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Sunday, August 3, 2025

28 जुलाई 2001: RSS के चार नायकों की शहादत, त्रिपुरा अपहरण कांड का दर्दनाक अंत

नई दिल्ली, 3 अगस्त 2025: 28 जुलाई, 2001: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के लिए यह दिन एक काला अध्याय बन गया, जब भारत सरकार ने त्रिपुरा में 6 अगस्त, 1999 को अपहृत चार वरिष्ठ स्वयंसेवकों—श्यामलकांति सेनगुप्ता (68), दीनेन्द्र डे (48), सुधामय दत्त (51) और शुभंकर चक्रवर्ती (38)—की मृत्यु की आधिकारिक पुष्टि की। इनका अपहरण कंचनपुर के ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ छात्रावास से चर्च प्रेरित आतंकियों द्वारा किया गया था।

श्यामलकांति सेनगुप्ता: समर्पण का प्रतीक

सबसे वरिष्ठ कार्यकर्ता श्यामलकांति सेनगुप्ता का जन्म वर्तमान बांग्लादेश के सुपातला गांव में हुआ था। भारत विभाजन के बाद उनका परिवार असम के सिलचर में बस गया। मैट्रिक की पढ़ाई के दौरान ही वे संघ से जुड़े। पिता के निधन के बाद परिवार की जिम्मेदारी उठाते हुए उन्होंने नौकरी के साथ-साथ एम.कॉम तक की शिक्षा पूरी की। जीवन बीमा निगम में कार्यरत रहते हुए भी वे संघ कार्य में सक्रिय रहे। 1992 में नौकरी छोड़कर वे पूर्णकालिक स्वयंसेवक बने और क्षेत्र कार्यवाह का दायित्व संभाला।

दीनेन्द्र डे: समाज सेवा का जुनून

1953 में उलटाडांगा में जन्मे दीनेन्द्र डे 1963 में सोनारपुर की ‘बैकुंठ शाखा’ से स्वयंसेवक बने। गणित में स्नातक और संघ के तृतीय वर्ष प्रशिक्षण के बाद वे प्रचारक बन गए। ब्रह्मपुर, मुर्शिदाबाद, कूचबिहार, बांकुड़ा और मेदिनीपुर में जिला प्रचारक के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने वनवासियों के बीच सेवा कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

सुधामय दत्त: पत्रकारिता और सेवा का संगम

मेदिनीपुर शाखा के स्वयंसेवक सुधामय दत्त ने स्नातक के बाद प्रचारक का मार्ग चुना। हुगली, मालदा और बंगाल के सेवा कार्यों में उनकी सक्रियता रही। पत्रकारिता में रुचि के चलते उन्हें कोलकाता से प्रकाशित ‘स्वस्तिका’ साप्ताहिक का प्रबंधक बनाया गया। अपहरण के समय वे अगरतला में विभाग प्रचारक थे।

शुभंकर चक्रवर्ती: युवा शक्ति

38 वर्षीय शुभंकर चक्रवर्ती सबसे युवा कार्यकर्ता थे। 24 परगना के स्वयंसेवक और एल.एल.बी. की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे प्रचारक बने। वर्धमान और त्रिपुरा के धर्मनगर में कार्य करते हुए उन्होंने समाज सेवा में अपनी पहचान बनाई।

अंतिम संस्कार का अधूरा दर्द

इन चारों स्वयंसेवकों की मृत देह न मिलने के कारण उनके परिजनों का दुख आज भी अथाह है। न तो विधिवत अंतिम संस्कार हो सका और न ही मृत्यु के बाद की धार्मिक क्रियाएं। संघ परिवार और स्वयंसेवकों के लिए यह घटना एक गहरे आघात के रूप में याद की जाएगी।

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