✍️ श्याम जाजू, राजनीतिज्ञ
25 जून 1975 को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में वह भयावह दिन आया, जब देश में आपातकाल घोषित किया गया। यह ऐसा समय था जब संविधान मौन था, लोकतंत्र घायल था और सत्य बोलना एक अपराध बन गया था। लाखों देशभक्तों की तरह हम भी इस तानाशाही के विरोध में आवाज उठाने वालों में थे।
मैं और मेरे पूज्य पिता जी – दोनों ही जनतंत्र के सजग प्रहरी थे। हमने कलम और कंधे दोनों से अत्याचार का विरोध किया। लेकिन उस वक्त की सरकार को यह असहनीय था। एक रात अचानक पुलिस हमारे घर आई, और बिना किसी वारंट या कारण बताए हमें हिरासत में ले लिया गया। सबसे पीड़ादायक क्षण तब आया, जब हमें जानबूझकर अलग-अलग जेलों में भेज दिया गया—जैसे हमारी एकता से सत्ता डरती हो।
जेल की सलाखों के पीछे वो हर रात तन्हा थी, पर मन में संतोष था कि हम गलत के खिलाफ खड़े थे। पिता जी की चिंता हर वक्त सताती थी, लेकिन उनका साहस और आदर्श मेरे संकल्प को मजबूत करते रहे।
आपातकाल ने हमारे परिवार को तोड़ने की कोशिश की, पर हमारे हौसले और विचारों को नहीं। उस अंधेरे दौर ने हमें सिखाया कि लोकतंत्र की रक्षा केवल संविधान से नहीं, बल्कि नागरिकों के साहस से होती है।
आज जब हम खुली हवा में सांस लेते हैं, यह हमारी जिम्मेदारी है कि उस दौर को याद रखें और आने वाली पीढ़ियों को बताएँ—कैसे देश में एक समय ऐसा भी आया था जब सिर्फ सच बोलना जेल जाने के लिए काफी था और कैसे हजारों लोगों की कुर्बानी ने इस लोकतंत्र को दोबारा जीवित किया।