वाराणसी, 7 अप्रैल 2025, सोमवार। वाराणसी, जहां गंगा की लहरें इतिहास की कहानियां सुनाती हैं, वहां सोमवार को कालीमहल इलाके की शिया मस्जिद से एक ऐसा जुलूस निकला जो न सिर्फ सड़कों पर गूंजा, बल्कि एक सदी पुराने दर्द को भी ताजा कर गया। सैकड़ों शिया मुसलमानों ने हाथों में तख्तियां और दिलों में आक्रोश लिए सऊदी सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। यह जुलूस कोई साधारण मार्च नहीं था, बल्कि 50 साल पुरानी परंपरा का हिस्सा था, जो हर साल एक ऐतिहासिक अन्याय की याद दिलाता है।

सदी पुराना दर्द और जुलूस की शुरुआत
कहानी शुरू होती है 100 साल पहले, 21 अप्रैल 1925 को, जब इस्लामिक कैलेंडर में शव्वाल की 8 तारीख थी। उस दिन सऊदी सरकार ने मदीना के पवित्र जन्नतुल बकी कब्रिस्तान में एक ऐसा कदम उठाया, जिसने शिया समुदाय के दिलों को छलनी कर दिया। पैगंबर मोहम्मद की बेटी हजरत फात्मा और चार इमामों की मजारों को बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया गया। तब से यह दिन शिया समुदाय के लिए ‘ब्लैक डे’ बन गया। हर साल इस तारीख को वाराणसी में यह जुलूस निकाला जाता है, जिसमें सऊदी सरकार से मजारों के पुनर्निर्माण की मांग की जाती है।

कालीमहल से दारानगर तक का सफर
इस बार जुलूस कालीमहल से शुरू होकर शेख सलीम फाटक, नई सड़क, दालमंडी, चौक, नीचीबाग और मैदागिन जैसे इलाकों से होता हुआ दारानगर की शिया जामा मस्जिद पर जाकर खत्म हुआ। अंजुमन हैदरी चौकी बनारस के संचालन में आयोजित इस मार्च में शहर की कई अंजुमनें शामिल हुईं। रास्ते में नारेबाजी और मजलिस ने माहौल को और भावुक बना दिया। सुरक्षा के लिए चेतगंज, दशाश्वमेध, चौक और कोतवाली थाना क्षेत्रों में कड़े इंतजाम किए गए थे, ताकि यह शांतिपूर्ण प्रदर्शन बिना किसी व्यवधान के पूरा हो सके।

सऊदी सरकार बस हां कह दे, हम खुद बनवा देंगे
हाजी फरमान हैदर, इस जुलूस के एक प्रमुख आयोजक, ने भावुक होते हुए कहा, “100 साल पहले सऊदी हुकूमत ने पैगंबर साहब की बेटी फात्मा का रौजा नष्ट कर दिया। तब से हम इस दिन को ब्लैक डे के रूप में मनाते हैं और 50 साल से जुलूस निकाल रहे हैं।” उन्होंने भारत सरकार से गुहार लगाई कि वह सऊदी हुकूमत से बात करे और मजारों के पुनर्निर्माण की मांग उठाए। फरमान हैदर ने जोड़ा, “अगर सऊदी सरकार सिर्फ इजाजत दे दे, तो दुनिया भर के शिया अपने खर्चे से वह रौजा दोबारा तामीर कर देंगे।”

इतिहास और आस्था का संगम
यह जुलूस सिर्फ विरोध का प्रतीक नहीं, बल्कि शिया समुदाय की आस्था और इतिहास से गहरे जुड़ाव का भी परिचायक है। हर साल यह आयोजन नई पीढ़ी को उस दर्द की याद दिलाता है, जो उनके पूर्वजों ने सहा। वाराणसी की संकरी गलियों में गूंजती नारेबाजी और मजलिस की आवाजें एक संदेश देती हैं- कि समय भले बदल जाए, लेकिन कुछ जख्म कभी नहीं भरते, और कुछ मांगें कभी खत्म नहीं होतीं। यह जुलूस न सिर्फ एक धार्मिक प्रदर्शन था, बल्कि एक ऐसी मांग का प्रतीक था जो इतिहास के पन्नों से निकलकर आज भी जिंदा है। सवाल यह है कि क्या कभी सऊदी सरकार इस मांग को सुनेगी, या यह जुलूस आने वाली पीढ़ियों तक अपनी गूंज बनाए रखेगा?