तित रहे हैं कि इस संस्कृति में ऐसी कौन से बात है कि श्रद्धा ज्ञान के साथ ही जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति करने का सामर्थ्य हिन्दु समाज के लोग अर्जित कर लेते हैं। सैकड़ों वर्षों तक हिन्दु संस्कृति का समाप्त करने के लिए रक्तरंजित प्रयास होते रहे। हर क्षेत्र में भारत की समृद्धि से आकर्षित आक्रान्ता केवल लूटपाट के लिए ही यहाँ नहीं आते थे। उन्होंने सदा हिन्दुओं की आस्था पर प्रहार किये।
आक्रमणों के सहारे भारत को क्षत-विक्षत करने के बाद भी जब उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं दिखी तो यह विचार करने लगे कि इस संस्कृति को कैसे नष्ट किया जाय। क्योंकि संस्कृति के विनाश के बना भारत के अस्तित्व को मिटाना सम्भव नहीं प्रतीत हुआ। प्रारम्भ में (16वीं शताब्दी के बाद) ऐसे विचारकों में अधिकांश ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस आदि यूरोपीय देशों के थे। भारत में ब्रिटिश राज के स्थायीकरण के लिए जिन विचारकों को उपाय सुझाने के लिए कहा गया उनमें थोमस बैबिंगटन मैकाले सबसे प्रमुख था। 1834 में वह अपने दल के साथ भारत आया। उसने व्यापक सर्वेक्षण किया। पहले तो उसे निराशा हुई कि भारत का हिन्दु समाज अपनी सनातन संस्कृति के प्रति इतना आस्थावान है कि उसे पूरी तरह बदलना दुष्कर कार्य लगता है।
मैकाले ने अध्ययन के बाद निश्चय किया कि भारत के हिन्दु समाज की आस्था की रज्जु को तोड़े बिना कुछ भी सम्भव नहीं होगा। आस्था का सबसे बड़ा आधार संस्कृत भाषा और संस्कृत तथा हिन्दी में रचे गये धार्मिक ग्रन्थों को माना गया। मैकाले जब भारत में आया तो उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में गुरुकुलों के माध्यम से संस्कृत भाषा के आचार्यों द्वारा शिक्षा दी जाती थी।
इस शिक्षा व्यवस्था पर शासन तन्त्र को कोई व्यय नहीं करना पड़ता था। समाज स्वत: इनका प्रबन्धन कर देता था। गुरुकुलों से निकले छात्र भारतीय सनातन संस्कृति और सांस्कृतिक भारत की एकात्मता पर आस्था रखते थे। इसीलिए मैकाले ने पूरे देश के गुरुकुलों को ईष्ट इण्डिया कम्पनी के एक आदेश द्वारा 1835 में एक झटके में बन्द करवा दिया। एक साल तक पूरे भारत के गुरुकुलों और आचार्यों की कड़ी निगरानी की जाती रही। पढ़ायी जाने वाली पुस्तकों और ग्रन्थों को कम्पनी की सरकार ने छीन लिया।
मैकाले ने एक वर्ष बाद अंग्रेजी भाषा के शिक्षण पर आधारित सरकारी तन्त्र द्वारा नियन्त्रित सीमित संख्या में प्राथमिक स्कूल खोलने की व्यवस्था करायी। इसके साथ ही ब्रिटेन और जर्मनी के 20 से अधिक संस्कृत विद्वान भारत बुलाये गये। इन्होंने सनातन संस्कृति के वैदिक साहित्य से जुड़े समस्त ग्रन्थों को एकत्र करना शुरू किया। अनेक ग्रन्थों को विकृत करने का उपक्रम हुआ। जिससे भारत की भावी पीढ़ियों को भ्रमित किया जा सके। अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा से उस काल में पढ़े अभिजात्य वर्ग के युवाओं को सीधे ब्रिटेन ले जाकर इस उद्देश्य से शिक्षा दिलायी गयी कि वह भारत के विज्ञान, इतिहास और साहित्य के स्थान पर इंग्लिश विद्वानों द्वारा तैयार किये गये पाठ्यक्रम से शिक्षित होकर लौटें। इस प्रकार शिक्षा और परिवेष बदलकर लोटी नयी पीढ़ी ने अपनी संस्कृत भाषा, उसके साहित्य और सभी विधाओं के ग्रन्थों को तिरस्कार के भाव से देखा।
मैकाले की शिक्षा पद्धति को भारत के लोगों ने इस तरह अपनाया कि अब 21वीं सदी में सम्पूर्ण भारतवासियों के बच्चे अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के पीछे भाग रहे हैं। भारत की नयी पीढ़ियां अपनी संस्कृति और धर्म से बहुत दूर होते जा रहे हैं। यही कारण है कि हिन्दु समाज में अपने धर्म के प्रति अनास्था का भाव व्यापक रूप से फैलता जा रहा है। शैक्षिक दृष्टि से इंग्लिश भाषा और रहन-सहन में प्रवीण हो चुके वर्ग के प्रति अक्षम समाज में दुराव की भावना निरन्तर बढ़ती जा रही है। हिन्दु समाज के आस्था और आदर्श के अधिष्ठानों की चमक धूमिल हो रही है। निचले पायदान पर खड़े बहुतांश वर्ग को दूसरे वर्गों के प्रति ईर्ष्या का घोल पिलाकर विद्वेष की खाई बढ़ायी गयी है।
हिन्दु समाज को इस दयनीय स्थिति से उबारने का दायित्व भारत के सन्त समाज का भी है। इस समर्थ समाज के लोगों में अपने कर्तव्य और सेवा भावना के क्षरण का प्रभाव कितना विकट हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है। साधु-सन्तों और समाज के बीच खाई गहरी हो चुकी है। भारत में 80 लाख से अधिक साधु-सन्त हैं। सभी अपने बनाये कवच में सीमित रहते हैं। उन्हें सांस्कृतिक भारत की एकात्मता में निरन्तर आ रही गिरावट, सामाजिक समरसता के अभाव और आस्था केन्द्रों की बिगड़ती दशा की कोई चिन्ता नहीं है। कतिपय धर्माचार्य ऐसे हैं जिनकी वाणी से यदा कदा ऐसी चिन्ता प्रकट होती है। तद्यपि कोई संगठित प्रयास साधु समाज के सक्षम नायकों द्वारा होते नहीं दिखायी देते।
ऐसी विकट परिस्थिति में ईसाई मिशनरियों और इस्लामी संगठनों की आक्रामकता प्रचण्ड हो गयी है। मतान्तरण को रोकने की बात करने वाले संगठनों का अभाव दिखायी दे रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों के अतिरिक्त इस दिशा में कोई समूह या संगठन आगे बढ़ता नहीं दिखायी देता। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में मतान्तरण के कारण 15 करोड़ से अधिक हिन्दुओं ने 70 वर्षों में अपना धर्म छोड़ दिया है। यह संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। लालच, दबाव और आक्रामकता के चलते ईसाई और मुसलिम संगठनों की होड़ बढ़ गयी है। इन संगठनों को विदेशों से व्यापक सहयोग मिल रहा है। साथ ही भारत का राजनीतिक वातावरण मतान्तरण कराने वालों के पक्ष में अधिक प्रभावी होता जा रहा है। देश के सबसे प्राचीन राजनीतिक दल के वर्तमान नेतृत्व के साथ ही अनेक क्षेत्रीय दल मतान्तरण का खुलकर समर्थन करने लगे हैं। यह स्थिति लगभग 600 वर्षों में पहली बार इतने विकराल रूप में खड़ी दिखायी दे रही है।
भारतीय संस्कृति के रक्षण के लिए काम करने वाले लोगों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यह है कि हिन्दु समाज के विभिन्न वर्गों का नेतृत्व करने वाले लोगों का एक बड़ा वर्ग अपनी हिन्दु विरोधी छवि बनाने में गर्व की अनुभूति करता है। ऐसे नेताओं के कारण इस्लामी और ईसाई कट्टरवाद नयी चुनौती बनकर उभर रहा है। हिन्दु समाज के जिन वर्गों को मतान्तरण से बचाने की विकट चुनौती है उन्हें राजनीतिक स्वार्थ में उलझाकर अपनी ओर घसीट कर ले जाने की होड़ मची है। मिशनरी और इस्लामी संगठन धन और जन बल के आधार पर सीधे टकराव की स्थिति से अब बचने का प्रयत्न नहीं करते। उन्हें राजनीतिक बल के साथ बाह्य धन और प्रचार के बल का समर्थन मिल रहा है। स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि मैकाले की कल्पनाओं के अनुरूप सनातन संस्कृति में गिरावट से जूझता भारत कराह रहा है। इस स्थिति से उबारने के लिए बड़े भगीरथ प्रयत्नों की आवश्यकता है।
इस्लामी और मिशनरी संगठनों को बल प्रदान करने में पड़ोसी वामपन्थी देश चीन की कूटनीतिक चालों की अनदेखी नहीं की जा सकती। भारत के लोकतन्त्र को अपनी विकृति से प्रभावित करने के प्रयत्न चीन समर्थक वामपन्थियों द्वारा लम्बे समय से किये जा रहे हैं। चीन चाहता है कि किसी प्रकार भारत में राजनीतिक अस्थिरता बनी रहे। अपनी इन कुचेष्टाओं को वह भारतीय प्रेस के एक बड़े वर्ग और वाममार्गी राजनीतिक सामाजिक संगठनों के बल पर बढ़ावा दे रहा है। रक्तिम संघर्ष करने वाले वामपन्थी संगठनों की बात हो या शहरी नक्सलवाद और प्रत्यक्ष रूप से राजनीति करने वाले कम्युनिस्ट दल यह सभी मिलकर कभी भारतीय लोकतन्त्र में अपनी बड़ी जगह नहीं बना सके। इसीलिए वाममार्गियों ने कांग्रेस सहित कई क्षेत्रीय दलों को अपना वैचारिक सहयोगी बना लिया है। भारत के आस्थावान समाज को जागृत किये बिना ऐसी दुरूह समस्या से पार पाना कठिन लग रहा है। तद्यपि हिन्दु संस्कृति और राष्ट्र के प्रति समर्पित संगठन आरएसएस की कर्तव्य निष्ठा अटूट बनी हुई है। इस संगठन के करोड़ों कार्यकर्ता अपने कर्तव्य के प्रति दृढ़ता से खड़े हैं।

Advertisement

spot_img

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

2,300FansLike
9,694FollowersFollow
19,500SubscribersSubscribe

Advertisement Section

- Advertisement -spot_imgspot_imgspot_img

Latest Articles

Translate »