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Friday, June 27, 2025

बालाजी गौरी और जिम सरभ ने जीते दिल,रानी मुखर्जी के अभिनय का नया शीर्षबिंदु

अभिनेत्री रानी मुखर्जी की पहली फिल्म ‘राजा की आएगी बारात’ 27 साल पहले जब रिलीज हुई तो इसके फर्स्ट डे फर्स्ट शो को देखने जिस सिनेमाघर में मैं गया, वहां लोगों को ज्यादा उत्सुकता फिल्म के हीरो यानी शादाब खान को लेकर दिखी। हिंदी सिनेमा के सबसे चर्चित खलनायक किरदारों में से एक गब्बर सिंह का किरदार करने वाले अमजद खान के वह बेटे हैं। फिल्म की हीरोइन रानी मुखर्जी का नाम तक लोगों ने तब पहली बार सुना था। लेकिन, फिल्म खत्म हुई तो सबसे ज्यादा तारीफ जो किसी के हिस्से में आई वह रानी मुखर्जी ही रहीं। तब मैंने लिखा था कि छोटे कद की, सांवली रंग की और एक अलग खुरदुरी सी आवाज वाली ये लड़की एक दिन हिंदी सिनेमा में कमाल करेगी। रानी मुखर्जी ने उन करोड़ों युवतियों को समाज में खुद को दमदार तरीके से प्रस्तुत करने की प्रेरणा दी है जो दिखने में किसी मॉडल जैसी नहीं है। और, रानी मुखर्जी का यही आत्मविश्वास आज तक उनके साथ है और यही उनका सबसे बड़ा हथियार है। फिल्म ‘मिसेज चटर्जी वर्सेस नॉर्वे’ की देबिका उन तमाम महिलाओं के लिए एक प्रेरणा है जिनको संघर्ष में किसी का साथ नहीं मिलता, पति का भी नहीं!

नॉर्वे के कानूनों की धज्जियां उड़ाती फिल्मफिल्म ‘मिसेज चटर्जी वर्सेस नॉर्वे’ देखने के बाद कोई नवविवाहिता अपने पति के साथ नॉर्वे जाने की सोच भी पाएगी या नहीं, वह एक अलग चर्चा का विषय है। विदेशी धरती को स्वर्ग जैसा दिखाने पर मोहित रहे हिंदी सिनेमा ने पहली बार मोटी कमाई और विदेशी नागरिकता के लालच में पढ़े लिखे लोगों के देश से पलायन की एक सच्ची और दर्दनाक तस्वीर बहुत सलीके से पेश की है। ध्यान ये रहे कि जो कुछ इस फिल्म के दौरान परदे पर दिख रहा है, कमोबेश वैसे ही हालत से दो बच्चों की एक मां हकीकत में गुजर चुकी है। बच्चे पालना दुनिया का सबसे बड़ा ‘टास्क’ है। और, इस काम के लिए कभी किसी मां को कोई पुरस्कार नहीं मिलता। पुरस्कार तो छोड़िए, अपने घर में ही उसे इस काम की तारीफ कहां मिलती है? ये मान लिया जाता है कि पत्नियों का काम ही है घर संभालना। बच्चे पैदा करना और उन्हें पालना। पति की जिम्मेदारी तो बस कमाकर लाना है। फिल्म ‘मिसेज चटर्जी वर्सेस नॉर्वे’ इस धारणा की जड़ पर सीधे प्रहार करती है। विदेश जा बसे चटर्जी परिवार की असल दिक्कतें दरअसल इसी धारणा से पनपती हैं। पति काम में व्यस्त है और पत्नी एक दुधमुंहे बच्चे और एक बस अभी अभी चलना सीख पाए बच्चे को संभालने में हैरान, परेशान और बेहाल है। लेकिन, नॉर्वे में चलने वाली एक एनजीओ को ये मां की अकुशलता दिखती है। उस पर निगरानी बिठाई जाती है और फिर एक दिन एनजीओ वाले उसके दोनों बच्चे घर से उठा ले जाते हैं।

बालाजी गौरी और जिम सरभ का कमालये कहानी दरअसल सागरिका चक्रवर्ती की है। इन दिनों वह आईटी पेशेवर के तौर पर देश में ही काम कर रही हैं और अपने बच्चों को नॉर्वे प्रशासन के नियंत्रण से छुड़ाने की जो लड़ाई उन्होंने अकेले अपने बूते लड़ी, उसे रानी मुखर्जी ने परदे पर फिर से जीकर दिखाया है। फिल्म ‘मिसेज चटर्जी वर्सेस नॉर्वे’ जैसी फिल्मों के सामने सबसे पहली चुनौती यही होती है कि एक पहले से पता कहानी को दर्शकों को बांधकर रख पाने वाली पटकथा में कैसे गूंथा जाए? फिल्म की इस कसौटी पर इसके लेखकों समीर सतीजा, राहुल हांडा और निर्देशक आशिमा छिब्बर ने सौ फीसदी संपूर्ण काम किया है। फिल्म के संवादों के बांग्ला से हिंदी और हिंदी से नॉर्वेजियन और अंग्रेजी में फिसलते रहने से हालांकि दर्शकों का संबंध फिल्म के कथ्य से लगातार बना नहीं रह पाता लेकिन कहानी के धरातल को देखते हुए बीच बीच में आने वाले ये अवरोध ज्यादा खटकते नहीं है। फिल्म के लिए कलाकारों का चयन फिल्म ‘मिसेज चटर्जी वर्सेस नॉर्वे’ का दूसरा आकर्षक बिंदु है। फिल्म हालांकि रानी मुखर्जी पर ही फोकस करती है लेकिन फिल्म के क्लाइमेक्स में अदालत में होने वाली जिरह में बालाजी गौरी और जिम सरभ का अभिनय काबिले तारीफ है।

अदाकारी की रानीऔर, अब बात मिसेज चटर्जी का किरदार करने वाली रानी मुखर्जी की। फिल्म ‘बंटी और बबली 2’ के वीडियो इंटरव्यू के दौरान अभी दो साल पहले ही फ्रेम बना रहे एक कैमरामैन ने यूं ही अपने असिस्टेंट से कहा कि रानी के सोफे के नीचे कुछ ऐसा लगा देते हैं कि उनकी ऊंचाई फ्रेम में इंटरव्यू लेने वाले के बराबर आ जाए। और, कोई स्टार होता तो इसी बात पर भड़क जाता और इंटरव्यू छोड़कर चल देता। लेकिन, दाद देनी होगी रानी की क्योंकि उन्होंने न सिर्फ इस व्यक्तिगत टिप्पणी को नजरअंदाज किया बल्कि उस फोटोग्राफर को कहा, ‘दादा, 25 साल हो गए अभी इसी हाइट के साथ काम करते हुए, चलो न अभी, शुरू करते हैं इंटरव्यू!’ रानी मुखर्जी का जो हिंदी सिनेमा में अब ओहदा है, उसे देखते हुए वह चाहें तो हर महीने एक फिल्म कर सकती हैं लेकिन एम्मे एंटरटेनमेंट कंपनी की ये फिल्म उन्होंने अपने उस समर्पण के लिए की जिसमें उनका हर किरदार हर बार महिला सशक्तिकरण का एक नय चेहरा समाज के सामने पेश करता है।

देबिका के दम पर टिकी फिल्मलोग भले रानी मुखर्जी के पेशेवर जीवन में ये मोड़ ‘युवा’, ‘पहेली’ या ‘ब्लैक’ जैसी फिल्मों से मानते हों लेकिन, ‘अय्या’, ‘मर्दानी’ और ‘हिचकी’ तक आने से पहले रानी ने और भी कई फिल्में की हैं जो भारतीय फिल्म दर्शकों के मन में बनी हिंदी सिनेमा की हीरोइन की आम छवि से मेल नहीं खातीं। फिल्म ‘मिसेज चटर्जी वर्सेस नॉर्वे’ रानी मुखर्जी की अभिनय क्षमता का एक और शीर्ष बिंदु है। एक अनजान देश में पति का साथ न मिलने के बावजूद अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी के सहारे संघर्ष करती देबिका जब नॉर्वे पहुंची एक भारतीय नेता के सामने जा पहुंचती है, तो उसके जीवट और उसके दृढ़निश्चय की बानगी मिलती है। दुधमुंहे बच्चे के दूर होने के बाद स्तनों से होने वाले रिसाव के समय रानी मुखर्जी के चेहरे पर जो भाव पिघलता है, वह दर्शकों के आंखों में आंसू ला देता है।

अवरोध बने फिल्म के गानेदेश में इन दिनों बन रही महिला प्रधान फिल्मों को सिनेमाघर नहीं मिल रहे हैं। ऐसी अधिकतर फिल्में सीधे ओटीटी पर रिलीज हो रही हैं, फिल्म ‘मिसेज चटर्जी वर्सेस नॉर्वे’ ऐसे समय पर रिलीज हो रही है, जब ऐसी फिल्मों को महिला दर्शकों का सिनेमाघरों में प्यार मिलना बहुत जरूरी है। निर्देशक आशिमा छिब्बर ने एक अच्छी फिल्म बनाई है। कलाकार फिल्म के सारे अपनी अपनी जगह मुस्तैद हैं। अब बात फिल्म की उन दिक्कतों की जो इसमें न होतीं तो ये फिल्म एक क्लासिक फिल्म बन सकती है। फिल्म के गाने इसके कथा प्रवाह की सबसे बड़ी बाधा है। खासतौर से वह गाना जिसमें उर्दू के शब्दों की भरमार है और जिसका उद्देश्य देबिका का अपने बच्चों के प्रति प्रेम दर्शाना है। देबिका लोरियां बांग्ला में गाती है। बातें भी इसी भाषा में करती है। हिंदी और अंग्रेजी दोनों उसके लिए एक जैसी कठिनाइयां हैं, ऐसे में उसकी मन:स्थिति को बयां करता गाना बांग्ला में ही होता तो दर्शकों पर ज्यादा असर करता। दूसरी दिक्कत फिल्म की इसकी लंबाई को लेकर है। फिल्म की पटकथा इतनी बेहतरीन है कि अगर फिल्म के तीनों गाने हटाकर इस फिल्म को बिना किसी इंटरवल के देखा जाए तो ये किसी भी संवेदनशील दर्शक को हिलाकर रख सकती है। इंटरवल होता है पॉपकॉर्न, समोसा और कोल्डड्रिंक बेचने के लिए। लेकिन, सोचना ये जरूरी है कि जरूरी क्या है, सिनेमा देखने के लिए दर्शकों का सिनेमाघरों तक आना या…!

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Anita Choudhary is a freelance journalist. Writing articles for many organizations both in Hindi and English on different political and social issues

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