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Friday, December 27, 2024

आर्मेनिया में रूस और तुर्की की मनमानी, अज़रबैजान के सामने झुकने पर किया मजबूर ।

नवंबर के पहले सप्ताह से पश्चिमी जगत के अमेरिका का सारा ध्यान राष्ट्रपति-पद के चुनाव परिणाम पर केंद्रित था और यूरोप का कोरोना वायरस की दूसरी प्रचंड लहर पर। रूस और तुर्की के लिए यही मौका था, दिखाने का कि पूरब में अब हमारी चलेगी। जैसे ही स्पष्ट हो गया कि ट्रंप चुनाव नहीं जीत सकते, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआन ने मिलकर आर्मेनिया पर उसके नगोर्नो काराबाख इलाके की सीमाएं बदलने और युद्धविराम लागू करने का समझौता थोप दिया।

दोनों ने तय किया कि लड़ाई में नगोर्नो काराबाख के जिन भू-भागों पर अजरबैजान ने कब्जा कर लिया है, वे उसी के पास बने रहेंगे। आर्मेनिया को कुछ और जगहें भी खाली करनी पड़ेंगी। उसे अजरबैजान को, उससे पूर्णतः अलग-थलग, उसके पश्चिमी प्रांत नखचेवान तक आने-जाने के लिए एक गलियारा भी देना पड़ सकता है। बदले में बचे-खुचे नगोर्नो काराबाख में जो आर्मेनियाई रह जाएंगे, उनकी सुरक्षा के लिए रूस वहां अपने दो हजार सैनिक तैनात करने के बहाने से अपनी लंबी सैनिक उपस्थिति सुनिश्चित करेगा। 
अपनी सीमाओं के विस्तार के वादे से प्रफुल्लित अजरबैजान के राष्ट्रपति इलहाम अलीयेव ने दस नवंबर को चहकते हुए कहा, ‘हमने दिखा दिया कि समस्या का एक सैन्य-समाधान भी है।’ किंतु इस ‘सैन्य-समाधान’ से आर्मेनिया में मातम छा गया है। जनता अपने प्रधानमंत्री नीकोल पाशिन्यान को कोसते-धिक्कारते हुए उग्र प्रदर्शन कर रही है। नगोर्नों काराबाख के जिन लोगों का निवास क्षेत्र अब अजरबैजान को मिल जाएगा, वहां के लोग अपने घर-बार फूंक-ताप कर पलायन कर रहे हैं। आर्मेनिया की सरकार को कोरोना वायरस की भारी मार के बीच अब एक लाख से अधिक इन शरणार्थियों का बोझ भी उठाना पड़ रहा है। मात्र 30 लाख की जनसंख्या वाला ईसाई देश आर्मेनिया और एक करोड़ की आबादी वाला इस्लामी देश अजरबैजान, 1991 में पूर्व सोवियत संघ के बिखरने तक, उसके दो ‘संघटक गणराज्य’ हुआ करते थे। ईसाई बहुमत वाला नगोर्नो काराबाख तब अजरबैजान का एक ‘स्वात्तशासी गणतंत्र’ हुआ करता था। किंतु सोवियत संघ के बिखरते ही वहां आर्मेनिया से जुड़ने का एक रक्तरंजित आंदोलन छिड़ गया। 1994 में आर्मेनिया का अंग बनने के साथ इस संघर्ष का अंत होने तक करीब 30 हजार लोग मारे गए और लाखों शरणार्थी बन गए। गत 27 सितंबर को दोनों देशों के बीच एक नया युद्ध छिड़ गया। आर्मेनिया के साथ रूस की एक सहायता-संधि है, तब भी रूस दोनों शत्रु देशों को हथियार बेचता रहा है। अजरबैजान को रूस के अलावा तुर्की और इस्राइल से भी आधुनिक हथियार मिलते रहे हैं। प्रेक्षकों का कहना है कि अजरबैजान की जीत में उसे तुर्की और इस्राइल से मिले ड्रोनों की निर्णायक भूमिका रही है। नाटो के सदस्य तुर्की ने ये ड्रोन नाटो के ही एक दूसरे सदस्य कनाडा से खरीदे थे।

आर्मेनिया के पास कोई ड्रोन नहीं थे। उसके सैनिक बुरी तरह पिट गए। अजरबैजान, तुर्की के लिए तुर्कवंशियों का ही एक स्वजातीय इस्लामी देश है। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन कॉकेशस में भी विस्तारवादी महत्वाकांक्षाएं रखते हैं। इसलिए उन्होंने अजरबैजान को उकसाने और उसके हाथ मजबूत करने के लिए वहां अपने सैनिक और अल बगदादी वाले ‘इस्लामी स्टेट’ के ऐसे खूंखार लड़ाके भी भेजे हैं, जिन्हें उन्होंने उत्तरी सीरिया में इदलिब जैसे शहरों के आतंकवादियों वाले शिविरों में पाल रखा है।

वास्तव में रूस और तुर्की दक्षिणी कॉकेशस में उतनी ही दूर तक एक-दूसरे के यार हैं, जितनी दूर तक उनकी स्वार्थपूर्ति होती दिखती है। दोनों को भली-भांति जानने वाले जर्मन प्रेक्षकों का कहना है कि इस कॉकेशियाई लड़ाई में सबसे बड़ी भू-राजनीतिक मिठाई रूस के हाथ लगी है। उसकी सेना अब न केवल आर्मेनिया में होगी, नगोर्नो काराबाख के उस हिस्से में भी होगी, जो अब अजरबैजान को मिल गया है। तुर्की अपनी पीठ थपथपा सकता है कि उसके लिए अब अपने स्वजातीय अजरबैजान तक आने-जाने का एक सीधा रास्ता खुल जाएगा। ठगा गया बेचार आर्मेनिया! ‘आत्मसमर्पण’ का आरोप झेल रही वहां की सरकार के प्रति जनता का आक्रोश यदि शांत नहीं हुआ, तो वहां भारी उथल-पुथल मच सकती है।

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Anita Choudhary is a freelance journalist. Writing articles for many organizations both in Hindi and English on different political and social issues

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